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आलोचना

'पानी' जो सिर्फ पानी की कहानी नहीं

संजीव कुमार


सावंत (मदन पुरी) ने जब विजय वर्मा (अमिताभ बच्चन) से अपना काम निकालने के बाद उसे हिस्सा देने की बजाय टरका देने के इरादे से पिस्तौल निकाली, तो विजय ने उसे एक किस्सा सुनाया। किस्सा यह कि एक आदमी के पास सोने का अंडा देनेवाली मुर्गी थी। एक दिन उसने सोचा, क्यों न मुर्गी का पेट काटकर सारे अंडे एक ही दिन में निकाल लिये जाएँ... और उसने पेट काट दिया।

'सोच लीजिए, सावंत साहब! सारे अंडे एक ही दिन में चाहिएं या...।'

बात सावंत की समझ में आ गई। उसने पिस्तौल वापस ड्रॉअर में रख दी और नोटों की एक गड्डी, बतौर लाभांश, विजय की ओर बढ़ा दी।

जिन्होंने 'दीवार' देखी हो, उन्हें यह प्रसंग याद होगा। इपंले (इन पंक्तियों का लेखक) दुस्साहसपूर्वक कहना चाहता है कि इस प्रसंग में किस्से ने जो भूमिका निभाई है, वह कथा मात्र की मौलिक/आदिम ही नहीं, अद्यावधि जारी भूमिका भी है - मनोरंजन के अलावा। सावंत जिस पहलू को देख नहीं पा रहा था, किस्से ने वह पहलू दिखा दिया। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सोने का अंडा देनेवाली मुर्गी, यथार्थ में, होती है या नहीं! सावंत को जो यथार्थ दिखना चाहिए था, वह दिख गया।

अब अगर आप इस बात पर भी गौर करें कि खुद सावंत और विजय एक कथा के किरदार हैं, और यह कथा इपंले के प्रसंग में वही भूमिका निभा रही है जो मुर्गी वाली कथा ने सावंत के प्रसंग में निभाई थी, तो हम जगतप्रपंच को अपनी समझ के भीतर व्यवस्थित करने के तरीकों को लेकर एक अधिक जटिल बहस की दिशा में बढ़ सकते हैं, पर अभी न उसका इरादा है, न तैयारी। इसलिए फिलहाल इतना ही कि कथा की यह आदिम भूमिका - उसकी 'दृष्टिदायिनी' भूमिका - आज भी अक्षुण्ण है, भले ही वह किस्से की सरल संरचना से निकल कर कहानी-उपन्यास की जटिल संरचना में प्रवेश कर गई हो। वे मनोरंजन तो करती ही हैं, अपने सर्वोत्तम रूप में हमें आसन्न संसार को, जिसमें हम खुद भी शामिल हैं, देखने की अलग निगाह भी देती हैं। वे हमारी अंधता(ओं) का उपचार करती हैं। इसे ही सरल संरचनाओं के संदर्भ में शिक्षा या सीख कहा जाता रहा है। सावंत ने सीख हासिल की और उस पर अमल किया। पर ऐसे किसी शब्द का इस्तेमाल जटिल संरचनाओं के संदर्भ में, उचित ही, वर्जित है। सीख में एक प्रत्यक्षता है, अमल का एक सीधा निर्देश, जो कहानी-उपन्यास में नहीं मिलता। किंतु इसमें क्या संदेह कि आज भी कथा द्वारा गढ़े गए समानांतर संसार से अपनी जीती-जागती दुनिया में लौटने पर इस दुनिया के कुछ अनदेखे या उपेक्षित या धुंधले या ढके-तुपे पहलू हमारे लिए अधिक स्पष्ट हो उठते हैं। हम कथा की दुनिया से जब इधर को लौटते हैं तो अपनी दुनिया के लिए हमारे पास एक अलग निगाह होती है। इस निगाह में जितना नयापन, जितनी व्यापकता और जितनी सूक्ष्मदर्शिता हो, कथा उतनी बड़ी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यथार्थवाद के रूपात्मक और प्राविधिक मानदंड क्या कहते हैं, कि सत्यापनीयता की कसौटी पर वह खरी उतरती है या नहीं। जटिल संरचनाओं के भीतर भी सोने का अंडा देनेवाली मुर्गी का वास हो सकता है। कम-से-कम इपंले को इससे कोई आपत्ति नहीं।

जानता हूँ, इस आगाज में एक लंबी बहस का उकसावा है। क्या किस्सों और आज की कहानी में जमीन-आसमान का अंतर नहीं है? क्या यथार्थवादी विधान के, विश्वसनीयता और सत्यापनीयता जैसे मूल्य बिल्कुल व्यर्थ हैं? कथाएँ हमारी अंधताओं का उपचार ही करती हैं या अंधताएँ थोपती भी हैं? 'वर्ड' और 'वर्ल्ड' के बीच एक स्थायी और अपरिहार्य अंतराल/टूट की बात करनेवाली ज्ञानमीमांसा के साथ इस 'निगाह' वाली बात का क्या संबंध बनता है? कहानी-उपन्यास के युगबोध और यथार्थबोध पर फैसला सुनाने के आलोचक के प्राधिकार के बारे में आपका क्या कहना है? और-और कई प्रश्न हैं जिन्हें इपंले अभी किनारे कर रहा है। उसे फिलहाल मनोज कुमार पांडेय की लंबी कहानी 'पानी' पर बात करनी है। शायद उसी बात के क्रम में कुछ प्रश्नों के उत्तर भी निकल आएँ!

लेकिन 'पानी' पर बात करने से पहले यह भूमिका क्यों?

