(एक)
एक कहता मुझे मौत से जरा भी खौफ नहीं
और दूसरा ठोंक देता उसे देसी एक कट्टे से,
बिलकुल बेखौफ हो सभी के सामने,
प्रचलित जुमलों के तहत दोनों ही वीर हैं।
मृत्यु को हमारी नियति बताया गया था हमें
पर तय किया हम सबने, मिलकर,
कि जिंदगी से बदला तो चुकाएँगे
जीकर उसे अपनी ही शर्तों पर।
(दो)
ऐसे वीभत्स दौर आए बीच-बीच में
जब हमारी गर्दन पकड़कर
ली गई हमसे सहमति जबरन
कि सबसे सेकुलर चीज मौत ही होती है,
जाति, धर्म, लिंग, क्षेत्र या भाषा वगैरह के भी ऊपर।
हालात ने आत्महत्या की चादर में लिपटी
उस मायावी मृत्यु से रू-ब-रू कराया,
जो हत्या हुआ करती अकसर।
और हत्या पर तो खुद आवरण होता
हिंसक वध का, और वध पर मुक्ति का शायद।
कितने ही परदों के नीचे दबी होती
प्याजनुमा परतों वाली मृत्यु की हकीकत
एक-एक करके उघाड़ती जिन्हें पुलिस और अदालतें
पड़ोसी, परिवारीजन।
क्या किसी मौत के पीछे छिपी सच्चाई जानना
और फिर मान पाना उसे बच्चों का खेल है!
अगर हाँ, तो मौत का रास्ता साफ है।
(तीन)
मैंने लोगों को लड़ते देखा है
मरते देखा है
लड़ते और मरते देखा है
मरते समय भी लड़ते देखा है,
बात मौत की नहीं, उसूलों की है भई!
चूमता है मौत का जब रंग कोई सुरमई।
अगर अल्ज़ाइमर से मरे रीगन
और उनकी नीतियों से
दिनदहाड़े मार डाले जाने वाले सद्दाम
दोनों को मौत ने एक ही तरह लीला है
तब तो फिर हम सबका मर जाना ही अच्छा है।
या तो फिर महसूस करो उस दर्द को
जब हमारे गाँव में रामजस चाचा के मरने पर
पूरा गाँव खड़ा था घेरकर खटिया को
जिस पर लाश धरी थी उनकी
अकेले कमासुत थे अपने पूरे परिवार में,
जिसके किसी भी सदस्य को
मृतक-आश्रित की
कोई नौकरी नहीं मिलनी थी।
वह व्यवस्था से लड़ते थे, यही रोग उनका था।
कौन है जिसने रख दिया है
बहुत ही अलग-अलग तरीकों से हुए इन समापनों को
लपेटकर वक्त की स्याह संदूक में एक साथ,
सहज मृत्यु का स्टीकर चस्पाँ करते हुए।
(चार)
मरना अगर वही होता जो दिखता
नई टॉर्च की भरपूर रोशनी में
तो रोज-रोज मरना पसंद करते ग़ालिब
और न लिखते
कि ‘मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता।’
चार सैनिकों के खेत रहने और
कैप्टन के काम आने की दुःखद खबर
बचपन में सुनी थी हमने
आकाशवाणी के बुलेटिन में,
गोलियाँ रेखा के उस तरफ से आईं थीं।
(पाँच)
हादसे से लेकर यंत्रणा तक पसरी
मौत की इस बर्फीली चादर को
जला डालना चाहता हूँ
और जल जाना चाहता हूँ उनके साथ
जिन्हें आप जबरदस्ती जिंदा साबित करने की
लंबी जिद पर अड़े हुए हैं।
खैर, कफन का मोल-भाव करने वाले
व्यापारियों से यह उम्मीद बेमानी है
कि समझें वे मौत से भी बदतर जिंदगी को
