मैं तो चला जाऊँगा,
पर क्या जवाब दूँगा उन सवालों का
जो मेरे भीतर बैठी तुम
पूछोगी मुझसे ही,
उन सवालों का
जो पूछेंगी बूँदें ओस की
टपककर मेरी हथेली पर,
और क्या समझाओगी तुम
स्वयं अपने ही हृदय को,
कहाँ छिपाओगी
प्रेम की वर्णमाला के
कुछ नवजात अक्षरों को
जो दर्ज हैं तुम्हारे दिल के तहखाने में,
उन गीतों को
जो साथ-साथ जिए गए जीवन के हिस्सों पर
खुद गए हैं,
उन चिराग़ों को जिन्हें जलाया कई बार मगर
बुझ गए हैं...
माथे की लकीरें किस शक्ल में ढलेंगी जब
सुनोगी कि लड़की कोई
लिख रही है खत
जागकर रात-रात भर
अपने प्रेमी को,
और मिटा रही है हरेक अक्षर
लिखने के बाद सौ-सौ बार
पर हर बार रह जाता है कुछ निशान बाकी,
लिखे हुए शब्दों के पीछे का
न मिट पाने वाला यह निशान ही
...प्रेम है शायद।
मैं तो चला ही जाऊँगा
यह निशान कहाँ जाएगा?