लंदन नेशनल थियेटर के भूतपूर्व निर्देशक पीटर हाल ने जब यह कहा था कि, "किसी भी देश की दशा को जानने के लिए, वहाँ के रंगमंच की दशा को समझना आवश्यक है," तो
संभवतः उन्हें भी यह अंदाजा नहीं था कि आगे चलकर उनकी यह बात कई वर्षों बाद आज भी हमारे अपने थियेटरों के लिए प्रासंगिक होगी। पीटर हाल के उस कथन के विविध
निहितार्थों को समझने की चेष्टा करने के बजाए मेरी समझ में हमारा उद्देश्य है, अपने बहुविध क्षेत्रों और बदलते रूपों वाले वर्तमान रंगमंच के प्रति हमारी
प्रतिबद्धता को समझना।
फिर मुझे रोबर्ट बोल्ट द्वारा अपने नाटक 'ए मैन फॉर आल सीजन' का परिचय प्रस्तुत करते हुए, हेनरी अष्टम के बारे में लिखा हुआ कथन स्मरण हो आया। हेनरी अष्टम की
तरह ही भारतीय रंगमंच भी अपनी समस्त विशिटताओं के साथ अस्तित्व में आया और फिर जैसे सब कुछ बिखर गया। इस तरह कोशिश करना और सूत्रीकरण तक पहुँचना आनंददायक हो
सकता है जिससे शायद इस प्रक्रिया को, इसके प्रयोजनों और हकीकी परिणामों के प्रभाव को भी समझना आसान हो।
शायद इसी कारण यह तर्कसांगिक लगे, कि रंगमंच के प्रति बदलते सूक्ष्म एवं अति-सूक्ष्म प्रतिबद्धताओं को व्यवसायी एवं शौकिया रंगमंच के स्तर पर टटोला जाए। शायद
इससे कुछ मदद मिले ताकि प्रतिबद्धता के सवाल का परीक्षण किया जाए और सरसरी निगाह से तुलनात्मक दृष्टि के अंतर्गत विश्व के कुछ देशों में रंगमंच के प्रति
प्रतिबद्धता का अध्ययन करने में आसानी हो।
उदाहरणार्थ रंगमंच के लिए प्रतिबद्धता क्यों कर कुछ देशों में भिन्न है जिसके कारण सेमुएल बेकेट, या बेर्टोल्ट ब्रेष्ट या बेला पिंटर, विश्व को, क्रमशः वेटिंग
फॉर गोडो, चौकेशियन चाक सर्किल, एंड द पीसेंट ओपेरा, जैसे नाटक दे सके जिसने विश्व के दर्शकों की मानसिकता पर अमिट छाप छोड़ा? और कैसे और क्यों हमारी प्रतिबद्धता
रंगमंच की संभावनाओं को और भी अधिक सीमित क्षेत्रीय प्रभाव पर रोक लगाती है सिवाय कुछ नाटकों जैसे बी.वी. कारंथ, हबीब तनवीर, रतन थियाम के जो अपवादों से भी परे
एक अलग कीर्तिमान स्थापित करते हैं। सबसे बड़ा अंतर जो, सबसे पहले, मेरे दिमाग को घेरे है, वह समसामयिक परेशानियों की अभिव्यक्ति है, जो दर्शक के अस्तित्व पर
प्रभाव डालता है, जो इनसानी हालातों का अभिवाज्य हिस्सा है। आज का रंगमंच, खासकर हमारे हिंदी जगत का, दर्शकों के साथ परेशानियों को साझा करने में भागीदारी नहीं
लेता, जो शायद विभिन्न एवं वृहद तरीकों से ओ'नील, नोएल कोवार्ड, ब्रेष्ट, बेकेट या हेरोल्ड पिंटर के नाटकों में देखा गया है। जहाँ विश्व का रंगमंच, विश्व्यापी
मनुष्य के उभरते रूप से, कुश्ती लड़ रहा है, हमें यह सोचना और कोशिश करनी चाहिए कि आखिर हम क्या सुलझाने की कोशिश कर रहे हैं, अगर हम उस समस्या से सही मायने में,
हमारे रंगमंच में, द्वंद्व न भी लड़ रहें हो तो, हमारे दर्शकों के लिए कैसे कारगर है। क्या ऐसा नहीं है, अगर एक संभावना मान ले तो, कि हमारा रंगमंच वर्तमान से
पीछे हट रहा है, शायद भूतकाल की ओर, या फिर अस्पष्ट भविष्य की ओर, ठीक वैसे ही जैसे विश्व भर के नेतागण लोगों को भड़काने का काम करते हैं, जिसका अंत ठीक वैसे ही
होता है जैसा, गार्सिया मार्केज का कहना है, "अधिकार प्राप्त लोगों को आशाओं से वंचित रखना?"
