ओपी किसी भी सूरत में यह मानने को तैयार नहीं होता कि वह जो कर रहा था वह किसी भी तरह से गलत था। उलटा वह समझाने वाले को ही इस अंतहीन बहस में घसीट लेता कि इस
संसार में क्या सही है और क्या गलत इसे तय कौन करेगा? जिसने यह तय किया है उसका भी तो अपना कोई संदर्भ होगा? फिर सभ्यता के प्रारंभ में बनाई गई सही-गलत की
परिभाषाएँ शाश्वत और सबके लिए कैसे उपयुक्त हो सकती हैं? वह सही-गलत की सापेक्षिक परिभाषा समझाने लगता जिसे सुनकर राहुल हर बार सिर पीट लेता था। कई बार तो वह
वास्तव में दुविधाग्रस्त हो जाता था कि वाकई वह जिन बातों और कार्यों को गलत मानता है वे गलत हैं भी या नहीं! ओपी को लगता था कि उसने अपने जीवन का आधे से ज्यादा
वक्त अनावश्यक ही बरबाद कर दिया है जबकि उसकी उम्र के बहुत से लोग करोड़पति-अरबपति बनकर बैठे हैं। यही कारण था कि वह अब ऐसे रास्ते तलाश रहा था जिन पर चलकर बहुत
ही कम समय में बहुत अधिक रुपये कमा सके।
लेकिन अभी-अभी जो हुआ था उसे महसूस करके राहुल अब तक सिहरन महसूस कर रहा था। सब अचानक हुआ था। पहले से जरा भी भान नहीं था कि आज ओपी क्या गुल खिलाने वाला है।
शाम में जब वह लौटा तो साथ में चार लोग थे। राहुल ओपी के अलावा केवल इसरार को ही पहचानता था। कभी-कभी आ जाता था वह ओपी के साथ। वह क्या करता था यह राहुल को पता
नहीं था। ओपी ने तो यही बताया था कि वह कुछ करना चाहता है, बस। मतलब कि कोई काम नहीं था उसके पास, फिलहाल! लेकिन और जो दो लोग थे वे बिलकुल अनजाने थे।
चेहरे-मोहरे से कठोर और सतर्क लग रहे थे। ओपी ने उसे किसी से मिलवाना भी जरूरी नहीं समझा था। आते ही पूछा था - "तेरे पास अभी कितने रुपये होंगे?" राहुल उसका आशय
समझ नहीं पाया कि इतने लोगों के सामने पैसे के बारे में क्यों पूछ रहा है? धीरे से बोला - "यही चार-पाँच सौ होंगे।"
''मैं तेरी जेब की बात नहीं कर रहा, अकाउंट में कितने होंगे?"
''क्यों?"
''लूटना है... तेरे फायदे के लिए पूछ रहा हूँ।"
''मुझे नहीं चाहिए कोई फायदा, मुझे रहने दो।"
''मैं सच कह रहा हूँ, जितने रुपये देगा उसका दोगुना हो जाएगा। अभी इसी वक्त।"
''तो अपने रुपयों का कर ले न, मुझे क्यों घसीट रहा है इसमें?"
''यही तो बात है प्यारे। किस्मत तेरे सामने खड़ी है और तुम हो कि आँख खोलना नहीं चाहते!"
राहुल अब तक दरवाजे पर ही खड़ा था जबकि ओपी के अलावा बाकी लोग उसके कमरे में आसन जमा चुके थे। इसरार एक बैग से बीयर की बोतलें निकाल रहा था। राहुल को कुछ समझ
नहीं आ रहा था कि वह कहाँ बैठे! वह कमरे के भीतर आकर एक ओर को खड़ा हो गया। ओपी कमरे में आकर दीवार से टिककर फर्श पर ही बैठ गया था। इसरार अभी तक बोतलें ही
निकालने में व्यस्त था, राहुल से पूछा - 'बीयर तो लोगे'?
'हाँ', राहुल ने सामान्य होते हुए कहा और ओपी की बगल में आकर फर्श पर ही बैठ गया।
कुछ ही देर बाद ऐसा लगा मानो पूरा दृश्य ही बदल गया हो। चारों तरफ बीयर की बोतलें बिखरी पड़ी थीं, कमरा धुएँ से इतना भर गया था कि लगभग धुँध में तब्दील हो गया था
और इस धुँध में सभी आपस में इतने घुल-मिल गए थे कि एक-दूसरे के लिए जीने-मरने की कसमें खा रहे थे। राहुल ओपी से कह रहा था कि उसका जो भी है सब उसका है। उसके
अकाउंट में जितने रुपये हैं वह सब ओपी ले सकता है।
ओपी के साथ जो दो लोग थे उनमें से एक का नाम लिंडा था और दूसरे का नाम लक्ष्मीकांत। ये दोनों नकली नोट छापने का काम करते थे। शर्त यह थी कि जितने नोट छापे
जाएँगे उनमें से आधा उनका होगा और आधा ओपी एंड कंपनी का। इसी के साथ-साथ एक शर्त मशीन की भी थी कि उसमें एक बार में पचास हजार रुपये असली नोट के डालने पड़ते थे।
अगर कम नोट डाला गया तो मशीन काम नहीं करता था। यही कारण था कि ओपी को राहुल या इसरार से रुपये माँगने पड़ रहे थे। राहुल शुरुआत में तो इस तरह के जोखिम से बचना
चाहता था किंतु अब आँख के सामने पैसे को दुगुना होते देखने का रोमाँच उसके भी सर चढ़कर बोल रहा था। उसने अपने बैंक अकाउंट को पूरा निल करके लगभग तेरह हजार रुपये
ओपी को दे दिए। कुछ रुपये ओपी और इसरार ने भी लगाए थे, लेकिन तीनों के मिलाकर भी पचास हजार पूरे नहीं पड़ रहे थे। जबकि लिंडा ने साफ-साफ समझा दिया था कि मशीन में
एक बार में पचास हजार से कम रुपये नहीं डाले जा सकते हैं। तो अब क्या किया जाए? ओपी का दिमाग यह सोचने में लगा हुआ था कि और रुपये किससे लिए जा सकते हैं? ओपी और
इसरार जल्दी वापसी की गारंटी के साथ बाहर निकले और लगभग दो घंटे बाद वापस लौट आए। पचास हजार पूरे हो गए थे। अब जादू दिखाने की बारी लिंडा और लक्ष्मीकांत की थी।
सारे रुपये मशीन में डाल दिए गए और मशीन को स्टार्ट कर दिया गया। तीन-चार रंगों की छह-सात छोटी-छोटी और तीखी लाइटें जलने-बुझने लगीं। साथ में टीं-टीं की आवाज भी
हो रही थी। पल भर में ही एक तरफ से मुँह खुला और नए नोट निकलने लगे। सचमुच करिश्मा ही था। बहुत ध्यान से परखने पर भी नोट असली ही लग रहे थे। अब तो राहुल को भी
लगने लगा था कि इस रास्ते से वे सब लोग बहुत जल्द ही अरबपति बन जाएँगे। भला किसकी मजाल थी जो उन रुपयों को नकली बताता। सभी दम साधे यह कारनामा आँखें फाड़कर देख
रहे थे। लेकिन यह खुशी क्षणभर में ही घबराहट में बदल गई। काफी तेज धमाके के साथ पूरे फ्लैट की बत्ती गुल हो गई। अगले ही पल सबका मशीन पर ध्यान गया, मशीन से धुआँ
निकल रहा था। ओपी बदहवास-सा मशीन को खोलने के लिए लपका ताकि उसमें भरे पचास हजार रुपये सुरक्षित निकाले जा सकें। अभी उसने मशीन को हाथ ही लगाया था कि लिंडा की
तेज आवाज गूँजी - ''क्या कर रहे हो?"
''मशीन खोलना है, रुपये जल जाएँगे सब..." ओपी घबराया हुआ था।
''दिमाग खराब है क्या? मशीन इस तरह नहीं खुल सकता। सब गड़बड़ हो जाएगा।"
''फिर?"
