ओस की बूँदों को पता नहीं कब से
चौड़ी-चिकनी सड़कों पर सो रहा
फुटपाथ का रहनवार
अमृत की बूँदें समझ रहा है...
हर बार चकाचौंध रोशनी के
महानगरीय द्वंद्वों में
नए सिरे से उलझ रहा है।
गुलाब खिला, चहक उठे पक्षी
मलयागिरि से चलकर ताजी
हवा भी आ गई,
उग आई सूरज की लाल-लाल टिकिया
सवेरा हुआ, सब कुछ सुलझता जा रहा है
बस उसकी जिंदगी का
‘चेप्टर’ उलझता जा रहा है।
पहले से डेढ़ गुना ज्यादा वजन
लादकर, पहले से दूने समय तक
खींचता है रिक्शा
...हो चला है अब कमजोर, बीमार
चढ़ता ही जा रहा है
साथियों से लिया हुआ लंबा उधार।
जिंदगी ऋणात्मक होती जा रही है।
उसकी भी जिंदगी चल रही है
उसमें रफ्तार भी है किंतु
वह आगे नहीं बढ़ रही है।
तेज त्वरण के बावजूद यह सच है
कि जीवन
एक सदिश राशि है।