वर्तमान समय के प्रभाव को दरकिनार करना न सिर्फ रंगमंच के लिए बल्कि सभी राष्ट्रों के लिए आत्मघाती होगा। हमारे रंगमंच में दर्शकों की घटती संख्या के पीछे यह
बड़ा कारण है, चाहे हम कितना ही सिनेमा या टेलीविजन को इस गिरावट का जिम्मेदार ठहराएँ। यह सही नहीं है। शायद हम भी जिम्मेदार हैं। हमें इस बात की ओर ध्यान देकर
सोचना चाहिए कि दिल्ली शहर से भी छोटे देश, हंगरी की राजधानी, बुडापेस्ट, 56 रंगमंच सभागारों के अस्तित्व का जश्न मनाता है, जिनमें कोई तभी प्रवेश कर सकता है जब
तक 3 हफ्ते पहले की बुकिंग न की गई हो। सभागारों की संख्या पर इतना गर्व करना सामन्य ज्ञान का विषय है। अक्सर जिस सच्चाई से, हम रंगमंच में, मुँह मोड़े रहते हैं
और पीछा छुड़ाते हैं वह यह है कि हमारे बीच में कई रंगकर्मी, चाहे वह शौकिया हों या व्यवसायी, ऐसे रंगमंच की परिकल्पना करने के लिए पूर्ण रूप से प्रतिबद्ध नहीं
हैं जो दर्शकों को नाटक देखने के लिए बाध्य/विवश कर सके, जो आसानी से संभव तभी हो सकता है जब दर्शक में यह विश्वास पैदा हो कि वह ऐसा कुछ जरूर हासिल/ग्रहण कर
लेगा जिससे उसकी जिंदगी की गुणवत्ता में सुधार हो सके। अधिकारवश ही सही, रंगमंच फिर क्यों आस लगाए जब वह ठीक से संप्रेषित हो पा रहा। प्रतिबद्धता की यह कमी
सिर्फ व्यक्ति विशेष तक सीमित नहीं बल्कि संस्थानों के स्मृति-लोप में भी फैली हुई है। दुर्भाग्यवश, यहाँ इस बात पर जोर दिया जा रहा है, कि श्रेष्ठ किस्म की
उत्कृष्ठता का भाव, जो दर्शक को पृथक करता है, दर्शक और अभिनेता के बीच ऐसी अदृश्य दीवार खड़ी करता है जिससे संचार में बाधा आती है और जो फलते-फूलते रंगमंच के
निर्माण और भरण-पोषण के लिए अनिवार्य है। रंगमंच का कार्य दर्शकों को गुणों से अभिभूत करना होना चाहिए और यह तभी संभव है जब आपस में संप्रेषण का भाव हो, न कि
कथित रूप से, न्यूनतर इनसान को यह जताना कि हम कितने बड़े और महान रंगकर्मी हैं। कहीं-न-कहीं इस धारा में, रंग कलाकार, भगवान स्वरूपी 'फिल्म के अभिनेता' से
ईर्ष्यावश उसका अनुसरण करने लगे हैं और ठीक उस जैसा बनने की आस लगाए हुए हैं। कुछ उनकी नक्ल भी करने की कोशिश करते हैं जो दर्शक और रंगमंच की दूरी को थोड़ा और
बढ़ा देता है। सिर्फ 'आत्मप्रदर्शन' कलाकार के लिए आत्मघाती है और रंगमंच के लिए हानिकर है।
आत्मप्रदर्शन का प्रलोभन/लालच, रंगमंच और दर्शक के रिश्ते को लचर कर सकता है और दर्शकों का क्षीयमान होना पहला उदाहरण और इशारा है। शुद्धरूप से, आत्मप्रदर्शन ही