''फिर क्या, इसे मैकेनिक से खुलवाना पड़ेगा।"
''मैकेनिक? इस मशीन को मैकेनिक के पास कैसे ले जा सकते हैं?" ओपी समझ नहीं पा रहा था।
''और इसका मैकेनिक कहाँ मिलेगा? मैकेनिक के चक्कर में सब पुलिस के हत्थे चढ़ जाएँगे।" राहुल भी नर्वस था।
''इसे लेकर चेन्नई जाना पड़ेगा। और कोई चारा नहीं है।" यह लक्ष्मीकांत था जो मशीन को समेटकर बैग में भरने में व्यस्त था। दोनों के तेवर से यही लग रहा था कि इनकी
बातें मानने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। उन दोनों ने मशीन को हाथ भी नहीं लगाने दिया जिसमें ओपी एंड कंपनी पूरे पचास हजार रुपये बंद थे। पूरी रात करवट
बदलते बीत गई। सारा नशा हिरन हो गया था और अब सर फटा जा रहा था। चेन्नई जाना भी किसी मुसीबत से कम नहीं था। दिल्ली से चेन्नई तक के सबके किराए और रहने-खाने की
व्यवस्था भी ओपी को ही करनी थी। अन्यथा वे अपनी मशीन उठाकर चल देते तो उसमें बंद पचास हजार रुपये भी पानी में चले जाते। राहुल अपने पैसे गँवाकर बहुत चिंतित था।
वह खुद को कोस रहा था कि क्यों इन सबके झाँसे में आ गया! हालाँकि चिंता में तो ओपी भी कुछ कम नहीं था किंतु अभी लिंडा और लक्ष्मीकांत पर उसका भरोसा बरकरार था।
यही वे देवदूत थे जो उसे करोड़पति बना सकते थे। ओपी अगले दिन भी पैसे जुटाने में लगा रहा ताकि चेन्नई जाकर मशीन को ठीक करवाया जा सके। ओपी की सामाजिक प्रतिष्ठा
या दबदबा ऐसा था कि वह दिनभर में ही इतने पैसे ले आने में कामयाब हो गया जितने से चेन्नई आना-जाना और वहाँ होटल में ठहरना संभव हो सके। राहुल इस हादसे से इतना
घबरा गया था कि अब कोई भी बात सुनने को तैयार नहीं था। अंततः उसे छोड़कर ओपी और इसरार उसी रात चेन्नई के लिए रवाना हो गए। लिंडा और लक्ष्मीकांत को तो मशीन के साथ
जाना ही था।
पिछली रात की घटना से एक घबराहट-सी राहुल के दिल में समा गई थी। पैसे डूबने की चिंता से ज्यादा उस काम को लेकर अपराधबोध जैसा था, और एक अनजाना-सा डर भी। पता
नहीं क्या होने वाला है! रात भर करवटें बदलता रहा था। जरा भी नींद नहीं आई थी पूरी रात। आँखें जल रही थीं। बंद आँखों में सुबह की रोशनी काँटे की भाँति चुभ रही
थी।
उसने जरा-सी आँख खोली... वायलिन वादक खिड़की पर आ चुका था। उसके हाथ एक लय में हिल रहे थे। बल्कि लहरा रहे थे, थिरक रहे थे। अजीब-सी वितृष्णा से राहुल ने आँखें
बंद कर लीं। मिजाज तो पहले से खराब था, ऊपर से यह हाल पूछने को टहल रहा है। साला, खुद तो पता नहीं कितना महान है कि दूसरों पर हँसने का कोई मौका हाथ से निकलने
नहीं देना चाहता है। लेकिन लेटा भी कब तक रहा जा सकता था जबकि पूरी रात नींद भी न आई हो! दूसरी समस्या यह कि बाथरूम कमरे के बाहर था जिसका रास्ता बाहर बालकनी से
था। फिर भी कुछ और देर तक मन मारकर पड़ा रहा। वह वायलिन वादक का मुँह नहीं देखना चाह रहा था।
अंत में वह उठा और जमाने भर की चिढ़ और उपेक्षा अपने चेहरे पर लपेटकर बाहर निकला। वायलिन वादक मूड बिगड़ा हुआ भाँपकर कुछ बात करने से बाज आ गया, जूते का ब्रश सिर
से लगाकर सलाम ठोंका और अपने कमरे की दिशा में तेजी से सरक गया। राहुल ने मुक्ति की साँस ली और खुद को कोसा भी कि बेकार में इस तिलचट्टे की वजह से इतनी देर तक
तन और मन को मारकर पड़ा रहा।
वायलिन वादक पेशे से खुद को वकील कहता है। शायद हो भी, क्योंकि एक काला कोट वह हर वक्त या तो पहने रहता है या अपने अँकवार में लिए रहता है जो उसके वकील होने का
उसकी समझ से बहुत बड़ा और जरूरत से ज्यादा पुख्ता प्रमाण है। अब रही बात वायलिन की तो वायलिन से उसका कोई नाता नहीं है। शायद उसने वायलिन को कभी करीब से देखा भी
न हो! यह भी बहुत ज्यादा संभव लगता है कि उसके परिवार में भी किसी ने वायलिन न देखा हो। वायलिन तो क्या, किसी तरह के संगीत में उसकी कोई रुचि नहीं थी। उसकी रुचि
अपने जूते में थी। हालाँकि दूसरों के जूते में भी उसकी रुचि कुछ कम नहीं थी। सबके जूते के बारे में बात करना, उसकी कीमत जानना और अपने जूते की कीमत और खासियत
बताना उसे बहुत रास आता था। उसका जूता शायद उसकी हैसियत से ज्यादा कीमती था और इसका अहसास उसे भी कुछ कम नहीं था। यही कारण था कि अपने जूते की देख-रेख वह खुद से
ज्यादा करता था। वैसे अपने जूते के साथ उसका जो व्यवहार था उसके लिए देख-रेख शब्द अपमानजनक लगता है। वह अपने जूते से बेहद लगाव रखता था। मौका मिलते ही वह अपने
जूते की पालिश करने बैठ जाता। राहुल को तो हमेशा यही लगता है कि वह जूते की पालिश के लिए हमेशा मौके की ताक में रहता था, वरना इतना वक्त भी उस काम के लिए कोई
कैसे निकाल सकता था! पालिश करके चमका देने के बाद वह जूते को धूप में रख देता था, बल्कि लिटा देता था और उसे नेह से निहारता रहता था। वह इतने प्यार और नजाकत से
जूते पर ब्रश फिराता था कि लगता था वायलिन बजा रहा हो। उसकी इसी अदा ने उसका नाम वायलिन वादक रखने को मजबूर कर दिया था और राहुल किसी को कोई भी नाम देने का मौका
नहीं चूक सकता था।
वकील अपने एक छोटे भाई के साथ रहता था। उसका भाई उसके साथ रहकर छोटी-मोटी नौकरी की तैयारी करता था तथा उसके रहने का खर्च भी वकील ही उठाता था। इसके एवज में वह
जब चाहे भाई को डाँट-फटकार देता था, उसे निकम्मा और बेवकूफ कह लेता था। पीठ पीछे उसका भाई भी कुछ इसी तरीके से अपने भाई से अपने अपमान की वसूली करता था। दोनों
की पुरजोर कोशिश रहती थी कि एक-दूसरे से कम-से-कम सामना हो। खासकर छोटे की। लेकिन दोनों अकेले में राहुल के सामने अपनी शेखी बघारने से बाज नहीं आते। राहुल तो
कभी-कभी चिढ़ जाता था लेकिन ओपी दिल खोलकर उन दोनों से बातें करता, खूब उकसाता और मजा लेता। हालाँकि सच तो यह था कि सभी एक-दूसरे से मजा लेते थे और पीठ पीछे
एक-दूसरे की बुराई करते थे। अजीब हताशा और असफलता से भरे दिन थे और उन दिनों में वे अपने व्यवहार का विश्लेषण करने में असमर्थ थे। जो समझ आता वे कर देते। जिस पर
मन बिगड़ता उस पर टूट पड़ते और कल होकर अगर मन ठीक हो जाता तो गले मिलकर रो भी लेते थे।
अगले दिन शाम में चेन्नई पहुँचकर सभी एक बहुत सामान्य-से होटल में ठहर गए थे। इस होटल का नाम लक्ष्मीकांत ने सुझाया था। ओपी होटल की आबोहवा देखकर बहुत असंतुष्ट
था, बात-बात पर वहाँ के कर्मचारियों पर चिल्ला रहा था, किंतु पैसे कम लग रहे थे इसीलिए वहाँ टिकने को मजबूर भी हो गया था। इसरार भी बहुत चौकन्ना था, उसे यहाँ
बहुत असहज महसूस हो रहा था। पता नहीं क्यों उसे यहाँ ऐसा लग रहा था जो घंटे भर में ही ओपी को चार-पाँच बार कह चुका था कि इस होटल से निकल चलो, यहाँ कुछ गड़बड़ लग
रहा है। लेकिन उनके हाथ में था ही क्या। चेन्नई उनके लिए बिलकुल नई जगह थी। वहाँ की भाषा तक इनके लिए अबूझ थी। ऐसे में अपने अजनबी मित्रों पर भरोसा करने के
अलावा इनके पास चारा भी क्या था! एक कमरे में ओपी और इसरार तथा दूसरे में लिंडा और लक्ष्मीकांत ठहरे थे। एक-डेढ़ घंटे बाद जब सभी फ्रेश होकर घुमने या चाय पीने
निकले तो लक्ष्मीकांत ने बताया कि मैकेनिक से बात हो गई है। वह कल शाम में मिलेगा। तब तक हम सबको बहुत सावधानी से रहना होगा। किसी को जरा भी शक नहीं होना चाहिए।
''शक हो भी कैसे सकता है?" ओपी को उनकी बात समझ में नहीं आ रही थी इसलिए थोड़ा खीझ रहा था - ''हमलोग क्या कोई हथियार लेकर आए हैं? उस मशीन को कोई देख भी ले तो
क्या हो जाएगा। उसमें यह कहाँ लिखा हुआ है कि यह नोट छापने की मशीन है?"