इसलिए कि 2013 में छपी इस अद्भुत कहानी की सभी घटनाएँ प्रथमदृष्टया विश्वसनीय और सत्यापनीय नहीं हैं। कोई चाहे तो आसानी से यह आरोप लगा सकता है कि जिस बुनियादी कारण-कार्य-संबंध पर यह कहानी टिकी है, वह पूरी तरह वैज्ञानिक नहीं है; कि जितना कुछ इस एक कहानी में होता है, उसे किसी मूल कारण से जोड़ कर एक शृंखला की कड़ियों के रूप में देखना संभव नहीं, जैसा कि कहानी का वाचक करता हुआ प्रतीत होता है; या यह कि जिस तरह के उत्पादन-साधनों पर आधारित ग्राम-व्यवस्था का चित्र यहाँ उभरता है, उनका समय-निर्धारण खासा दिक्कततलब है, इसलिए कहानी को एक दस्तावेज के रूप में सराहना मुश्किल है।

मजा ये कि वैज्ञानिकता और दस्तावेजीकरण के लिए सराहे जाने की कोई ललक 'पानी' में नहीं है। बावजूद इसके, वह प्रकृति के साथ मनुष्य के रिश्ते और उस रिश्ते के बिगड़ने की एक ऐसी कथा है जो आपको अपने गहरे असर में बाँध लेती है और जब आप उस कथा-संसार से वापस अपने परिवेश में लौटते हैं, तो उस रिश्ते और उसे बिगाड़ने वाली ताकतों के प्रति अपनी दृष्टि को कुछ और भेदक पाते हैं।

यह एक ऐसे गाँव की कहानी है जहाँ जीवन का पूरा ताना-बाना लंबे अकाल और उसके बाद भीषण बाढ़ की भेंट चढ़ चुका है। कुछ साल पहले तक यहाँ किसी बड़ी हलचल के बगैर एक भरा-पूरा जीवन अपनी गति से चल रहा था। 'पेड़-पौधे, जानवर, तालाब, लड़ाई-झगड़े, प्रेम, ऊँच-नीच, सब कुछ वैसा ही जैसा आपने और जगहों पर देखा-सुना होगा।... फिर अचानक सब कुछ बदल गया।' गाँव के उत्तर में, करीब आठ-दस बीघे में फैला एक तालाब था, जो 'किसी एक का नहीं, समूचे गाँव का था, बल्कि गाँव के बाहर के लोगों का भी था।' यह तालाब गाँव के जीवन के साथ कुछ इस तरह गुँथा हुआ था कि उसके बिना जीवन की कल्पना भी गाँव वालों के लिए नामुमकिन थी। एक समय आया जब गाँव के मातबर मगन ठाकुर ने इस तालाब का पट्टा अपनी माता के नाम करा लिया और उसका सारा पानी इंजनों की मदद से बकुलाही नदी में उतार कर तालाब को पाट दिया गया। यह होना था कि गाँव की जिंदगी पटरी से उतर गई। अगले ही साल सूखा पड़ा और उस सूखे से लड़ने के अपने सारे इंतजामात से वंचित हो चुके गाँव ने अपने को पूरी तरह से अपंग पाया। ''तालाब पाट दिए जाने के बाद गाँव की खेती का भूगोल बदल गया था। चारों तरफ से पानी आने और जाने का रास्ता तालाब की तरफ से होकर जाता था। तालाब रहा नहीं तो सारे पानी का रास्ता खो गया था। शुरुआती बारिश का पानी जो तालाब में आता तो हमें जीवन देता, उसी रास्ते से बकुलाही की तरफ बह गया जिस रास्ते से तालाब का पानी बकुलाही की तरफ गया था। यही उसका देखा-जाना रास्ता था।'' संकट गहराता गया। तब धरती के सीने में छेद करके मगन ठाकुर ने पंप लगवाया और पानी जैसी चीज बेची जाने लगी जिसे अभी तक लोगों ने श्रम के साथ ही जोड़ कर देखा था, पैसे के साथ नहीं। अब सिंचाई के लिए 'श्रम से पहले पैसे की जरूरत थी और पूरे गाँव में एक अकेले मगन को छोड़ कर पैसे का कोई स्थायी स्रोत किसी के पास नहीं था।' अकाल क्रमशः और भयावह होता गया। एक के बाद एक ऐसी चीजें घटित होती गईं जिनके बारे में गाँव के लोगों ने कभी सुना-सोचा भी नहीं था। लोगों, यहाँ तक हर जड़-जंगम के व्यवहार में अजीबो-गरीब बदलाव आते गए। अकाल ने उनकी भूख और प्यास को ही नहीं, जिंदगी के हर पहलू को अपनी जद में ले लिया। महामाई और मुँहनोचवा जैसी रहस्यमय चीजों के साथ तंत्र-मंत्र, जादू-टोना और अनंतर लूट-पाट आम बात होती गई। शोषक को चिह्नित कर उग्रवाद के जरिए बदलाव संभव करने की नाकाम कोशिशें भी हुईं। पूरी कहानी इस प्रक्रिया के चरणों को उभारते हुए भयावह घटनाओं के एक सिलसिले के रूप में बुनी गई है जिसमें धीरे-धीरे आबादी का एक बड़ा हिस्सा मौत के घाट उतरता जाता है और अंत में एक भीषण बाढ़ से घिरे बहत्तर लोग ऊँचाई पर बने मगन ठाकुर के घर की छत पर बचे रह जाते हैं, पानी के उतरने का इंतजार करते और नए सिरे से जीवन शुरू करने की उम्मीद में अटके।