अच्छे रंगमंच को बुरे से पृथक करता है। क्योंकि सर्वप्रथम, रंगमंच की दूसरी सबसे जरूरी चीज प्रतिबद्धता क्षीण होने लगती है और यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो शायद ही
कभी प्रतिवर्ती हो और एक ऐसे रंगमंच की शुरुआत करता है जिसे 'समझौते का रंगमंच' कहा जाता है। जैसा हम जानते हैं, विश्व भर में, किसी भी कला संकाय में, समझौते की
कोई जगह नहीं है। समझौते की प्रभाव को दर्शाने के लिए दो उपयुक्त उदाहरण हैं। पहला निर्भया केस - एक ऐसा गैंग रेप जिसने न केवल हमारे देश अपितु पूरे संसार को
हिलाकर रख दिया। यह कैसी विडंबना है कि इतने विद्रोह और रोष के बावजूद, जैसा मुझे लगता है, शायद हमारा रंगमंच इस बात से सुखद रूप से अनभिज्ञ था कि एक प्रस्तुति
या नाटक को न ही प्रस्तुत किया गया और न ही ऐसा लिखा गया जो विचारणीय हो। इससे पहले ऐसे हालातों का कला के माध्यम से सामना किया जाता रहा है जो कई सदियों से
विश्व भर का रंगमंच करता चला आ रहा है। दूसरा उदाहरण और भी रोचक है। यह इतिहास से लिया गया उदाहरण है, जब इतिहास को प्रासांगिक बनाने के प्रयासों के तहत, 50 ई.
में जर्मन, इंगलैंड और अन्य जगहों के नाटककारों एवं निर्देशकों ने योगदान दिया जिसमें सबसे प्रभावी नाटक हेरोल्ड पिंटर का 'बर्थडे पार्टी' था। संदर्भ प्रख्यात
शोधवृत और राजकुमार, दारा शिकोह का है जिन पर तीन नाटक लिखे गए। दिलचस्प बात यह है कि भारतीय इतिहास का एक चरित्र इस योग्य था जिसने तीन देशों के नाटककारों को
नाटक लिखने के लिए प्रेरित किया। पहला उल्लेखनीय योग्य नाटक गोपाल कृष्ण गांधी, दूसरा, जो अँग्रेजी में नही है, पड़ोसी मुल्क के शाहीद नदीम, और तीसरा वाशिंगटन
में पढ़ा रहे पाकिस्तानी मूल के अमरीकी द्वारा लिखा गया। लेकिन ऐसा क्यों है कि, नेशनल थियेटर लंदन ने, इन तीन नाटकों में से सिर्फ एक को चुना, उसका अँग्रेजी में
अनुवाद और रूपांतरण किया और फिर नेशनल में उसके कई प्रदर्शन किए गए। ताज्जुब की बात यह कि आखिरकार शाहिद नदीम के संस्करण को चुना गया। मूल बात यह है कि, हमारे
रंगमंच के नाटक का चयन क्यों नहीं और एक सवाल जो दुबारा उभर कर सामने आता है वह साहित्यिक गुणवत्ता का नहीं, बल्कि प्रदर्शन में ड्रामा / नाटकीयता की कमी है।
गोपाल कृष्ण गांधी के कितने नाटकों को अब तक खेलने का प्रयास किया गया? यह सिर्फ इतिहास का नहीं बल्कि वर्तमान समय की उपेक्षा है। एक नाटकीय साइकी/आत्मा से
अभिभूत राष्ट्र जो आत्मप्रदर्शन में फलता और पनपता है, ऐसे माहौल के साथ तारतम्य स्थापित नहीं कर पाता, जो उससे कहीं ज्यादा मायने रखता है जितना मथ के उसे परोसा