लिंडा बोला, ''मशीन में तो नहीं लिखा हुआ है लेकिन हमारे चेहरे पर लिखा हुआ है कि हम कुछ गलत काम कर रहे हैं।"
''अच्छा? मुझे तो तुम्हारे चेहरे पर ऐसा नहीं दिख रहा है! तुम तो बहुत मस्त और खुश दिख रहे हो।" ओपी ने अपनी टेक पकड़ रखी थी। इसरार आपसी विवादों और अविश्वासों
को हवा नहीं देना चाहता था। उसे ओपी पर खीझ हो रही थी कि क्यों बात बढ़ा रहा है - ''क्या मतलब है ऐसी बातों का यार? कुछ फायदा हो सकता है क्या इस बकवास से? हम
सहज दिखने का प्रयास करें, बस इतनी-सी तो बात है। इस सुझाव को मान लेने में क्या तकलीफ है तुम्हें?"
ओपी चुप रह गया। पल भर में ही बात आई-गई हो गई। सभी चाय पीते हुए बीयर का प्रोग्राम बनाने लगे। आज लिंडा ने दरियादिली दिखाई और अपनी ओर से सबको जी भर के बीयर
पिलाने का एलान किया। इस एलान के साथ ही माहौल बदल गया। चंद घंटे बाद ही सब नशे में एक-दूसरे के लिए मर मिटने की कसमें खा रहे थे। खाना कमरे में ही मँगवा लिया
गया था क्योंकि बाहर जाने लायक किसी की हालत नहीं थी। खाने के बाद ओपी और इसरार अपने कमरे में सोने आ गए थे। अभी मुश्किल से पंद्रह मिनट गुजरे होंगे। ओपी इसरार
के साथ कुछ बात करने के मूड में था इसलिए उसके बाथरूम से निकलने का इंतजार कर रहा था कि होटल की लाइट चली गई। वह भर-भर मुँह गालियाँ बरसाता हुआ मोबाइल जलाकर
रोशनी का कोई जरिया तलाश रहा था कि दरवाजे पर तेज दस्तक हुई। एक तो नशा, उस पर अँधेरा और घबराहट और अब यह मुसीबत। लग रहा था कोई दरवाजा ही तोड़ डालना चाहता है।
तभी दरवाजे के बाहर से ही लक्ष्मीकांत की बदहवास आवाज आई - ''पुलिस ने रेड कर दिया है। जैसे हो वैसे ही निकल भागो। जल्दी करो..." और फिर उसके भागते कदमों की
आवाज। ओपी ने आव देखा न ताव, दौड़कर बाथरूम के दरवाजे पर एक करारी लात जमाई - ''मर चूतिए बाथरूम में ही। मैं भाग रहा हूँ। पुलिस आ रही है तेरी धुलाने।"
बाथरूम के अंदर से भागते हुए लगा कि इसरार अँधेरे में फिसलकर गिर गया था। उसके चीखने की आवाज आई- ''अरे बाप रे! मर गया रे..." भागते हुए ओपी के कदम थम गए। लेकिन
बाथरूम का दरवाजा एक झटके से खुला और दोनों कमरे में ताला मारकर बाहर भाग लिए। यह अच्छा था कि इस बीच ओपी ने ताला ढूँढ़ लिया था। सीढ़ियों से उतरकर दोनों ऐसे
इत्मीनान से चलने लगे थे मानो यूँ ही सिगरेट पीने के लिए निकल आए हों। फिर होटल से बाहर निकलकर एक ओर को दौड़ने लगे। नई जगह थी और वे अभी तक आस-पास के परिवेश से
भी परिचित नहीं थे। नशा तो पलक झपकते पानी हो गया था। चंद कदम दौड़ने के बाद ही दोनों हाँफने लगे और एक पान-सिगरेट की दुकान पर ठहर गए। उन्हें समझ नहीं आ रहा था
कि वे किस ओर भाग रहे हैं और क्यों भाग रहे हैं। कोई पीछे तो आ नहीं रहा था जिससे बचकर उन्हें भागना था। लोग उन दोनों को हैरानी से देख रहे थे। झेंपते हुए ओपी
ने एक पैकेट सिगरेट खरीदी और सिगरेट का धुआँ उड़ाते हुए दोनों आगे की तरफ टहलते हुए निकल गए। थोड़ी दूर चलकर वे लोग एक बंद दुकान के आगे बैठ गए। उन्हें कुछ समझ
में नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है। इसरार ने लिंडा के मोबाइल पर काल करना चाहा लेकिन उसका मोबाइल आफ आ रहा था। ओपी के पास लक्ष्मीकांत का भी नंबर था लेकिन
उसका मोबाइल भी आफ आ रहा था। अचानक ओपी को होश आया। वह तेजी से इसरार की ओर चीखते हुए पलटा - ''चल बे, जल्दी से होटल चल। हरामी साले भाग गए हमारे पचास हजार
रुपये लेकर।"
''क्या?"
''हाँ।"
''अगर वहाँ पुलिस हुई तो?"
''पुलिस उसके बाप की नहीं है जो वहाँ होगी। हमें बेवकूफ बना दिया है उन चूतियों न।"
इसरार को भी ओपी की बात सही लगी। वे जब होटल से निकले थे तो उनके अलावा और कोई नहीं था। इतना ही नहीं, रिसेप्शन पर बैठे दो लड़के भी लाइट चले जाने की जाँच-पड़ताल
कर रहे थे। अगर पुलिस की रेड होती तो वे लोग इतने सामान्य रहते? और इनके निकलने पर कोई रोकने वाला न होता? अब तक होटल में लाइट आ गई थी। दोनों हाँफते हुए होटल
पहुँचे और सीधे लिंडा के कमरे में पहुँचे। वहाँ बीयर की खाली बोतलों और जूठे बर्तनों के सिवा और कुछ भी न था। अब जो कुछ सामने था वह इतना साफ था कि उसकी अलग से
किसी व्याख्या की जरूरत नहीं थी और उसे स्वीकार करना बहुत कठिन था। उनके सामने से मशीन सहित पचास हजार रुपये उड़ाकर भाग गए थे वे दोनों और ये उजबक की तरह कहीं और
भाग रहे थे। पूछ-ताछ करने का कोई मतलब नहीं था फिर भी ये लोग रिसेप्शन काउंटर की ओर लपके। वहाँ एक लड़का काउंटर पर ही बिस्तर लगाकर सोने की तैयारी कर रहा था।
इन्हें देखकर मुस्तैदी से खड़ा हो गया - ''कुछ माँगता क्या सर?"
