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कविता

मायालोक से बाहर

आरती


क्रमशः चीजों के और सरलतम होते जाने के बाद भी
तुम हमारे लिए ईश्वरों जैसे ही हो
वह पत्थरों की मूर्तियों और तसवीरों में दिखता है
तुम चलचित्रों में अखबारों में
पत्रिकाओं के मुखपृष्ठों में बड़े बड़े शीर्षकों के साथ
बड़ी बड़ी घोषणाएँ करते हुए
तुम्हारी चर्चाएँ स्वाद्य आस्वाद्य
तुम्हारी पोशाक
हारी बीमारी
ईश्वर की अनगिनत गाथाओं सी रोचक
हर घर की बैठक में बहस का विषय तुम
मंदिरों और तुम्हारे द्वार पर एक सी लंबी कतारें हैं
चढ़ावे हैं मन्नतें हैं
आशीर्वाद की ललक भी है
दरस परस को लालायित तुम्हारी जनता जनार्दन
ईश्वर की भाँति तुम सर्वशक्तिमान
वरदान देने में सक्षम हो
विधि विधानों की लगाम तुम्हारे हाथ में है
सब कुछ कर सकते हो
सब कुछ पा सकते हो
निमिष मात्र में कहीं भी आ जा सकते हो
अरबों की आवाज दबा सकते हो
खदेड़ सकते हो
जड़ समेत उखाड़ सकते हो
निर्वासित और पददलित कर सकते हो
आसन्न मौत के फरमान तुम्हारी स्याही से लिखे जाते हैं
दंगे फसाद से लेकर
युद्धों तक के रिमोट तुम्हारे हाथ में हैं
ऋचाओं सूक्तियों स्मृतियों की कथाओं सा
अब हमें तुम पर विश्वास नहीं रहा
तुम्हारी घोषणाएँ अब हमें आश्वस्त नहीं करतीं
तुम्हारे आश्वासन हमारे विश्वास में तब्दील नहीं होते
कैसे कहें तुम्हारे आँसू भी सच नहीं लगते
सब कुछ छद्म लगता है, ईश्वरीय माया सा
कि फैलाई माया और सब मिट गया
लेकिन अब हम
पिचके पेटों
तार तार कपड़ों
बिना सपनों की नींद और ठिठुरती रात के साथ
तुम्हारे मायालोक से बाहर
कठोर जमीन पर पैर टिकाए खड़े हैं
और किसी भी बहस में पड़ने से अधिक
यह सच है कि तुम हममें से एक नहीं हो
कभी थे भी नहीं
और क्यूँ होना चाहोगे
ईश्वर निरंकुश सत्ता का प्रतीक है
और तुम भी सेवक कहाँ रहे
प्रतिनिधि भी नहीं रहे
अंततः शासक ही बन गए
इतिहास की कुछेक पंक्तियों पर उँगलियाँ फेरो
देखो, उस निरंकुश सत्ता को हमने
कब का ठुकरा दिया...


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