जाता है। आत्मप्रदर्शन की ललक और जिम्मेदारी के बीच का रिश्ता, रंगमंच के जीवन रेखा के समान है जिसे बारीकी और संजीदगी से संतुलित रखना चाहिए। हमारे सभी तकनीकी
और कलात्मक गुणवत्ता के बावजूद, मुख्य कारण यह है कि कुछ व्यापक संदिग्ध कारणों की वजह से, हमारे नाटक विश्वजगत में वह प्रभाव नहीं छोड़ पाते जितना वह कर सकते
हैं। निस्संदेह कई निर्देशकों के कार्यों को, देश के बाहर के उत्सवों में प्रदर्शन करने का अवसर मिला जरूर है लेकिन यह काफी चिंता का विषय है कोसों दूर तक, न ही
देश में और न ही विदेश में, निरंतर रूप से प्रभावकारी रंगमंच किया जाता है। अगर यह आत्मप्रदर्शन नहीं, तो फिर यह मन को संतोष देने के लक्षण हैं और जब तक कोई
इससे उबर पाए, शायद तब तक वक़्त निकल चुका होगा और यह भूतकाल का विषय मात्र बनकर रह जाएगा।
जिस बात की ओर इशारा किया जा रहा है वह रंगमंच की दरिद्रता कतई नही है। रंगमंच के सहायक स्वरूप पर और न ही उसकी आधारभूत सरंचना पर शोक मनाने की जरूरत है। अगर
रंगमंच को बढ़ना है तो, वह इन कारणों से नहीं, इनके बावजूद भी बढ़ेगा। रंगमंच को ईमानदारी के साथ ऐसे मुहावरे तलाशने होंगे जो बदलते हकीकत और उसके फलस्वरूप बदलते
परिवेश को तकनीकों और विषय-वस्तुओं में संघटित कर सके जिससे जिम्मेदार हो, कार्य को उपयोगी बनाते हुए, क्षेत्रीय परिवेश से व्यापक परिवेश तक और संभवतः गुजरते
समय में और आगे तक पहुँचा जा सके। ऐसा हो सकता है कि, इस शक्ति की लगातार बढ़ती कमी के कारण ही गहरा असर पड़ रहा है जिससे रंगमंच भी अछूता नही है। रंगमंच में,
संस्कारों के संदर्भ में, सकारात्मक और संशोधनात्मक कार्यकलापों का होना जरूरी है और शायद इस जरूरत को पूरी करने की बढ़ती असंभवता का कारण यह है कि पुराने समय की
भाँति, रंगमंच ने हाल ही में महज प्रतिक्रिया बनकर, वास्तविकता के संप्रेषण का कोई ठोस कदम नहीं लिया है।
आत्मप्रदर्शन बनाम संचार के मुद्दे पर अब विस्तार से बात की जाए। रंगमंच संचार के बल पर टिका है और कुछ भी जिससे रंगमंच को समझौता करना पड़े, वह कभी भी रंगमंच
नहीं हो सकता। यह मुद्दा, पहले भी, दूसरे तरीके से और हाल ही में अलग तरीक से सामने रखा जा चुका है। हम सब इस बात से परिचित हैं कि रंगमंच सही अर्थों में
वास्तविकता की प्रतिक्रिया है, पर यह सिर्फ वास्तविकता से पलायन मात्र है। और बालीवुड सिनेमा के ढर्रे पर चले हुए, चाहे वह महज आकर्षण या पैसों के लिए - हम एक
सच को भूला रहे हैं कि, संचार एक कला है और दर्शकों की शुभकामना और इज्जत को कमाना, हर्जाने से बढ़कर है। ऐसे ही प्रतिबद्धता की मिसाल देने वाले एक महान