''रूम नंबर सैंतीस में जो दो लोग ठहरे थे वे कहाँ गए?"
''पता नहीं हमको। बोलकर गया कि पेमेंट आप करेगा।"
ओपी उनके आगे ही माँ-बहन की अनमोल गालियों का अपना खजाना लुटाने लगा। इसरार उसकी ऐसी दरियादिली देखकर उसे धकियाता हुआ कमरे में ले आया। अब तमाशा बनाने से क्या
फायदा! जो होना था वह तो हो चुका, इसके आगे अब और कोई समस्या न हो इसका ध्यान रखना था। बात ऐसी थी कि पुलिस में भी रिपोर्ट नहीं कर सकते थे। रात भर दोनों में से
किसी को पलभर को भी नींद नहीं आई। उन्हें यकीन नहीं आ रहा था कि कोई ऐसा भी कर सकता है, और वह भी उनके साथ। क्योंकि वे दोनों अपने को बहुत बड़े दबंग के रूप में
देखते थे। करोड़पति बनने के ख्वाब उन्हें मुँह चिढ़ा रहे थे। फिलहाल तो सबसे बड़ी चुनौती थी पचास हजार तथा अन्य खर्च के लगभग दस हजार और जोड़ दें तो साठ हजार रुपये
चुकाने की जिसके बारे में सोचकर दिमाग से धुआँ निकल रहा था। अब आगे की योजना यही थी कि सुबह जगते ही होटल छोड़ दें। अगर ये लोग उनका ठिकाना नहीं जानते थे तो उनकी
नजर में भी बने रहना सुरक्षित नहीं हो सकता था। हालाँकि उन्हें तो जो चाहिए था वह मिल ही गया था, अब क्या इनकी खाल उतारने आते? फिर भी अपने दबंग दिमाग से दोनों
ने यही निर्णय लिया था कि सुबह जगकर स्टेशन की ओर कूच कर जाए और जो भी ट्रेन दिल्ली की दिशा में जाती दिखे उसमें खुद को ठूँस दें। अब इतनी जल्दी रिजर्वेशन तो
मुमकिन नहीं था न!
राहुल का मन लाइब्रेरी में भी बड़ा उचाट लग रहा था। वह तो यह सोचकर लाइब्रेरी आ गया था कि थोड़ा मन बहल जाएगा, अन्यथा पी-एच.डी. पूरी होने के बाद यहाँ आना उसे बड़ा
त्रासद लगता था। हर मिलने वाले को बार-बार बताना पड़ता कि अभी कहीं नौकरी नहीं मिली है, प्रूफ रीडिंग से पेट चलाना पड़ रहा है और आवेदन पत्र भरकर भेजने में उसका
मूल्यहीन समय व्यतीत हो रहा है। यह सब बताना उसके लिए अवसाद को आमंत्रित करना होता था। वापस कमरे में आकर वह काफी देर तक अपनी स्थिति पर विचार करता और निराशा के
दलदल में धँसता चला जाता। जब तक पी-एच.डी. कर रहा था तब तक छात्रावास में रहने को एक कमरा मिला हुआ था, और मेस का सस्ता-सुविधाजनक खाना भी। यह विश्वविद्यालय इस
देश का काफी जाना-माना विश्वविद्यालय था इसलिए उम्मीद करके बैठा था कि जल्द ही कहीं सहायक प्रोफेसर की नौकरी मिल जाएगी। थीसिस जमा करने के बाद उसने
विश्वविद्यालय के बाहर एक कमरे का फ्लैट ले लिया था। दिल्ली में सबसे बड़ी विपत्ति घर का किराया ही है। वह जितना कमाता उसमें आधे से ज्यादा पैसे तो किराए में ही
चले जाते। उसके बाद कभी इससे मदद माँगना तो कभी उससे। कर्ज के बोझ से भी वह दिनों-दिन टूटता चला जा रहा था। इतना पढ़-लिखकर भी ऐसी निरीह जिंदगी उसमें जीवन के
प्रति एक तीव्र वितृष्णा और नकारात्मकता भरती चली जा रही थी।
अंततः उसे कमरे का किराया कम करने के लिए एक रूम पार्टनर रखने को मजबूर होना पड़ा था। ओपी को भी इन्हीं वजहों से एक रूम पार्टनर की तलाश थी। सब्जी के ठेले पर
दोनों की मुलाकात हुई थी और चंद मिनटों की बातचीत के बाद ओपी अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर राहुल के कमरे में आ जाने को तैयार हो गया था। ओपी ने बताया कि उसने कहीं
से इंजीनियरिंग की डिग्री ली है और दिल्ली में कुछ करना चाहता है। उसके पास वास्तव में ऐसी डिग्री थी और वह क्या करना चाहता था यह राहुल को आज तक समझ में नहीं
आया था, जबकि दोनों लगभग दो साल से साथ रह रहे थे। जीवन की असफलताओं ने राहुल को बहुत निराशावादी बना दिया था जबकि इन्हीं असफलताओं ने ओपी को परम आशावादी बनाया
था। हालाँकि राहुल की निराशा सकारात्मक दिशा की ओर जाती थी जबकि ओपी की आशा नकारात्मक दिशा की ओर।
राहुल चाय पीने के इरादे से लाइब्रेरी कैंटीन की ओर जा रहा था तो उसे कैंटीन के ठीक दरवाजे पर ही वायलिन वादक का भाई चाय लेकर आता दिख गया। उसके साथ एक और लड़का
था। बार-बार मना करने के बावजूद वह उसे अपनी चाय थमाकर दुबारा चाय लेने लौट पड़ा था। राहुल इस वक्त अकेले रहना चाहता था और उसकी चाहत पर वायलिन वादक के भाई ने
फिलहाल पानी फेर दिया था। मजबूरन वह भी उन दोनों के साथ ही कुर्सी खींचकर बैठ गया।
बात भवेश (वायलिन वादक का भाई) ने शुरु की - ''इधर कैसे आना हुआ सर?"
उसकी पहली ही बात से राहुल का जी जल गया। उसने तो यहाँ से पढ़ाई की है और इस नाते यहाँ से उसका सीधा जुड़ाव है, लेकिन वह खुद यहाँ क्या कर रहा था? वैसे वह दोनों
भाइयों के इस कैंपस में आने की वजह भली-भाँति जानता था। दोनों की एकमात्र दिलचस्पी यहाँ की स्वच्छंद घुमती लड़कियों को घूरने में थी। और कोई व्यस्तता भी तो नहीं
थी। छोटा भाई किसी न किसी बहाने से दिनभर यहाँ मंडराता रहता था और वायलिन वादक स्वयं शाम को कोर्ट से लौटकर आनन-फानन में कैंपस के ढाबे पर आ विराजता था। दोनों
भाइयों की नाल यहीं गड़ी हुई थी।
राहुल ने मन में आई कड़वाहट को चाय के साथ घोंटते हुए पूछा - ''मेरी तो जाने दो, तुम यहाँ क्या कर रहे हो?"
''हम? हम तो लाइब्रेरी आए थे सर।"
''अच्छा, कहाँ बैठे हो?"
अंदर बैठे हैं, सेंट्रल में..."
''तुम वहाँ कैसे बैठ गए? वहाँ जाने के लिए तो पहचान पत्र दिखाना पड़ता है?"
''ओ... मेरा मतलब है कि यहीं बैठे थे हम, बाहर वाले हाल में।"
''यहाँ तो मैं आज सुबह से ही बैठा हूँ, तुम दिखे नहीं?"