कहानी का वाचक एक 'होमोडाइजेटिक नैरेटर' है, प्रथम पुरुष में कहानी कहता गाँव का एक बाशिंदा, जो बाढ़ में घिरे बहत्तर लोगों में से एक है। नाम, गंगादीन। उमर, अंदाजन बीस साल। पेशा, चरवाही और यदा-कदा बाप की मदद के लिए हरवाही। हम उसी की निगाह से पूरे घटनाक्रम को देखते हैं। कथा-संरचना की तकनीकी जुबान में इसे 'फोकलाइजेशन' कहा जाता है। अगर वाचक सर्वज्ञ होता तो कहानी 'जीरो फोकलाइजेशन' वाली होती। यहाँ ऐसा नहीं है। इस तरह कहानी अपनी संरचना से ही तटस्थ वैज्ञानिक दृष्टि की अनिवार्यता को परे कर देती है। हम कहानी को एक ऐसे व्यक्ति के बयान के रूप में पढ़ते हैं जिसके लिए खुद को अपने पर्यावरण और अपने लोगों से अलग करके देख पाना मुश्किल है। वह 'मैं' शैली में कम, 'हम' शैली में ज्यादा चीजें बयान करता है (कहानी का आखिरी वाक्य भी है : 'हम जो बचे हैं, इसे हमारा सामूहिक बयान माना जाए')। वह बार-बार प्रकृति के साथ हुए सदियों पुराने समझौतों का हवाला देता है। वह तालाब, नदी, पेड़-पौधों और जानवरों की बातें ऐसे करता है जैसे इन सबको एक जीवित व्यवस्था के सचेतन अंगों के रूप में देख रहा हो। वह 'पानी के सारे रास्ते खो' जाने की बात करता है; वह 'आग के स्वभावविरुद्ध आचरण' की बात करता है; वह कुओं के 'पानी देने से इनकार' करने की बात करता है; वह तालाब के पाट दिए जाने के बावजूद अपने लोगों के 'भीतर से ताल की याद और गंध नहीं' जाने की बात करता है; वह सियारों, नीलगायों, लोमड़ियों और खरगोशों के 'सदियों से सिरजे अभ्यास' के नष्ट हो जाने की बात करता है। ऐसा व्यक्ति जब घटनाओं को एक सिलसिले में पिरोता है तो, संभव है, कई जगह कारण-कार्य की वस्तुनिष्ठ वैज्ञानिक शृंखला न भी उभरे, पर पर्यावरण के साथ मानवीय रिश्ते का संतुलन भंग होने की भयावहता बहुत तीव्रता से उभरती है। उसे 'फोकलाइजर' के रूप में चुनने का प्रयोजन यही तीव्रता है।

कहानी में दृश्यात्मक अंश कम हैं, परिदृश्यात्मक अधिक। दृश्यात्मकता वहाँ होती है जहाँ कहानी वाचक से लगभग मुक्त दिखे। ऐसा प्रतीत हो कि सीधे घटना हमारी आँखों के सामने घट रही है, कहानी के मंच पर। परिदृश्यात्मकता में चीजें इतिहास की तरह बयान की जाती हैं। 'पानी' की संरचना प्रधानतः इतिहास शैली की है। इसका कारण है कि वह वर्तमान से शुरू होकर अतीत में जाती है। कहानी का पहला वाक्य है : 'इस छत पर शरण लिए हुए हमें आज पाँचवाँ दिन है।' इस वर्तमान के विवरण देने के बाद कहानी पीछे जाती है और व्यतीत घटनाक्रम का लंबा चक्कर लगा कर वापस यहीं आती है। इस लंबे चक्कर में मुनाफा कमाने की हवस के तहत प्रकृति और समाज के साथ हुए खिलवाड़ से जो सिलसिला शुरू होता है, वह अपने ढंग से चलती एक भरी-पूरी जिंदगी की धुर तबाही पर जाकर खत्म होता है।

तालाब के पाटे जाने के साथ जो घटनाएँ गाँव के उस शांत, स्थिर जीवन में बड़ी से बड़ी हलचलें पैदा करती जाती हैं, उन्हें जितने जीवंत ब्यौरों के साथ कहानी में पेश किया गया है, वह एक अद्भुत कथा-कौशल का नमूना है। कहानी की पूरी ताकत घटनाओं के उस ब्यौरेवार सिलसिले में ही है। आप खुद को इतने बारीक अवलोकनों के सामने पाते हैं कि जीवन के साथ इस कहानीकार के घनिष्ठ संबंध पर सुखद आश्चर्य का अनुभव होता है। अब आलोचना की इस मुश्किल का क्या करें कि वह इन अवलोकनों को धारण करनेवाले ब्यौरों का सार पेश नहीं कर सकती। सार ब्यौरे का विलोम है। ब्यौरों का सार पेश करने की माँग प्रकाश डाल कर अंधकार को दिखाने की माँग के समान है। इसलिए आलोचना उनकी अमूर्त प्रशंसा करके रह जाने के लिए अभिशप्त है। पर इतना तो किया ही जा सकता है कि कहीं-कहीं से कुछ टुकड़े, अदहन में खदकते चावल के दाने की तरह, पेश किये जाएँ। तो यह छोटा-सा टुकड़ा देखिए जो गाँव के तालाब के डेढ़ पृष्ठ लंबे विवरण से उठाया गया है :

''तालाब, भीटा ओर इसके बीच का मैदान किसी एक का नहीं था, समूचे गाँव का था, बल्कि गाँव के बाहर के लोगों का भी था। गर्मियों में लोग आते-जाते वहीं किसी पेड़ की छाया में सुस्ता लेते। वहीं से बरसात में सबसे पहले मेंढकों की आवाज आती। शादी-ब्याह में वहीं तालाब पूजा जाता। औरतें वहीं तक बेटियों को विदा करने आतीं और असीसतीं कि इसी तालाब की तरह जीवन सुख से लबालब भरा रहे। पुरुष किसी रिश्तेदार की साइकिल थामे यहीं तक आते। गाँव का कोई दामाद पहली बार ससुराल आता तो यहीं पर रुक जाता और संदेश भेजता। लोग आते और थोड़ी देर की ठनगन के पास उसे ले जाते। गाँव से मिट्टी उठती तो उसका पहला विराम यहीं होता। जाड़े में बनजारे और बेड़िया आकर यहीं पर रुकते। भीटा पर उन्हें अपने लिए जगह मिल जाती ओर बगल के तालाब में जानवरों के लिए पानी। इस भीटे और तालाब के बीच की जगह में चिकुरी-बनवारी और संपत हरामी की नौटंकियाँ खेली जातीं...।''

सिर्फ स्थितियों के नहीं, घटनाओं और व्यवहारों के ब्यौरे भी बेहद बारीक और जीवंत हैं। एक समर्थ कथा-भाषा में आए इन विवरणों से गुजरते हुए आप उस विकलता का अनुभव करते हैं जो मुनाफे की अंधी हवस से नेस्तनाबूद होती एक प्रायः समरस जीवन व्यवस्था के सदस्य को होनी चाहिए। पाठ से निकलने के बाद यही विकलता आपके अपने पर्यावरण और जीवन के ताने-बाने की उस मुसलसल बर्बादी को अधिक पैनेपन से देखनेवाली निगाह बन जाती है जिसे पूँजीवाद और उसके सबसे भुक्खड़ संस्करण, नवउदारवाद ने पैदा किया है।

लेकिन यहीं कुछ असुविधाजनक सवाल उठ खड़े होते हैं। वह कौन-सी व्यवस्था है जिसकी तबाही कहानीकार को बेचैन कर रही है? क्या उसे उस व्यवस्था के भीतर वर्गीय और जातिगत शोषण-उत्पीड़न के संबंध भी दिखते हैं, या कि वह ऐसे संबंधों की ओर से आँखें मूँद कर समरसता का एक मासूम पाठ तैयार कर रहा है? दूसरे शब्दों में, क्या कहानी स्वयं कुछ चीजों के प्रति अंधता बरत रही है?