रंग-निर्देशक, जिन्होंने संचार के नए आयाम स्थापित किए, भारत के रतन थियाम हैं, जिन्होंने सबसे योग्य और उत्कृष्ठ तरीकों से रंगमंच को विश्वजगत के मानचित्र में
स्थान दिलाया और विश्व का शायद ही कोई ऐसा केंद्र बचा हो, जहाँ निरंतर रूप से, इनके नाटकों का प्रदर्शन ना हुआ हो। यह एक बात तो दर्शाती है कि प्रतिबद्धता बहुत
सारे रुकावटों को पार कर लेती है, जैसे उदाहरण के लिए भाषा के अवरोध को। इनका कार्य रंगमंच की पवित्रता को बनाए रखता है और यह प्रमाणित करता है कि, महज फिल्म की
ललक के इतर, रंगमंच के माध्यम से कहीं अधिक प्रसिद्धि और इज्जत अर्जित की जा सकती है। यह काफी दिलचस्प बात है कि रतन थियाम के पास एक खास किस्म की विश्वस्तरीय
श्रेणी है जो शायद फिल्म की तरफ जाने वाले लोग न ही कुछ अर्जित या प्राप्त कर पाएँगे।
तात्विक रूप से क्या आत्मप्रदर्शन में कुछ गलत है? जवाब स्पष्ट रूप से निरपेक्ष है - नहीं। समस्याएँ तभी शुरू होती हैं जब आत्मप्रदर्शन संप्रेषण पर हावी होने
लगता है। आत्मप्रदर्शन सिर्फ स्वार्थ और अहम में सिमटकर रह जाता है और प्रदर्शन, फ्रेंच में प्रयोग की जाने वाली 'स्पेक्टेकल' से सिमटकर छोटा और क्षीण हो जाता
है। 'स्पेक्टेकल' की नुमाइश का सबसे उत्कृष्ठ उदाहरण थियाम के 'उत्तर-प्रियदर्शी' नाटक का युद्ध दृश्य है। आश्चर्यजनक रूप से, कुछ चंद अभिनेताओं ने, जिस व्यापक
रूप से, युद्ध के विध्वंशकारी पहलुओं को दर्शाया है, वह वाकई मंच पर किसी विजय से कम नहीं है। हालाँकि, किसी भारतीय निर्देशक ने उलटे यह समीक्षा की, कि 'वहाँ
दृश्यों से युद्ध का विध्वंश दिखाया जा रहा है और दर्शक तालियाँ बजा रहे हैं! निर्देशक के पास प्रतिक्रिया के लिए कोई शब्द नहीं थे। अगर दर्शकों ने तालियाँ बजाई
तो इसकी वजह युद्ध की तबाही नहीं थी अपितु आश्चर्यजनक रूप से, मंच के लिए परिकल्पित विध्वंश का दृश्य था जो समता, विषमता, आंतरिक, बाह्य सभी बिंदुओं के माध्यम
से संप्रेषित हुआ और ऐसा प्रभाव पड़ा जिसे छूना बॉलीवुड सिनेमा में दुर्गम है।
सारा सवाल संचार की गुणवता और मूढ़ आत्मप्रदर्शन को कलात्मक अभिव्यक्ति से पराजित करने के योग्य होने का है। हमें फिर से, साधारण बनाम श्रेष्ठ के, उस पुराने सवाल
के सामने ला खड़ा करता है जो पीटर शेफर के नाटक 'एमाडयूस' में अभिव्यक्त किया गया है। हालाँकि साधारण बनाम श्रेष्ठ का खेल, ऐसा है जो मनुष्य के अस्तित्व के