अब भवेश इस पूछताछ से परेशान हो रहा था। अपने ही बुने झूठ के जाल में हमेशा की तरह फँसता जा रहा था वह - ''अपना बैग रख दिए हैं, अब जा रहे हैं बैठने।" इतना कहकर
उसने अपने साथी को इशारा किया और अचानक ही गर्म चाय हलक में उड़ेलकर उठ खड़ा हुआ - ''हम चलते हैं सर, आप आराम से चाय पीजिए।"
राहुल ने राहत की साँस ली। इन दोनों भाइयों से मुक्ति पाने का एकमात्र रास्ता यही था, इनकी झूठी बातों को उनके सामने खोल देना। बस, वे इस तिलिस्म के टूटते ही
पलक झपकते गायब हो जाते थे। यह फार्मूला वायलिन वादक और उसके भाई, दोनों पर एक समान कारगर था।
राहुल अपने कुछ पैसे डूब जाने के कारण ही दुखी नहीं था। हालाँकि इन बदहाल दिनों में वे पैसे इसके लिए बहुत कुछ थे। उतना कमाने के लिए इसे महीना भर हाड़ तोड़ना
होता था। लेकिन उदासी और अवसाद के कारण बहुतेरे थे। उनमें से एक कारण तो यही था कि न जाने किस प्रेरणा या लालच के हाथों मजबूर होकर उसने ओपी के अपराध में सहयोग
करना स्वीकार कर लिया था और उसके बावजूद हासिल कुछ न हो सका था। अब तो वह आवरण भी नहीं रह गया था जिसके बल पर वह समझता और खुद को अब तक समझाता रहा था कि उसने
वक्त के हाथों मजबूर होकर भी घुटने नहीं टेके हैं। लेकिन सबसे बड़ी बात यह थी कि ओपी और वायलिन वादक के रूप में हर पल उसके आगे दुनिया का एक बदरूप चेहरा चमकता
रहता था। वह हमेशा भयभीत रहता था कि ओपी या वायलिन वादक कहीं जीत न जाए, वरना वह अपने आपसे कैसे आँख मिला सकेगा? भले ही ओपी या वकील ने उसके जितनी पढ़ाई न की हो
और भले ही वे उसके जैसा इरादे के पक्के और सच्चे न हों, लेकिन लक्ष्य सबके ही लगभग एक ही थे। रास्ते अलग हों भी तो क्या? इतना पढ़ने-लिखने के बाद भी राहुल भी तो
वही सब चाहता था अपने देश और समाज से जो ओपी या वकील चाहते थे - मसलन बेशुमार दौलत, सुविधाएँ, ऐशो-आराम आदि। राहुल इन सभी विचारों में हर पल खुद को बुरी तरह
उलझा पाता और इन उलझनों को परे करके एक निर्णायक फैसला लेने की ताकत अभी तक उसमें नहीं थी। उसे लगता था कि यह ताकत उसमें कभी नहीं आ पाएगी। यही असहायता उसका
सबसे बड़ा दुख था जो उसे तिल-तिल खाए जाता था।
काफी देर तक वह बिना कारण लाइब्रेरी कैंटीन के आगे बैठा चाय पर चाय पीता रहा, मिलने वालों से बोलता-बतियाता रहा और लगातार यह भी महसूस करता रहा कि ऐसा वह नहीं
चाह रहा है। लेकिन फिर भी वैसा ही कर रहा है। अपने मन के प्रतिकूल... भला क्यों? लाचारी क्या है। पता नहीं... कुछ पता नहीं। उसे जब यही पता नहीं है कि उसके इस
संसार में होने की क्या सार्थकता है तो किसी और बात की सार्थकता जान ले भी तो क्या? ...न जाने भी तो क्या?
रात में नींद भी मुश्किल से ही आती थी। वह कैंटीन से निकलकर अपनी किताबें उठा लाया और बहुत देर तक पेड़-पौधों से भरी सड़कों पर टहलता रहा। भला बाहर कहीं शांति
होती तब तो मिलती। न मिलनी थी, न मिली। अपने पुराने हास्टल के मेस में खाना खाकर वह कमरे पर लौट आया था, अपने को बुरी तरह थका कर ताकि रात में नींद आ जाए। लेकिन
नींद थकान से नहीं शायद किस्मत से मिलती है और उस दिन उसकी किस्मत में नींद नहीं थी। कमरे पर ओपी और इसरार अर्ध-नग्न हालत में घोड़े बेचकर सो रहे थे। जो बैग वे
लोग नोटों से भरकर वापस लाने वाले थे वे बैग खाली पड़े हुए थे। उसने बिस्तर के नीचे चेक किया कि नोटों को बिछाकर न सो रहे हों! अंततः उसने एक किनारे अपने लिए जगह
बनाई और लाइट बुझाकर धराशायी हो गया।
आजकल कमरे के बाहर काफी चहल-पहल बनी रहती है। गर्मी की छुट्टियों की वजह से गाँव से वायलिन वादक की पत्नी और उसके दो बच्चे आए हुए हैं, एक लड़का और एक लड़की। लड़का
दसवीं की परीक्षा देकर आया है जबकि लड़की तीसरी कक्षा में पढ़ती है। पता चला बीच में एक और लड़की है जो नहीं आ पाई है। क्यों नहीं आई इसके बारे में साफ-साफ कोई कुछ
कहने को तैयार नहीं था। खैर, पत्नी घरेलू महिला थी, सीधी-सादी। भवेश ने काफी पहले बातचीत के क्रम में बताया था कि उसकी भाभी डाक्टर हैं। राहुल को एकदम से इस बात
का खयाल आया और सोचा कि उससे पूछूँगा, फिर सोचा क्या पूछना। क्या फर्क पड़ता, अगर डाक्टर भी होती तो? वकील के बच्चे राहुल के कमरे की तरफ वाली बालकनी में घुमते
रहते थे, ठीक अपने बाप की तरह। ओपी उनसे बातें कर-करके चहकता रहता। हफ्ते भर में ही उसने सब कुछ भुला दिया था। आजकल उसका एक नया प्रोजेक्ट चल रहा था, 'आर.पी.'
उर्फ 'राइस पुलर'। सुनने में तो यह नाम बहुत प्रभावशाली लगता था लेकिन जब पूरी बात सुनने लगो तो सुन पाने का भी धैर्य नहीं रह जाता था। राइस पुलर का मतलब था
रानी विक्टोरिया की तस्वीर वाली चाँदी का ऐसा सिक्का जिसे चावल के आगे रख दें तो सिक्का चावल को अपनी ओर खींच लेगा।
राहुल तो उसकी बात ही सुनकर बौखला गया था - ''यह क्या बात हुई? रानी विक्टोरिया की तस्वीर वाले तो लाखों सिक्के मिल जाएँगे।"
''मिल जाएँगे, लेकिन सभी सिक्के चावल नहीं खींच पाएँगे।"
''उससे उनकी गुणवत्ता पर क्या असर पड़ता है? क्या उनकी धातु की गुणवत्ता कहीं प्रभावित होती है उससे?"
''धातु की गुणवत्ता से मतलब? जब चाहिए ही ऐसा सिक्का जो चावल खींच ले तो उसके बाईस या चौबीस कैरेट होने से मतलब ही क्या है?"
''यह सिक्का किसे चाहिए? कौन लेगा ऐसा एक सिक्का एक करोड़ में?"
''एक विदेशी है, यूके का।"
''तुम मिले हो उससे?"
''जब माल ही नहीं है तो मिलकर क्या होगा? माल मिलते ही उससे मुलाकात हो जाएगी।"
''जब तुम इतनी मेहनत कर रहे हो तो पता रहना चाहिए माल का खरीददार कोई है भी कि नहीं। मान लो कि सिक्का मिल जाता है लेकिन कोई लेने को तैयार नहीं है तो क्या
करोगे?"
''तैयार कैसे नहीं होगा बे? झंडू कहीं का... कितना दुर्लभ चीज है तुम समझ रहे हो? चावल खींच लेगा सिक्का।"
''तुमने देखा है कभी ऐसा सिक्का?"
''अजीबे बात करते हो तुम यार! देखे होते तो तुम्हारे साथ अभी बहस कर रहे होते बेटा?"
''फिर कहाँ होते?"
