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कविता

नक्षत्र की तरह

आरती


मेरी आभूषणविहीन कलाई थामकर
ऐसे निहाल हो जाते हो जैसे
कुबेरधन पा लिया हो
मेरे आसपास रहते हुए तुम
मिला देते हो अपना प्रकाश
मुझ अस्त होते दिन में
तुम चले जाते हो जब
मैं नीरवता की स्याह रात में चाँद बनकर
थोड़ी उजियारी बिखेर लेती हूँ
और मेरी कलाई का वह भाग
जो तुम्हारे हाथों में था
अब नवरत्नों से जड़कर दिपदिपाने लगा है
किसी नक्षत्र की तरह


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