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कविता

बासी रोटियाँ

आरती


रोज सुबह माँ, ढोर डंगरों को टेरते टारते
उसे भी लगभग वैसी ही हाँक लगाती
कि आ जाए वह निश्चिंत सपनों की बस्ती से बाहर
दो चार धौल खाकर ही वह उठता
और आँख मलते हुए सीधे
पंडितजी के ओसारे में जा खड़ा होता
नींद में ही फैल चुकी उसकी हथेलियाँ
और फैल जातीं
थोड़ी देर बाद उन हथेलियों में
कुछ बासी रोटियाँ होतीं
दस ग्यारह साल के इस लड़के की दुनिया से
गायब थीं इच्छाओं की पोटली
जिसमें खेल खिलौने टाफियाँ शरारतें और मस्तियाँ भरी होती हैं
उसके हाथ में पाँच फिट का गाँठवाला एक डंडा होता
जिसके छोर में बँधी होतीं चार बासी रोटियाँ
रोटियों से खाली और प्रश्नों से भरी उसकी हथेलियों ने
हवा में उछाल दिए हैं कई प्रश्न
क्यों नहीं थी उसके पास इच्छाओं की पोटली
क्यों नहीं बचतीं उसके घर में रोटियाँ
और हमारे घरों में कैसे बचीं ढेर सारी ?


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