''उड़ रहे होते हवाई जहाज में! ...बात करता है।"
ओपी ने राहुल का तर्क भले ही हवा में उड़ा दिया हो लेकिन राहुल अभी भी यह समझने में असमर्थ था कि ऐसा सिक्का हो भी तो कोई उसे एक करोड़ में क्यों खरीदेगा?
ओपी खीझ गया - ''काहे नहीं खरीदेगा भाई? तुमको क्या दिक्कत है?"
''यार, मुझे कोई दिक्कत नहीं है। वह एक ही करोड़ में क्यों, पाँच करोड़ में उसे खरीदे। लेकिन मैं समझना चाहता हूँ कि वह इतने ऊँचे दामों में उसे खरीदेगा ही क्यों?
क्या करेगा उससे चावल खिंचवाकर?"
''उससे मुझे क्या, मुझे तो बस एक करोड़ दे दे।" इस बार ओपी का उत्साह जरा कमतर लग रहा था।
जबकि राहुल अपनी पकड़ बना चुका था - ''इसीलिए तो मैं समझा रहा हूँ कि ऐसा कोई व्यक्ति है ही नहीं जो उस सिक्के का एक करोड़ दे। और न ही ऐसा कोई सिक्का हो सकता
है।"
''क्यों?" ओपी मायूस होता जा रहा था।
''तुम तो इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर बैठे हो, तुम ही बताओ कि ऐसी कौन-सी धातु होती है जो चावल को अपनी ओर आकर्षित करती है? सिक्का किसी धातु का ही तो बना होगा,
वह चावल खींचने के लिए तो बना नहीं होगा? फिर क्यों ऐसी बेवकूफी भरी बातों में आ जाते हो?"
ओपी इन बातों से कमजोर तो पड़ गया था लेकिन हार मानने को तैयार नहीं था। उसने अंततः यह कहकर बात समाप्त की कि बिना प्रयास किए वह हार नहीं मानेगा। राहुल उसकी बात
पर मुसकरा कर रह गया था।
उनकी बात बीच में ही रुक गई थी क्योंकि वायलिन वादक आकर खड़ा हो गया था। दोनों में से किसी ने उसमें जरा भी दिलचस्पी नहीं दिखाई। वह बारी-बारी से दोनों को देखकर
मुसकराता रहा, फिर बोला - ''आप लोगों से एक राय लेना चाह रहा था।"
राहुल चुप रहा। ऐसे प्रदर्शित किया मानो उसने कुछ सुना ही न हो और सुना भी हो तो बात समझ में नहीं आई हो। लेकिन ओपी को बहुत अच्छा लगा कि उससे राय माँगी जा रही
है। उसने बहुत खुश होकर मुसकराते हुए पूछा - ''किससे राय लेनी है, मुझसे?"
''हाँ, आप दोनों से।"
''अरे भाई साहब, तो अभी तक पूछे काहे नहीं थे? पूछिए।"
थोड़ी देर चुप रहकर वकील ने एक गंभीर माहौल तैयार किया और फिर बड़ी मासूमियत से पूछा - ''सोच रहा हूँ सुप्रीम कोर्ट में अपने लिए एक ऑफिस ले लूँ। कैसा रहेगा?"
राहुल तो पूर्ववत चुप रहा मगर ओपी ने हैरानी से पूछा - ''किसको लेना है ऑफिस? आप लेना चाह रहे हैं?"
''हाँ!" वार सटीक था, वकील थोड़ा लड़खड़ा गया।
राहुल बहुत प्रयास करके भी अपनी मुस्कराहट नहीं रोक पा रहा था। ओपी इस बार पहले से भी ज्यादा हैरान था - ''सपना तो नहीं आ रहा है न?"
वकील अब घबड़ाने लगा था। उसे विश्वास नहीं था कि उसका वार उसी पर पलट जाएगा। उसने इस बार मिनमिनाते हुए-से धीरे से पूछा - ''ठीक नहीं रहेगा?" वकील की आवाज से लग
रहा था मानो अपने सवाल के लिए ओपी से माफी माँग रहा हो, कि अब बख्श दो। बीवी-बच्चे आए हुए हैं इसलिए आज ज्यादा हौसला कर गया...
राहुल से बहस करके और अपने नए प्रोजेक्ट को लेकर संदेह बन जाने के कारण ओपी का मूड आज सुबह ही खराब हो गया था इसलिए हाथ आए शिकार को इतनी आसानी से छोड़ने के मूड
में नहीं था वह। राहुल कमरे की ओर आने के लिए मुड़ा तो उसका हाथ खींचते हुए बोला - ''लेकिन भाई साहब, सुप्रीम कोर्ट में ऑफिस लेकर आप करियेगा क्या? गाँजा
बेचिएगा?"
राहुल जिस अंदेशे के कारण वहाँ से हटना चाह रहा था वह सच निकला। ओपी की इस बात से अब हँसी रोक पाना उसके लिए संभव नहीं रह गया था। वह मुँह फेरकर हँसने लगा। ओपी
का तो सामान्य तौर पर भी अंदाज ऐसा था कि वह मुँह पर हँसते हुए प्यार से बातें करता रह सकता था। सामने वाला समझ ही नहीं पाता था कि उस पर हँसा जा रहा है या इसकी
आदत ही हँसकर बोलने की है। वकील ओपी की बात से बचाव की मुद्रा में आ गया - ''ऐसे क्यों कह रहे हैं?"
''तो क्या कहें? सुप्रीम कोर्ट में ऑफिस क्या फोकट में बँटता है? फिर तो हम भी खोल लें एक ऑफिस!"
''बहुत अप्रोच लगाने पर मिल रहा है। काफी रुपया भी देना पड़ेगा..."
''अच्छा छोड़िए यह सब बात। यह बताइए कि वहाँ ऑफिस लेकर आप धँधा क्या करिएगा?"
''वकालत।" वकील ने धीरे से कहा।
''कौन करेगा वकालत? आप?"
''हाँ।"
लग रहा था कि अब एक बात भी पूछी गई तो वकील रो देगा। वकील के हाँ कहते ही ओपी उसके मुँह पर ही गला फाड़-फाड़कर हँसने लगा और राहुल का हाथ खींचकर बोला - ''देख न
रे, ये सुप्रीम कोर्ट में वकालत करेगा।"
राहुल ऐसा करने से बचना चाह रहा था किंतु दृश्य इस तरह का उपस्थित हो गया था कि हँसी उससे भी नहीं रुक पा रही थी। दोनों पेट पकड़े हँसे जा रहे थे। उनकी आँखों से
लगातार हँसने के कारण पानी बहने लगा था और वकील चिढ़ा हुआ-सा दोनों को बारी-बारी से देखे जा रहा था। उसकी तकदीर बलवान थी कि उसी वक्त उसकी छोटी बेटी साक्षी ने
आकर कहा कि पापा, आप भी जल्दी से तैयार हो जाओ। हमलोग चिड़ियाखाना जाने के लिए तैयार हो गए हैं। वकील को तो मानो मोक्ष मिल गया था। वह बहुत अदब से दोनों से इजाजत
लेकर तेजी से खिसक गया। अभी वे दोनों बालकनी में ही इसी बात पर हँसी रोकने की कोशिश कर रहे थे कि नीचे वकील का पूरा परिवार चिड़ियाखाना के लिए जाता दिखाई दिया।
सबसे अंत में वकील था, अपने एक हाथ को हैंगर बनाकर उस पर कोट को मोड़कर रखे हुए। लग रहा था कि कोट ड्राई-क्लीनर से जिस अखबार में लपेटकर लाया गया था ठीक उसी हालत
में अखबार के साथ हाथ पर टाँग लिया गया था। अब तो दोनों की लोट-लोटकर हँसने की हालत हो गई थी। सुप्रीम कोर्ट का वकील अपना काला कोट हाथ पर लटकाकर चिड़ियाखाना जा
रहा था। वकील का आई.डी. कार्ड!
राहुल अपनी परिस्थितियों से और आस-पास के परिवेश से बुरी तरह तंग आ चुका था। उसे लगता कि और कुछ दिन इसी तरह रहना पड़ा तो पागल हो जाएगा। किंतु जाता भी कहाँ!