विभिन्न स्तरों में व्यापक है आर विश्वभर को आगाह करता है। क्या फिर हमारे रंगमंच में प्रचलित आत्मप्रदर्शन और संचार के बीच का द्वंद्व सार्वभौमिक प्रवृत्ति का
विस्तार है? मेरे विचार से नहीं, क्योंकि हम अपनी पद्धतियों में इतने अलग-थलग हैं कि हम अनाश्रित पृथक्कर्ण का, भ्रमित होकर, उत्सव मनाने के लिए योग्य हैं और न
ही इस अबोध्यता को समझने का प्रयास करते हैं। शायद सुनने में अजीब लगे, लेकिन प्रायः विभिन्न ड्रामा स्कूलों के बच्चों की, 'वेटिंग फॉर गोडो' और 'द बर्थडे
पार्टी' के लिए एक विशिष्ट प्रतिक्रिया होती है कि दोनों में कुछ भी नहीं है, जबकि दोनों ही नाटक बराबर रूप से सार्वभौमिक हैं। दोनों ही नाटकों का साहित्य में
नोबेल पुरस्कार पाना महत्वहीन है और ऐसा क्यों है कि हमारे देश से किसी भी नाटककार को यह सम्मान नहीं मिला? किन्ही कारणों से यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए।
स्वाभाविक रूप से अन्य चीजों के साथ, इस बात की भी जरूरत है कि हम अपने रंगमंच को जितना प्रेम करते हैं उससे और अधिक प्रेम करें। लेकिन स्पष्ट रूप से हमें
दर्शकों का सम्मान करते हुए, रंगमंच को बात-चीत का माध्यम बनाना होगा, न कि ऐसी प्रदर्शनी की गोलाबारी दर्शकों पर करने से, जैसा कभी दर्शक ने अनुभव भी न किया
हो, चूँकि अब ऐसी गोलाबारी धीरे-धीरे उबाऊ क्लिशे में खिसकती जा रही है।
विश्व भर के रंगमंच में, संचार ने हमेशा, तर्कसंगत तरीके से, आत्मप्रदर्शन पर वरीयता प्राप्त की है। शायद हमें बदलाव की जरूरत है।
इस अंतर से तभी हम उबर सकते हैं जब हमारे रंगमंच का, विश्व रंगमंच से बेहतर एक्सपोजर हो और उन्हें बिना खारिज किए अपितु उनको समझते हुए, न कि मात्र अनुकरण कर,
रंगमंच को समृद्ध करते हुए, जो प्रचलन में है, बल्कि दर्शकों की बदलते हकीकत से संपर्क साधने पर जोर डालने से इस अंतर से हम निजात पा सकते है। हम तभी सच्चे
कलाकार बन सकते है जब हम इन बातों पर विचार करें - पहला सच्चाई, दूसरा मानवीय प्रतिष्ठा, जो पूरी तरह से न सिर्फ हमारे देश में बल्कि विश्व भर में लापरवाही का
विषय बनता जा रहा है। कैसे हेरोल्ड पिंटर जैसा नाटककार साहस कर पाता है जब नोबेल पुरूस्कार के स्वीकृति भाषण में सयुंक्त राष्ट्र का तर्कसहित समीक्षा और
मूल्यांकन करता है। कैसे वह संसद के सदन को संबोधित करते हुए अपने संयुक्त भाषण में सच बोलने का साहस जूता पाता है? अगर यह साहस, रंगमंच के प्रति उसके प्रेम की
वजह से है, या नहीं है, तो उसके मनुष्य के प्रति, प्रतिष्ठा के प्रेम के कारण ही जुटा पाता है जो शायद रंगमंच को सही मायने में परिभाषित करता है।