हमारे जंगलों की पीढ़ियाँ जिसे ढोती चली आईं हैं,
रोती चली आईं हैं।
पर हम आपके आत्मतोष के लिए गढ़ी गई
इस प्रचलित भाषा में
‘जंगली’ नहीं हैं हुजूर,
थोड़ा-थोड़ा तो समझते ही हैं
कि दुर्घटना में मारा गया हमारा वह प्रतिबद्ध भाई
असल में दुर्घटना में मरा ही नहीं था,
कि मुठभेड़ तो कभी हुई ही नहीं पिछले साल
जिसमें मारे गए थे कई लोग
जिन्हें आपने इसी प्रचलित भाषा में अपराधी कहा था।
(छह)
जो जिंदा बचे हैं उन्हीं के साथ
मौत की राह पर
एक भाषा खोजने निकला हूँ
जिसमें बताया जा सके
सारे महीन ब्यौरों के साथ
कि भगत सिंह और उनके साथियों की फाँसी
महज मृत्यु नहीं थी।
अपनी गोलमोल बातों से
धुँधला कर दिया है आपने
उस बहुत गहरे अंतर को
जो व्यभिचारियों का बिस्तर बनने के बाद
ढोयी जाने वाली चकमक जिंदगी
और सिद्धांतों के लिए
सब कुछ कुरबान कर देने के बाद
हासिल किए गए जीवन में है।
आपको मालूम है हुजूर,
कि स्पष्टवादियों की मौत का रास्ता साफ है।
(सात)
मृत्यु के हाथ उतने ही लंबे हैं
जितने कानून के
मगर केवल फिल्मों में ही।
मर जाने और मृत्यु के शीतल वरण में फर्क को
समझकर ही जाएँगे
कयामत के एक दिन से मुखातिब होने हम तो
चाहे इसके लिए मरना पड़े तिल-तिल हमें रोज-रोज।
(आठ)
कमीशन लेकर मनाना मौत का मातम
बहाना रेलमपेल घड़ियाली आँसू
कि आज घर के बँटवारे में
हिस्सा उसका ही बड़ा होगा
गहरे जिसके आँसू होंगे
गाढ़ी दिखेगी जिसकी पीर-धार!
(नौ)
लाश पर नारियल का गोला टाँगने वालो,
ठहरो!
वह भूख से मरा है,
मरा नहीं, मारा गया है उसे भई,
और मैं अभागा इस बात का अकेला गवाह हूँ
कि पहले उसके विचारों की हत्या करवाई गई थी
तभी साफ हो सका था मौत का रास्ता।
(दस)
नहीं पूछता कोई आखिरी ख्वाहिश उनकी
और फिर क्या पहली और क्या आखिरी,
कोई ख्वाहिश तो हो उनकी
जिन्हें आपके ढाँचे ने मारा है हुजूर!
बुलडोजर चलाए हैं आपने कानूनों की आड़ में
अर्जुन की तरह
शिखंडी के पीछे छिपकर।
विजेता तो वे थे जिनके कटे हाथ बिखरे पड़े थे
और छटक रही थीं छितराई कटी उँगलियाँ।
(ग्यारह)
चला जाता एक और झुंड ‘भटके नौजवानों’ का
लगाने गले राह भूली अपनी मौत को
नहीं दर्ज होंगी उनकी मौतें कहीं किसी भी अखबार में,
लाल किताब तक में नहीं लिखे जाएँगे उनके संघर्ष
उनका बलिदान और लंबी तपस्या उनकी।
लाल किताबों को दोनों वर्गों से अलग
अब कैपिटल का दास तीसरा एक वर्ग लिखता है।
(बारह)
यह आखिरी पड़ाव है
जहाँ हम सबकी सिर्फ पीठ पर घाव है,
इसी घाव से मरेंगे हम सब,
पर लौटेंगे एक दिन जरूर
अगिनपाखी बन या कि रक्तबीज।
मौत का रास्ता कितना भी साफ क्यों न हो!