यहाँ तक कि दिल्ली में ही कहीं बेहतर कालनी में शिफ्ट कर लेने की हालत नहीं थी। वह हर वक्त घबराया-सा रहता कि कहीं दिल्ली उसे निगल न जाए। एक से एक बेवकूफ
दिल्ली वि.वि. के कालेजों में एडहाक पढ़ाने लग गए थे, किंतु उसका कहीं जुगाड़ ही नहीं बन पा रहा था। खुद को साबित करना अब उसके लिए दिनों-दिन असंभव होता जा रहा
था। अपना आत्मविश्वास खोता जा रहा था वह। अब अकसर उसे लगता रहता कि वह कुछ जानता ही नहीं है। उसकी शिक्षा-दीक्षा में ही कहीं खोट है जिसका ठीकरा दूसरों के सिर
फोड़ता रहता है। वह कैसे कह सकता है कि जिनकी नौकरी लग रही है वे उससे बेहतर नहीं हैं? क्या पैमाना है उसके पास और वह कौन होता है कोई पैमाना बनाने वाला? जो
प्रोफेसर उन विद्यार्थियों को नौकरी के योग्य पा रहे हैं वे क्या कुछ कम योग्य या विद्वान हैं? सच में, वह पागल होता जा रहा है दिनों-दिन। अभाव ने उसका दिमाग
सड़ा दिया है। प्रूफ पढ़-पढ़कर उसकी आँखें भी खराब होती जा रही थीं। दिन-रात वह इस तनाव से घिरा रहता कि दो साल पहले तक जो पढ़ता-लिखता रहा है वह सब बहुत जल्द ही
पूरी तरह भूल जाने वाला है। उसके बाद तो कभी उसे किसी कालेज में नौकरी नहीं मिल सकेगी और वह जीवन-भर प्रूफ पढ़कर आँखें फोड़ता रहेगा। दिल्ली उसे एक दलदल की भाँति
प्रतीत होती जहाँ से निकलने के लिए वह जितना छटपटाता उतना ही गहरे धँसता चला जाता।
ओपी गाहे-बगाहे उसे कुरेदता रहता कि तुमने क्या कसम खाई है कि कालेज की नौकरी ही करोगे? काम की कुछ कमी है क्या? जब अकादमिक जगत इतना ही सड़ चुका है तो उसमें
जाना क्यों चाहते हो? कहीं तुम्हारा दिमाग भी तो नहीं सड़ गया है?
''हाँ सड़ गया है।" राहुल चिढ़ जाता। ''मैं इसलिए वहाँ नौकरी चाहता हूँ क्योंकि अपनी मूर्खता के कारण मैं और कुछ करने योग्य नहीं रह गया हूँ। कि इतनी उम्र उस
रास्ते पर गँवा देने के बाद कुछ और सीखने की ताकत मेरी नहीं रही है। और सबसे बड़ी बात कि मेरी बीवी और बच्चे बहुत सालों से मेरे कमाने की राह देख रहे हैं और मुझे
जल्द-से-जल्द उन सबके लिए कमाना होगा। जितनी भी जल्दी हो सके, बल्कि इसी पल से। और उसके लिए सही रास्ता मुझे कालेज की नौकरी ही दिखती है।"
ओपी को राहुल की ऐसी बातें बहुत बुरी लगतीं, पता नहीं क्यों! शायद वह इस कारण से भी चिढ़ता होगा कि अचानक कभी भी इसे किसी कालेज या विश्वविद्यालय में नौकरी लग
जाएगी और वह करोड़पति बनने के ख्वाब लिए यहीं रह जाएगा। कि राहुल के जाने के बाद उसे फिर से किसी रूम पार्टनर या रूम वाले पार्टनर की तलाश करनी होगी। वह राहुल पर
पिल पड़ता - ''अपनी लाचारियों का विज्ञापन बंद करो। तुम इसलिए कालेज में नौकरी चाहते हो क्योंकि तुम्हें एक आराम की नौकरी चाहिए। जिसमें कुछ करना न पड़े, कुछ
छात्रों के आगे बकवास करने के बदले मजे करने लायक पैसे मिल जाएँ, बस।"
''शायद तुम ही ठीक कह रहे हो। मैं तो बस इतना जानता हूँ कि मैं इसी नौकरी के योग्य बन पाया हूँ। तुम्हें यह बात जिस तरह समझ आए, समझ सकते हो।"
''क्या तुम रिक्शा चलाने योग्य नहीं बन पाए हो? आटो या बस चलाने योग्य नहीं बन पाए हो? मजदूरी करने योग्य नहीं बन पाए हो? ...नहीं, ये केवल भाषण झाड़ने लायक महान
विद्वान बन पाए हैं।"
राहुल चीख उठता - ''हाँ, मैं नहीं बन पाया हूँ रिक्शा चलाने लायक या मजदूरी करने लायक। मैं क्या करूँ? और अब नए सिरे से कुछ बनने का हौसला भी नहीं रहा। लेकिन
तुम अपनी बताओ, तुम तो केवल करोड़पति बनने लायक ही हो न? राइस पुलर के अनुसंधानकर्ता!"
''करोड़पति क्या तुम नहीं बनना चाहते जो मुझ पर तंज कस रहे हो? महानता के मुखौटे में यह स्वीकार करने में शायद तकलीफ होती है कि जो इच्छाएँ मुझ जैसे तुच्छ
व्यक्ति की हैं, भीतर से वही सब बल्कि उससे भी ज्यादा पाने की हवस तुम जैसे महान व्यक्ति के भीतर भी है..."
और राहुल ऐसी बातों के बाद समर्पण कर देता - ''मैं तुम से बहस नहीं करना चाहता..."
''हाँ, क्यों नहीं! मुझ जैसे तुच्छ व्यक्ति से तुम जैसे विद्वान को बहस करनी भी नहीं चाहिए।"
ऐसी बहसों के बाद दो-चार दिनों तक दोनों के बीच बोल-चाल बंद रहती। संबंध सुधार की दिशा में ज्यादातर ओपी के ही कदम बढ़ते। किसी शाम वह पूरे प्रबंध के साथ आ
विराजता और दोस्ती की गाँठ दुबारा बंध जाती। लेकिन इन बातों से ओपी पर चाहे न भी असर पड़ता हो किंतु राहुल दिनों-दिन अपने को कम होते देखता रहता था।
और एक दिन ऐसा भी आ पहुँचा कि ओपी ने राहुल से अलग रहने का फैसला ले लिया। बहाना यह बना कि उसने एक दुकान देखी है। यह कमरा दुकान से काफी दूर है इसलिए उसे छोड़ना
पड़ रहा है। राहुल ठीक से सोच नहीं पाया कि ओपी का कमरा छोड़कर जाना उसे अच्छा लगा था या बुरा। किंतु वास्तविकता यही थी कि ओपी ने एक दुकान खोलने की ठान ली थी।
शुरुआत में राहुल को लगा कि जिस सफाई के साथ वह दिन-रात झूठ बोलता रहता है, यह भी साथ छोड़कर जाने के लिए बोला गया एक झूठ है। किंतु जब दुकान के उद्घाटन के दिन
महज दस-पंद्रह आमंत्रित मित्रों में उसे भी बुलाया गया तो उसे विश्वास हो गया था कि ओपी ने करोड़पति बनने का ख्वाब छोड़कर व्यावहारिक रास्ता अख्तियार कर लिया है।
ओपी ने एक जेनरल स्टोर की दुकान खोल ली थी। बदरपुर बार्डर के पास। उसने बताया कि यहाँ पर किराया कम है इसलिए उसे यह दुकान जंच गई। ठीक बात थी। लेकिन दुकान मुख्य
बाजार से जरा हटकर थी इसलिए उसकी सफलता के बारे में खुलकर भविष्यवाणी नहीं की जा सकती थी। सबका यही कहना था कि भले थोड़ा वक्त लगे लेकिन दुकान जरूर चल जाएगी।
राहुल को यह देखकर थोड़ी हैरानी हो रही थी कि ओपी ने दुकान बड़ी शानदार खोली थी। दुकान की साज-सज्जा में भी काफी खर्च किए गए थे। पूछने पर उसने बताया कि यार, यह
तो आज के समय में बहुत जरूरी है। कंगालों जैसी दुकान खोलो तो कोई कंगाल खरीददार ही आएगा। उससे भला कितनी कमाई होगी?
