पगलिया!
ऊपर से भोलापन
अंदर से छलिया,
जगत-तारन समझा
आस्तिक बना, देवताओं में उलझा
...मनकामेश्वर से अलोपी
निश्छलता की साधना से
प्रेम धार रोपी।
सद्दाम को पढ़ा, अल्ला को गढ़ा
और ‘अल्लापुर’ पढ़ा
वाममार्गी बना अशोक की
प्रांजल लाट पर,
उसे डुबोया किसी सरस्वती घाट पर
पिकासो के चित्र थे...
अपूरणीय थी यह प्रेम की फीस
लौटकर वहीं गया... तेईस बटा पचीस।
जिंदगी के पन्ने का सब किया
संक्षेपण, पल्लवन और पाठबोधन
क्यों कायम रहा!
अकिंचन के जीवन में कारुणिक रोदन!