इनका उत्तर हाँ भी है और ना भी। उस समाज में वर्गीय और जातिगत शोषण-उत्पीड़न के संबंध हैं, इस बात को लेकर कहानी में कोई चुप्पी नहीं है; हाँ, उनके होते हुए भी जो कुछ उस 'पिछड़ेपन' में सकारात्मक था, उनके नष्ट होने की प्रक्रिया यहाँ कहानी का विषय है, इसलिए उन्हीं की चिंता प्राथमिक। वाचक अपने गाँव के अतीत में कोई स्वर्ग नहीं देख रहा है। वह कहता है कि जो कुछ और जगहों पर होता है, वही यहाँ भी होता रहा है, ''जैसा सबका जीवन होता है, वैसे ही हमारा भी भरा-पूरा जीवन था। ...पेड़-पौधे, जानवर, तालाब, लड़ाई-झगड़े, प्रेम, ऊँच-नीच, सब कुछ वैसा ही जैसा आपने और जगहों पर देखा-सुना होगा। फिर अचानक सब कुछ बदल गया।'' तालाब के पाटे जाने के साथ सब कुछ के बदल जाने का जो सिलसिला शुरू हुआ है, वाचक उनका बयान कर रहा है। इसलिए प्रकृति के साथ बने पुराने रिश्तों का ताना-बाना बिखरने को ही वह अपना विषय बना सकता था, यह बात समझ में आती है। पर यहाँ भी चुनी हुई चुप्पियाँ हैं, जिनके सुराग कहानी के भीतर ही मिल जाते हैं। यह अंश देखें :

''सिर्फ तीन कुओं में पानी बचा था जिनसे पूरे गाँव का काम चल रहा था। एक तो मगन का कुआँ था जिससे ठकुराने को छोड़कर पूरे गाँव को कोई मतलब नहीं था। बाकी दो कुएँ वहाँ थे जहाँ से पानी लेने में ठाकुरों और पंडितों को तो क्या पटेलों तक को दिक्कत हो रही थी। बाकी दोनों नीची कही जानेवाली जातियों के थे।''

नीची कही जानेवाली जातियों की अस्पृश्यता का यह एक हवाला कहानी में आता है, पर इसके बाद पूरी कहानी इस पहलू को लेकर मौन है। वे जातियाँ और उनके साथ शेष गाँव का संबंध पूरी कहानी में अदृश्य है। इस भयानक विभीषिका के बीच वे एक पक्ष की तरह कहीं दिखते ही नहीं। पक्ष की तरह न दिखने का एक तर्क कहानी की शुरुआत में आता है, पर भारतीय समाज और उसमें भी वह ग्राम-समाज जिसे आंबेडकर दलितों के शोषण के कारखाने मानते थे, के चरित्र को देखते हुए वह तर्क बेहद कमजोर ठहरता है :

''यहाँ टीले पर हम कुल बहत्तर लोग हैं। ...हम सब अलग-अलग घरों और जातियों से हैं। पर अभी यहाँ इस बात का कोई मतलब नहीं है।''

क्या सचमुच? विभाजन के समय का एक प्रकरण याद आता है जिसका हवाला तुलसीराम ने अपने एक व्याख्यान में दिया था। उस दौरान जो शरणार्थी पाकिस्तान से इधर आए और कैंपों में बसे, उनमें एक ही इलाके से चले शरणार्थियों में से ऊँची जाति वालों ने दलित शरणार्थियों को चिह्नित करने और वापस खदेड़ने में यहाँ के दबंगों की मदद की। यह बात जब डॉ. आंबेडकर को पता चली तो उन्होंने नेहरू को चिट्टी लिखी और उस पर कार्रवाई करते हुए नेहरू ने दलितों के लिए अलग कैंपों की व्यवस्था करवाई।

विभीषिकाओं के दौरान, जब जीने के संसाधन कम से कमतर होते जाते हैं, समाज के बहुरूपिया शक्ति-संबंध उन संसाधनों की छीन-झपट में और भी सक्रिय, निर्णायक भूमिका निभाने लगते हैं। यह सजगता अगर कहानी में - सिर्फ छत पर बसे बचे हुए लोगों के संदर्भ में नहीं बल्कि पूरी कहानी में - नहीं है तो इसे कहानीकार की दृष्टि का 'ब्लाइंड स्पॉट' ही कहना चाहिए। जिस कहानीकार के पास कथा-स्थितियों को गढ़ने और वर्णित करने का ऐसा विरल कौशल हो, जिसके पास जीवन-व्यापार और व्यवहार के बहुत सूक्ष्म पहलुओं का संज्ञान लेनेवाली संवेदनशील निगाह हो, उससे इस सजगता की उम्मीद तो बनती है!

