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कविता

चाँद का गर्व

प्रांजल धर


आधी रात और दो-तिहाई जीवन
बीत चुकने के बाद
कहा चाँद ने मुँह घुमाकर,
बहुत सारे लोगों ने उपमाएँ दी हैं मेरी
हेरोडोटस से लेकर मुगल सम्राटों ने,
यीट्स, ग़ालिब, शेली और होमर ने ;
कालिदास की विरहिणी के मन में भी
किया है लंबा भ्रमण मैंने ;
ठंडी, चुप और लंबी रातों में
अनेक युगलों ने मुझे जगाया,
डाली खलल बार-बार
पूर्णिमा से अमावस की मेरी परिक्रमा में;
फूलों, झीलों और उतरते झरनों को
अपने शब्दों में बयाँ किया लोगों ने
मेरे साथ।
कुछ की प्रेयसियाँ मुझसे सुंदर और शीतल रहीं
कुछ मुझसे अच्छी, निष्कलंक
काव्य-पंक्तियों की चमक में आया हूँ अकसर
तिकोने प्रिज्म से गुजरी रोशनी का
सुंदर दौड़ता रथ लेकर;
अश्व जुते हैं जिसमें
हड़प्पा और इंका से चली आ रही
लंबी ऐतिहासिक परंपरा के,
दुःख भरी आख्यायिकाओं के
चोटिल शब्दों में उतारा है मुझे
सभी महादेशों के सभी कथाकारों ने;
रिश्ता नापा है खगोलविदों ने
मेरी गति, परिक्रमा और घूर्णन के बीच;
सिंदबाद की कहानियों और मार्को पोलो की
नौका-यात्राओं में मेरा जिक्र पसरा है...
विंध्य, अरावली और यूराल के
बनते-मिटते शिखरों को निहारा मेरी दृष्टि ने।
 
समय की साइकिल खटर-खटर
चलती रही, उपमाओं की बीहड़ सड़कों पर;
और टँगा रहा हूँ मैं
साइकिल के नाम खुदे हैंडल में
हरी सब्जियों के झोले-सा...
पर स्वयं पर इतना गर्व नहीं हुआ कभी
देखती है जब वह अपने लंबे लाल झुमके के
चमकते नगों में मुझे
भूकंप की भेंट चढ़े अपने परिवार की
खोई तस्वीरों के बहाने।
 

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