खैरआफियत पूछता हूँ
फूलों से,
पत्थरदिल तितलियों ने जोंक की तरह चूस डाला उन्हें
नदी पार करने के शौकीन मुसाफिरों से,
खेवैयों ने डुबोया है जिन्हें।
चौराहों से,
जहाँ आकर हर गुजरने वाले ने निर्णय लिया
कि जाना किधर है आखिर
लेकिन चौराहा न जा सका कहीं
एक इंच भी।
मोबाइल और लैपटॉप से लैस
वीतराग संतों से,
जिन्होंने आज तक केवल चोचले ही बघारे हैं।
हृदयज्ञ सरकार और व्यवस्था से,
जो सिर्फ और सिर्फ वादों से चलती है।
ब्राह्मी, खरोष्ठी और आरमेइक लिपियों से पिरोये हुए
मौर्यकालीन ऐतिहासिक अभिलेखों से
जो प्राकृत में लिखे जाते थे
जनता की खैरआफियत को बनाये-बचाए रखने के लिए।