(दशरथ माँझी के लिए)
उन हाथों की सच्चाई भरी कर्मठ छुअन को
कहाँ रख पाएगी लेखनी;
भिखारन नजर आती हैं सारी सत्ताएँ शब्द की।
खड़ी बोली, भोजपुरी, मगही, मैथिली और डोगरी -
सब निरुत्तर !
उनके दशकों लंबे पर्वतीय और फौलादी सवालों को सुनकर।
हाथ थामा था कातरता से एम्स के प्राईवेट वार्ड में उनका
और भर गया था उम्मीद से।
‘नहीं रहे वे’
एंकर स्टोरी थी कुछ अखबारों की अगली सुबह।
बयाँ न कर पाई वैश्विक अँग्रेजी भी टीस को उनकी
जो सालों साल काटती रही उन्हें,
और वे पहाड़ों को।
बन गया रास्ता, लेकिन खो गई ज्वाला
छटपटाहट भरी क्रान्ति की,
उस मोटे ‘देहाती’ चादर में;
अंतिम बार भी जिसे ओढ़े बिना नहीं रह सके थे वे।