पर इस उम्मीद पर खरा न उतरने के बावजूद, निस्संदेह, 'पानी' इस सदी के गुजरे चौदह सालों में आई सबसे महत्वपूर्ण कहानियों में से है। मनोज कुमार पांडेय 'शहतूत', 'पुरोहित जिसने मछलियाँ पालीं', 'बूढ़ा जो कभी था ही नहीं' के कहानीकार रहे हैं, पर अब उनकी पहचान 'पानी' के कहानीकार के रूप में होनी चाहिए।

आखिर में एक सवाल : अगर कारण-कार्य की विज्ञानसम्मत शृंखला के प्रति यथेष्ट सजगता के न होने का औचित्य कहानी के विशिष्ट 'फोकलाइजेशन' में ढूँढ़ा जा सकता है तो उत्पीड़क जाति-संबंधों के प्रति सजगता की कमी का औचित्य भी वहीं क्यों न ढूँढ़ा जाए? गंगादीन एक बीस साला चरवाहा है। उसके लिए जो चीजें 'सामान्य' है, वे अगर उसके बयान के रूप में आनेवाली कहानी में भी अतिरिक्त अवधान आमंत्रित नहीं करतीं, तो इसमें आपत्तिजनक क्या है? यह एक रोचक प्रश्न है जो विस्तृत उत्तर और दीगर उदाहरणों की माँग करता है।

चुप्पियों के साथ एक संवाद

'हमें कृति में बेडौलपन या कमियों को दिखाने की संभावनाओं पर हिचकिचाना नहीं चाहिए, जिस हद तक ये शब्द एक नकारात्मक और निंदात्मक अर्थ में प्रयुक्त न हों। उसकी पर्याप्तता, उसके आदर्श सामंजस्य के मुकाबले हमें उस सुस्पष्ट अपर्याप्तता, उस अपूर्णता पर बल देना चाहिए जो वस्तुतः कृति को आकार देती है। ...इस बात पर बल दिया जाना चाहिए कि यह अपूर्णता, जिसका पता अलग-अलग अर्थों के टकराव से चलता है, कृति के संयोजन की असली वजह है। ...जैसा कि लेनिन ने तोलस्तोय के संबंध में दिखाया है और जैसा कि हम आगे जूल्स वर्ने और बाल्ज़ाक के संबंध में देखेंगे, कृति में जिस चीज की व्याख्या अपेक्षित है, वह वो छद्म सरलता नहीं है जो उसके अर्थ की प्रकट एकता से प्राप्त होती है। वह चीज है, विवृति के तत्वों या संयोजन के स्तरों के बीच एक संबंध या एक विरोध की मौजूदगी - वे असंगतियाँ जो अर्थों के टकराव की ओर इशारा करती हैं। यह टकराव किसी किस्म की त्रुटि का चिह्न नहीं है; यह कृति में एक अन्यता के अभिलेख को उजागर करता है जिसके जरिए वह उस चीज के साथ एक संबंध बनाए रखती है जो कि वह खुद नहीं है, जो कि उसके हाशिए पर घटित हो रही होती है।' - पियरे माशेरे (ए थ्योरी ऑफ लिटररी प्रोडक्शन, 1978, राउटलेज एंड केगन पॉल, लंदन, पृ. 78)

पिछली किस्त एक सवाल के साथ खत्म की गई थी : अगर 'पानी' में कारण-कार्य की विज्ञानसम्मत शृंखला के प्रति यथेष्ट सजगता के न होने का औचित्य उसके विशिष्ट 'फोकलाइजेशन' में ढूँढ़ा जा सकता है, तो उत्पीड़क जाति-संबंधों के प्रति सजगता की कमी का औचित्य भी वहीं क्यों न ढूँढ़ा जाए? कहानी का वाचक गंगादीन एक बीस साला चरवाहा है। उसके लिए जो चीजें 'सामान्य' है - यानी जिनके बारे में उसका रवैया ऐसा-ही-होता-है वाला है - वे अगर उसके बयान के रूप में आनेवाली कहानी में भी अतिरिक्त अवधान आमंत्रित नहीं करतीं, तो इसमें आपत्तिजनक क्या है?

एक दूसरा सवाल इस बीच साथियों की टिप्पणियों से निकल कर आया है। वह यह कि हर जगह जाति-आधारित उत्पीड़न की खोज करना कहाँ तक उचित है? अगर कहानी का विषय कुछ और है तो कहानीकार से यह अपेक्षा क्यों की जाए कि इस पक्ष की ओर भी उसका ध्यान जाए ही?

दूसरे सवाल से ही बात शुरू करें, क्योंकि इसे निपटाए बगैर पहले वाले को निपटाने का कोई मतलब नहीं।

निश्चित रूप से, अगर कहानी का विषय कुछ और है तो न कहानीकार से यह अपेक्षा की जानी चाहिए और न ही आलोचक को इसकी इजाजत दी जानी चाहिए कि वे जबरन जाति के प्रश्न को बीच में घसीट लाएँ। उसे घसीटना ही कहा जाएगा। इपंले (इन पंक्तियों के लेखक) ने अनिल यादव की 'दंगा भेजियो मौला!' पढ़ते हुए यह उम्मीद नहीं की कि मुस्लिम समाज का जाति-भेद वहाँ दिखाई दे। वह कहानी जिस चीज के बारे में है, उसके भीतर जाति के प्रश्न को एक पक्ष के रूप में समेटने की कोई गुंजाइश नहीं बनती, इसलिए अपेक्षा भी नहीं जगी।

'पानी' के साथ ऐसा नहीं है। यहाँ जातियाँ अपने संबंधों के साथ मौजूद हैं, पर उनका मामला मध्य जातियों तक आकर समाप्त हो जाता है। दलित जिस तरह वर्ण-समाज से, उसी तरह इस कहानी से भी बाहर हैं, अगरचे वे कहानी की दुनिया से बाहर नहीं हैं। दलित प्रश्न को समेटने की यहाँ न सिर्फ गुंजाइश बनती है, बल्कि वह एक ऐसी 'एंट-थीसिस' की तरह है जो कहानी के पूरे 'टोन' में एक खास तरह की तब्दीली लाने का माद्दा रखती है।

