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कविता

धरती से भारी

आरती


वह एक कदम धरती से भी भारी था
वही कदम, आगे बढ़ाते हुए
मैंने वादा किया था खुद से
पीछे मुड़कर नहीं देखूँगी
इस एक वाक्य में बैठे शब्दों को
दुरुस्त करती रही
किसी मंत्र सा सोते जागते बुदबुदाती रही
वह देहरी जिसे पार किया
और इरादे वादे पक्के किए
उन दीवारों पर छपे अपने हाथों के छाप
उन लिपियों पर लीपापोती करती
वैसे तो कदम मैं आगे ही आगे बढ़ाती चली
यह आगे बढ़ना कई अर्थों में धरती के सापेक्ष था
जैसे वह आगे बढ़ती है
निरंतर घूमती रहती है
और घूमते हुए धुरी पर लौटती है फिर... फिर...
मेरी नजरें समय को नाप रही थीं
कदम आगे बढ़ रहे थे
मेरा घूर्णन धरती जैसा नियत न था
एक पल भी पर्याप्त था धुरी में वापसी के लिए
मेरा लौटना मुझ तक पहुँचनेवाली सूचनाओं से परे था
मैं लौटती कभी मुट्ठी भर नींद सोकर
तो कभी हवा का एक झोंका उड़ा ले जाता सालों पीछे
मैं लौटती उन्नीसवीं सालगिरह में कभी
तो कभी सीधे फिसलकर किसी सदी के मुहाने में जा खड़ी होती
मैं लौटती उन अदेखी गुफाओं में
जिनकी छाती में आग उगी थी पहली बार
उँगलियों की उन सिहरनों में मेरा लौटना होता
जिनकी पोरों में प्रेम की लहरें उमगती थीं
अक्षरों से अनजान वे
कोई भाषा और लिपि उनके हिस्से में नहीं आई
अपनी ओर खींच खींच लाने वाली वह छुअन
जो भाषा जानती तो यही कहती
लौटना पीछे होना नहीं होता
जैसे दौड़ना आगे निकल जाना


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