पहले कहती थीं तुम,
मैं प्रेम करती हूँ तुमसे
वक्त और हालात ने पढ़ाए कुछ पाठ
दी कुछ सीख जीवन की
और कहा तुमने,
मैं सच्चा प्रेम करती हूँ तुमसे
झूठे प्रेम की जानकारी हो चली थी तुम्हें।
...मजबूरियों ने दस्तक दी
जीवन की चौखट पर
कहने लगीं तुम
‘प्रेम ही तो करती हूँ
और कर भी क्या सकती हूँ
पर मेरा प्रेम कुछ भिन्न किस्म का है...’
पर प्रेम तो अव्यक्त कहीं
फुटपाथ पर सोता रहा
और उसे बिना जाने
उसका वर्गीकरण होता रहा,
हमारा रिश्ता अपनी पहचान खोता रहा।
...प्रेम ...सच्चा प्रेम ...भिन्न किस्म का...
आज तुम कहती हो, यह व्यर्थ की चीज है
कुछ हासिल नहीं होता इससे,
प्रेम और हासिल?
बड़ी अजीब बात है!
गाय दूध देती है, यहाँ तक ठीक है।
और यहीं तक ठीक है।
क्योंकि
दूध देने वाली हर चीज गाय नहीं होती।