'पानी' मुख्यतः एक भरी-पूरी, लगभग संतुलित और समरस, प्राक्-आधुनिक गँवई जीवन-व्यवस्था के तहस-नहस होने की कहानी है जिसकी शुरुआत निजी संपत्ति और मुनाफाखोरी की हवस के तहत पर्यावरण के साथ किये गए खिलवाड़ से होती है। उस जीवन-व्यवस्था के प्राक्-आधुनिक तथा लगभग संतुलित और समरस होने की बात कहानी में व्यंजित है, हालाँकि ये शब्द इपंले के हैं। गँवई जीवन के उस ताने-बाने के कई अच्छे-बुरे पहलू कहानी में विन्यस्त हैं, लेकिन मनुष्य और पर्यावरण तथा मनुष्य और मनुष्य के रिश्ते के जिस संतुलन पर वह जीवन-व्यवस्था कायम और क्रियात्मक रही है, उसके प्रति कहानी में एक असंदिग्ध आकर्षण भी है। वह आकर्षण कहानी की विचारधारात्मक परियोजना के एक पक्ष के रूप में कहानी में मौजूद है, भले ही एकदम त्वचा पर न होकर ठीक नीचे की परत में हो। उस समाज के दलित अगर कहानी में अनुपस्थित हैं तो इसका कारण है कि उनकी उपस्थिति - जिसका मतलब है उनके साथ होनेवाले अमानवीय बरताव की कड़वी हकीकत का कहानी में शामिल होना - इस आकर्षण के साथ विसंवादी ठहरती। इसलिए कहानी 'नीची कही जानेवाली जातियों' का हवाला देकर भी उनकी अनदेखी कर जाती है। वह इस ओर कोई इशारा नहीं करती कि गाँव के लगभग समरस अतीत में वे किस हाल में थे और जब संकट के दिन आए तो क्या उनके लिए संकट के मानी वही थे जो ठाकुरों, पंडितों और पटेलों के लिए थे? कहानी में जगह-जगह 'पूरे गाँव' की बात की गई है, जिसके आधार पर आप कह सकते हैं कि यहाँ जिन स्थितियों का हवाला दिया जा रहा है, वे सचमुच गाँव के हर बाशिंदे के लिए समान भाव से सुखकर या त्रासद रही हैं, पर किसी जागरूक दलित से पूछ कर देखिए कि क्या ऐसा संभव है? क्या यह सही नहीं कि 'पूरे गाँव' वाले मुहावरे का यह पूरापन सिर्फ वर्ण-समाज का पूरापन है, वर्णेतर समाज जिससे बाहर छिटका हुआ है?

आप कह सकते हैं कि किसी और से क्यों पूछें जब इपंले ने ही पिछली किस्त में कह रखा है कि सत्यापनीयता की किसी बाहरी कसौटी पर कहानी खरी उतरे या न उतरे, फर्क नहीं पड़ता! बेशक, ऐसी किसी कसौटी को कहानी पर लागू करने की जल्दबाजी नहीं दिखाई जानी चाहिए - अक्सर उसमें एक तरह का उथलापन होता है - पर, इपंले की बात को ही याद करें तो, यह तो विचारणीय है कि कहानी दुनिया को देखने की जो निगाह हमें सौंपती है, उसकी अपनी अंधताएँ क्या हैं! और वह भी तब जबकि उन अंधताओं की गवाही खुद कहानी के भीतर मौजूद हो, कहीं बाहर से जुटाई हुई नहीं! दलित बस्ती के एक-दो बड़े मानीखेज संदर्भ देनेवाली कहानी में उनका कहीं कोई ठोस वजूद क्यों नहीं है? ये कौन लोग हैं जिनके 'कुएँ से पानी लेने में ठाकुरों और पंडितों को तो क्या, पटेलों तक को दिक्कत हो रही थी' और मजबूरी में जिसका पानी पीते हुए इनमें से 'ज्यादातर को उल्टी आती'? एक उद्धरण आप पिछली किस्त में देख चुके हैं, दूसरा देखिए :

'इन दिनों पानी जिस कुएँ से आ रहा था, उसका पानी पीते हुए हममें से ज्यादातर को उल्टी आती। आज उसी पानी के लिए हम मिन्नतें कर रहे थे। हमीं नहीं, ठाकुरों और पंडितों का भी यही हाल था। सिर्फ दो कुओं में पानी बचा था। एक वही भुतहा कुआँ जिसमें कभी बच्चा पंडित का भूत रहा करता था, दूसरा गाँव का सबसे दक्खिन का कुआँ। भुतहे कुएँ तक हमारी पहुँच नहीं थी। हम उसी दक्खिन वाले कुएँ से पानी लाते थे।'

फ्रेंच मार्क्सवादी पियरे माशेरे, जिन्हें देरिदा से पहले विखंडन और बार्थ से पहले 'डेथ ऑफ ऑथर' की धारणा की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है, की शब्दावली में कहें तो यहाँ गाँव का दक्खिन टोला रचना के अवचेतन में दमित है और अचानक जुबान की फिसलन की तरह आकर कहानी की सचेत विचारधारात्मक परियोजना में एक फाँक या असंगति पैदा कर देता है। रचना का यह अवचेतन, माशेरे के लिए, रचनाकार का अवचेतन नहीं है, वह इतिहास है, जिस तक रचना की चुप्पियों, अनुपस्थितियों, असंगतियों और फांकों के रास्ते ही पहुँचा जा सकता है।

दलित के अदृश्य होने के सवाल को 'पानी' के प्रसंग में उठाना, इसीलिए, उचित है। यह ऐसा प्रश्न नहीं है जिसके बारे में कहा जाए कि आलोचक को लाल रंग दिखाओ तो वह शिकायत करेगा कि यह हरा, नीला या बैंगनी क्यों नहीं है और हरा रंग दिखाओ तो शिकायत करेगा कि यह लाल, पीला या नारंगी क्यों नहीं है। यह कहानी में एक ऐसे पक्ष की अनुपस्थिति का प्रश्न है जो 'प्राक्-आधुनिक' के प्रति कहानी की त्वचा के ठीक नीचे की परत में व्याप्त आकर्षण को भंग कर सकता था। इसलिए इस पर चर्चा करना अप्रासंगिक नहीं है।

अब अपने मूल प्रश्न पर आएँ। जो चीजें उसी जीवन-व्यवस्था का एक अदना-सा सदस्य होने के नाते कहानी के वाचक के लिए 'सामान्य' और उपेक्षणीय हैं, वे कहानी में भी अनुपस्थित रहें, इसमें दिक्कत कहाँ है? आखिर, प्रथम पुरुष वाचन वाली कहानी में उस 'मैं' के बोध और ज्ञान की सीमा को कहानी की भी सीमा बनना ही चाहिए और पाठक तक चीजें उतनी ही और उसी रूप में पहुँचनी चाहिए जितनी और जिस रूप में वे वाचक-चरित्र की चेतना में हैं! अगर गंगादीन कहानी सुना रहा है तो अपनी समझ से ही सुनाएगा ना!

