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कविता

पहाड़ और पगडंडियाँ

आरती


यह सब अनायास ही हुआ
रास्ते की तलाश में भटकती मैं
पगडंडियों से होती हुई
इस विशालकाय चट्टान पर आ खड़ी हुई
नीचे झाँककर देखा
शहर, जैसे कोई भयानक किस्सा
शहर के लोग, उस किस्से के असली किरदार
पहली बार उनसे डर न लगा
आज इस शहर के वैभव ने मुझे बिल्कुल नहीं डराया
चींटियों से रेंगते लोग और
टूटी पेंसिल के धब्बेदार स्केच जैसे शहर को देखकर
मन में जुगुप्सा जगी
आज तक के जिए मेरे डरों और बदहवासियों को यादकर
खुद पर तरस आया
यहाँ इस काली चट्टान पर खड़े हो
मेरे भय और वे चिंताएँ
जो मेरी नजरों को शक की सुइयाँ बना
जहाँ तहाँ चुभो देती थीं
जो बार बार दरवाजे की कुंडी टोहने हडबड़ाकर उठ बैठती थीं
जो आधी रात तक आँखों से दूर रखती थीं नींद को
वे आशंकाएँ विलीन हो गईं
यह शहर, अब मेरे गाँव के एक मुहल्ले में तब्दील हो चुका है


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