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कविता

आग और स्वाद

आरती


कागज के कोरे टुकड़े पर लिखा ‘आग’
आग के दोनों ओर चित्र भी बनाया आग का
लो वह चित्र भी याद आया
बर्फीले पहाड़ वाला
ग्यारह साल आठ माह की उमर में बनाया था
रंगों की समझ ही कहाँ थी तब
सफेद झक्क पहाड़ों की बस्ती में
एक हरा भी बना गई
मेरे पीछे परंपराओं की तरह खड़ी माँ ने
आहें भरकर मेरी हुनरमंद उँगलियाँ चूमीं
और चूल्हे की आग तेज करने चली गई
उस सर्द आह को शाबासी समझकर
ठिठुरता पहाड़ वह
चिपका लिया मैंने छाती से
किसी किताब ने नहीं सिखाया
बड़ा ‘आ’ से आग भी होती है
उड़ते धुएँ से भी दूर रखा गया
कहते हैं लड़कियों को छूकर और भी भड़क जाती है आग
कितना अजीब है फिर भी वे
आग और रोटी का खेल रोज खेलती हैं
आँखों में काजल लगाए हुए आखिर
आग को देखने की हिमत की
थोड़े और दिन गुजरे तो आग जुबान तक आने लगी
एक रात किसी अजनबी के साथ बैठकर
आग में घी डालना सीखा मैंने
रसोई में सजाकर रखा तब
दवा पानी और एक डिबी में आग भी
चुटकियों और स्वाद के बीच का रहस्य यहीं सीखा
कई रंग हैं
कई रूप हैं
कई जगहें हैं आग के भड़कने की
हाथ पैर की ठिठुरन से बेइंतहा जरूरी है पेट के लिए
यहाँ कुछ ज्यादा ही उपद्रव मचाती है
हद तो यहाँ कि
आँसू भी तभी निकलते हैं
जब तक दो चार कौर
पड़े हो पेट की आग में

 


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