इसका उत्तर यह है कि हर कहानी 'गढ़ी' ही जाती है और उसके लिए खास तरह के वाचक या खास तरह के 'फोकलाइजर' का चुनाव उसकी ताकत को बढ़ाने के लिए होता है, सीमित करने के लिए नहीं। उसे कभी भी कहानी की सीमाओं की सफाई देने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता, ठीक वैसे ही जैसे खराब अभिनय की सफाई यह कह कर नहीं दी जा सकती कि जिस चरित्र को पेश किया जा रहा है, वह ऐसा ही है। हम जानते हैं कि एक अभिनेता को भावहीनता का भी 'अभिनय' ही करना पड़ता है, अभिनयहीनता से चरित्र की भावहीनता प्रकट नहीं होती।

'पानी' के संदर्भ में इस बात को यों समझिए। उसका वाचक एक बीस साला अनपढ़ जवान है जो अभी तक मुख्यतः चरवाही का काम करता रहा है। क्या हम उसके अनपढ़ होने के कारण इस बात पर सवाल उठाते हैं कि वह इतनी अच्छी भाषा में, इतने व्यवस्थित तरीके से एक कहानी कैसे कह रहा है? हम नागार्जुन के 'बलचनमा' को लेकर भी, जो कि एक खेतिहर मजदूर है, ऐसा सवाल नहीं उठाते, जबकि शुद्ध तार्किक दृष्टि से विचार करें तो चूँकि वह एक भरा-पूरा उपन्यास हमारे सामने पेश कर रहा है, इसलिए मानना चाहिए कि वह एक ऐसा दुर्लभ (जिस मतलब है गैर-प्रातिनिधिक) खेतिहर मजदूर है जिसके पास प्रथम श्रेणी के उपन्यासकार का कौशल है! तो हम ऐसी चीजों पर सवाल क्यों नहीं उठाते जबकि हम एक आधुनिक पाठक हैं और कदम-कदम पर यथार्थपरकता, विश्वसनीयता की माँग करना हमारे पठन-संस्कार का हिस्सा है? वह इसलिए नहीं उठाते कि साहित्य अंततः कल्पनाप्रसूत है और हमें पता है कि उक्त माँग को उस बिंदु तक नहीं ले जाया जा सकता जहाँ खुद साहित्य की जान पर बन आती है। आप सोचिए कि अपरिपक्व तरीके से लिखी गई कहानी की अपरिपक्वता को वाचक की पृष्ठभूमि के हवाले से अगर यथार्थपरक अतएव औचित्यपूर्ण ठहराया जाने लगे तो साहित्य का क्या होगा! हर कोई जिसे कहानी लिखना नहीं आता, ऐसा ही एक वाचक चुन लेगा और लिखना न आने को ही अपने लेखन का महान यथार्थवादी गुण बना देगा! लिहाजा, वाचक कभी भी कहानीकार की नाकामियों की आड़ नहीं बन सकता।

इसका एक और पहलू देखें। यह बात प्रथमदृष्टया सही लगती है कि जब कहानी का एक पात्र ही वाचक हो, तो चीजें पाठक तक उतनी ही और उसी रूप में पहुँचनी चाहिए जितनी और जिस रूप में वे इस वाचक-चरित्र की चेतना में हैं, लेकिन थोड़ा इस पर भी विचार करें कि हमें कैसे पता चलता है कि वाचक-चरित्र की चेतना में चीजें कितनी और किस रूप में हैं? यह तो कहानी से ही पता चलता है! इसका मतलब यह कि जो उत्तर-पुस्तिका है, वही 'मार्किंग स्कीम' भी है। मूल्यांकन का काम यहाँ एक चक्रीय दोष में जाकर फँस जाता है। इस सूत्रीकरण पर चलें तो प्रथम पुरुष वाचक का चुनाव करनेवाले कहानीकार को कभी भी किसी कमी के लिए दोष दिया ही नहीं जा सकता, क्योंकि वह चीजों को उसी रूप में पेश कर रहा है जिस रूप में वे वाचक की चेतना में हैं और वाचक की चेतना में वे किस रूप में हैं, इसका पता इससे चलता है कि कहानी में वे किस रूप में पेश की गई हैं।

इस चक्रीय दोष से छुटकारा पाने के लिए जरूरी है यह मान लेना कि किसी खास तरह के वाचक का चुनाव कहानी की ताकत को बढ़ाने के लिए ही हो सकता है, सीमित करने के लिए नहीं। अगर कहानीकार को यह लगे कि स्वाभाविकता का आग्रह वाचक-चरित्र को कहानी की ताकत बढ़ाने से रोक रहा है, तो उसके पास ऐसी युक्तियाँ हैं जिनसे वह इस सीमा से पार पा सकता है। मसलन, अगर उसे लगता है कि जो वाचक उसने चुना है, वह किसी निश्चित दृष्टिकोण को व्यक्त करने में सक्षम नहीं है, तो उस दृष्टिकोण को किसी और की राय के रूप में कथा में लाने से उसे किसने रोका है? इसी तरह प्रथम पुरुष वाचक को 'गैर-भरोसेमंद' बनाना, उसकी बातों में बहुत प्रकट अंतर्विरोध पैदा करना या अतिवादी रुझान ले आना एक ऐसी युक्ति है जिसका इस्तेमाल कथाकार वहाँ करता है जहाँ वाचक का नजरिया खुद उसके नजरिए से जुदा हो। (कई बार अन्य कारणों से भी गैर-भरोसेमंद वाचक/'अनरिलायबल नैरेटर' लाया जा सकता है। मनोहर श्याम जोशी के 'क्याप' उपन्यास का वाचक ऐसा ही है और उसे ऐसा बनाया है कथाकार के इस आग्रह ने कि सच का हर दावेदार दरअसल एक किस्सागो है और यथार्थ के नाम पर कही जानेवाली हर चीज मूलतः किस्सा है जिसमें दूध का दूध, पानी का पानी करना किसी के बस की बात नहीं।)

इन दलीलों का निष्कर्ष यही है कि 'पानी' में दलित पक्ष की अनुपस्थिति का औचित्य वाचक गंगादीन के जरिए होनेवाले 'फोकलाइजेशन' के आधार पर नहीं दिया जा सकता। तो फिर सवाल है कि उसी आधार पर कारण-कार्य की विज्ञानसम्मत शृंखला के प्रति यथेष्ट सजगता के न होने का औचित्य प्रतिपादित करना कहाँ तक सही है?

वह सही इसलिए है कि कहानी की हर कड़ी के लिए विज्ञान से अनुमोदन हासिल न कर पाना अपने-आप में कोई कमजोरी नहीं। हमने 'फोकलाइजेशन' या खास तरह के वाचक को कहानी की कमजोरियों की आड़ बनाने पर एतराज किया था। यहाँ जिस चीज की बात की जा रही है, वह तो उल्टे कहानी की ताकत है। कैसे?

'पानी' का वाचक गाँव के बचे हुए लोगों के सामूहिक बयान के रूप में पूरी तबाही की दास्तान बयाँ कर रहा है। वह पहले सूखे और फिर बाढ़ से आयी तबाही को जिस मूल कारण से जोड़ कर देखता है, वह है, मगन ठाकुर द्वारा गाँव के तालाब का पाट दिया जाना।

'कौन मानेगा कि महज एक ताल पाट दिए जाने से पूरा-का-पूरा गाँव तबाह हो गया! कुछ भी नहीं बचा। बचे हम बहत्तर लोग।'

कहानी में तालाब पाटे जाने के बाद का पूरा घटनाक्रम इस बात की इजाजत नहीं देता कि मगन ठाकुर के उस कुकृत्य को ही हर नई अनहोनी की जड़ मान लिया जाए। गाँव के पास सूखे से लड़ने के जो अपने इंतजामात थे, उनके छिन्न-भिन्न होने से स्थितियाँ ज्यादा भयावह हो गयीं, यह तो समझ में आता है, लेकिन इस बात की कोई विज्ञानसम्मत व्याख्या संभव नहीं कि सालों-साल पानी न बरसने और फिर हाथी-डुबांव पानी बरसने का कारण भी मगन ठाकुर को ही मान लिया जाए। वाचक भी इनके बीच कोई सीधा संबंध जोड़ता नहीं दिखता, अलबत्ता वह ऐसी कड़ियाँ बनाये रखने की थोड़ी कोशिश जरूर करता है जिससे कि कहानी, चीजें 'क्यों हुईं' से ज्यादा 'कैसे हुईं' की व्याख्या कर सके। जीवन ऐसा ही होता है, कई तरह के कारण-कार्य-सूत्रों का एक जटिल टेक्स्चर, जिसे हम सब अपने-अपने तरीके से समझने और उनके बीच महत्व-क्रम बिठाने की कोशिश करते रहते हैं। इसलिए यह अच्छा है कि कारण-कार्य-संबंध को वैज्ञानिकता की कसौटी पर लागू करने की सख्ती न दिखा कर वाचक के बहाने, जो उसी गँवई समाज का एक अदना-सा सदस्य है, एक छूट ली गई है जो कहानी को अधिक विस्तृत दायरे में फैलने देती है। वाचक और उसके ग्रामीण कई जगह कारणता के संबंध को चिह्नित कर पाते हैं, कई जगह मनमाने तरीके से कोई कारण मान लेते हैं, कई जगह अँधेरे में हाथ-पैर मार कर रह जाते हैं, और इन सबके बीच उनके जीवन का ताना-बाना बिखरने की एक दारुण प्रक्रिया अपने चरम-बिंदु की ओर बढ़ती रहती है। अगर वाचक और उसके ग्रामीण, प्रकृति के साथ मगन ठाकुर द्वारा अंजाम दी गई वादाखिलाफियों को कारण के रूप में चिह्नित करने की कोशिश करते हैं तो साथ ही कहानी में आनेवाले कई सुराग इस व्याख्या की सीमाएँ भी दिखाते चलते हैं। मसलन, एक जगह यह जिक्र आता है : 'अकाल को लेकर तरह-तरह के किस्से आम थे। लोग यहाँ तक दावा करने को तैयार बैठे थे कि फलाँ-फलाँ इलाके में तो लोग अपने बच्चों तक को खा रहे हैं। या उनके अड़ोसी-पड़ोसी ही मौका लगते ही उन्हें खा जा रहे हैं।' इसका मतलब है कि अकाल का क्षेत्र खासा बड़ा है और पाठक समझ सकता है कि एक मगन ठाकुर की क्या औकात कि उसके सिर पर इतने बड़े दायरे में आए संकट का ठीकरा फोड़ा जाए! ऐसे अंशों से कहानी यह जाहिर कर देती है कि घटनाओं का सिलसिला बयान करने के मामले में गंगादीन पर भरोसा किया जा सकता है, पर घटनाओं की व्याख्या के मामले में कहानी उसे एक हद तक 'गैर-भरोसेमंद वाचक' का ही दर्जा देती है। इस तरह कहानी चीजों को समझने के स्तर पर पाठक को एक तरह का खुलापन सौंपती है और पर्यावरणविद्/वादी का शोध-पत्र बनने का कोई रुझान प्रदर्शित नहीं करती। इसके विपरीत वह गहरे संकट से गुजरते समाज के असंख्य रंगों को उनकी पूरी मार्मिकता में पकड़ने का प्रयास करती है जो किसी एक मूल कारण से निकले परिणामों की वैज्ञानिक खोज के चक्कर में संपादित होकर इकहरे हो जाते।

इसीलिए कारण-कार्य की विज्ञानसम्मत शृंखला के प्रति यथेष्ट सजगता का न होना कहानी की कोई कमजोरी नहीं, ताकत है, और वह कहानी के उस 'फोकलाइजेशन' से अपना औचित्य अर्जित करती है जो अबोधता और सुबोधता का एक खास तरह का मिश्रण है।


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