''लेकिन यह इलाका तो बड़े लोगों का है नहीं। यहाँ तो ज्यादातर लोग साधारण कमाने वाले ही लगते हैं!"
ओपी यह मानने को राजी नहीं था - ''अमीर आदमी अब दिल्ली में कहाँ नहीं हैं दोस्त? चप्पे-चप्पे में ठुँसे हुए हैं। सभी अमीर कोठी में ही तो नहीं रहते न। बस उनकी
नजर पड़ने की देर है, सब यहीं आने लगेंगे। इसीलिए सामान भी उनके लायक ही रखा है।"
''चलो भाई, अच्छा है। तुमने एक शानदार शुरुआत की है इसकी बधाई देता हूँ। लेकिन खर्च तो बहुत हो गया होगा...?"
''मत पूछो यार, अभी सोचने बैठूँगा तो बेहोश हो जाऊँगा। बहुत लोगों से कर्ज लेना पड़ा है। घर से भी थोड़ी सहायता मिली है। दुकान चल जाए तो सब ठीक हो जाएगा।"
''जरूर चलेगी यार, क्यों नहीं चलेगी। मुझे पूरा विश्वास है कि सालभर में तुम यहाँ जम जाओगे।"
ओपी ने सिर्फ दुकान में ही खर्च नहीं किया था बल्कि पूजा और मिठाई वितरण के थोड़ी देर बाद दुकान का शटर गिराकर उसके भीतर पार्टी भी बहुत शानदार दी थी। वापसी में
राहुल को बदरपुर से कमरे तक टैक्सी से भिजवाया था। राहुल को तो यही लग रहा था कि वास्तव में इसे 'राइस पुलर' वाला सिक्का मिल गया है। आते-आते जब उसने पूछा तो
ओपी हँसकर रह गया।
वकील का भाई उसकी पत्नी को गाँव छोड़ने गया (गाँव से लेकर भी वही आया था) तो वहीं का होकर रह गया था। वकील ने बताया कि इस बार उसकी शादी की सोच रहे हैं। वहाँ
रहेगा तभी तो लड़की वाले उसे देख पाएगे। यहाँ से बार-बार जाने में बहुत खर्च हो जाएगा। राहुल को उसकी बात बड़ी अजीब लगी। उसने पूछा - ''और उसकी पढ़ाई-लिखाई का क्या
होगा?"
''कैसी पढ़ाई-लिखाई?" वकील ने बिल्कुल अनजान बनते हुए पूछा।
''जो यहाँ रहकर अब तक कर रहा था? किसी जौब की तैयारी कर रहा था न?"
''वो तो अब यहाँ रह रहा था तो टाइम-पास के लिए कुछ कर रहा था। असल बात तो यह थी कि गाँव में लोगों को बताया जा सके कि लड़का दिल्ली में रहता है और वहीं कोई नौकरी
करता है ताकि ज्यादा से ज्यादा दहेज मिल सके।"
''कमाल है!" राहुल चौंक गया था इस खुलासे से। ऐसे बेवकूफों की शादी हो जाए यही क्या कम था, ऊपर से दहेज के भी रास्ते निकाले जा रहे हैं। उसने पूछा - ''और लड़की
वाले आकर पता नहीं करेंगे कि लड़का दिल्ली में क्या कर रहा है?"
''कौन आएगा इतना किराया लगाकर? और आएगा भी तो इतनी बड़ी दिल्ली में क्या पता कर लेगा? खिला-पिलाकर विदा कर देंगे।"
वकील का आत्मविश्वास देखकर तो राहुल को अपने ऊपर शर्म आ रही थी। एक वह है जो दस वर्षों से दिल्ली में भाँड़ झोंक रहा है।
राहुल को हमेशा यही लगता रहता कि पूरी दुनिया बदल रही है, बस वही एक है जो जड़ हो गया है। उसके स्वभाव में भी बहुत चिड़चिड़ापन आता जा रहा था। अंधविश्वासों और
टोने-टोटकों के प्रति ऐसा नहीं था कि उसमें आस्था जग गई थी, किंतु अब इन बातों को लेकर वह कई बार दुविधा में अवश्य पड़ जाता था। विचारों में पहले जैसी मजबूती
नहीं रह गई थी। कई मित्रों ने उसे पहले भी कई बार कहा था कि इस कमरे में कुछ अपशकुन-सा लगता है, यहाँ रहकर आपका कुछ नहीं हो सकेगा। किंतु ऐसी बातों पर उसने कभी
कान देना भी जरूरी नहीं समझा था, विचार करना तो बहुत दूर की बात थी। लेकिन ओपी के जाने के बाद से वह अकसर अकेले में यही सोचा करता कि इस कमरे में रहकर कुछ नहीं
हो सकता। किसी-किसी रात चिंतन के ऐसे अँधेरे अरण्य में भटक जाता कि बचपन से लेकर आज तक की सारी असफलताओं का इल्जाम इसी कमरे के सर जाता। कभी-कभी तो रातों में
बुरी तरह घबरा जाता मानो अंधकूप में पड़ा हुआ हो। वह ऐसा महसूस करता कि यहाँ से जीते-जी बाहर ही नहीं निकल पाएगा। एक दिन डी.टी.सी. की बस में पर्स खो गया तो
इल्जाम आया कमरे पर। इसी तरह एक दिन लाइब्रेरी से एक किताब खो गई तो उसकी भड़ास भी कमरे पर ही निकली कि यहाँ रहने की वजह से ही इतनी परेशानियाँ हो रही हैं। बाद
में उसे यह सोचकर अपने ऊपर चिढ़ हो जाती कि वह भी कैसी-कैसी बातें सोचने लगा है। उसे इस भरी दुनिया में अगर सबसे ज्यादा नफरत किसी से थी, तो खुद से थी।
कई महीनों बाद बार-बार बुलाने पर एक शाम वह ओपी की दुकान पर चला गया। यह देखकर उसे थोड़ा आश्चर्य हुआ कि दुकान थोड़ी और समृद्ध हो गई थी। दुकान में आइसक्रीम और
कोल्ड-ड्रिंक भी रखा जाने लगा था। एक तरफ फोटो-स्टेट की मशीन भी लगा दी गई थी। और भी कई चीजे तथा सुविधाए बढ़ा दी गई थीं। उसे खुशी हुई और विश्वास हो गया कि
दुकान थोड़े ही समय में जम गई है। लेकिन ओपी ने बताया कि दुकान बिल्कुल ही नहीं चल पा रही। थोड़ा और कर्ज लेकर उसने इसलिए दुकान बड़ा कर लिया है ताकि अब तो जरूर ही
चल जाए। उसने बताया कि गाँव से बीवी-बच्ची को भी बुला लिया है और बेटी का एडमिशन भी यहीं करवा दिया है।
''जब दुकान नहीं चल पा रही तो यह सब हो कैसे रहा है यार?"
''सच बताऊँ, सब कर्ज का है। मुझे तो खुद कई बार घबराहट होती है लेकिन हाथ में एक-दो प्रोजेक्ट हैं। अगर काम हो गया तो सब एक झटके में ठीक हो जाएगा।"
''कैसा प्रोजेक्ट?"
''तुम बिना सुने कुछ मत बोलना, प्लीज!"
अब राहुल को कोई शुबहा नहीं रहा था कि उसके पास कैसा प्रोजेक्ट होगा। धीरे से बोला - ''बक दे।"
''भाई, दो प्रोजेक्ट आया है, 'काली-बिल्ली' और 'डबल-इंजन'। इनमें से एक भी काम हो गया तो समझो मुसीबत खतम।"
''मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा है... यह 'राइस-पुलर' टाइप मामला है क्या?"
''मामला-वामला नहीं है बेटा, प्रोजेक्ट है। तुम्हें हर बात में मामला दिखने लगता है। मुझे इसमें तुम्हारी भी मदद चाहिए।"
''कुछ समझ में आए तब तो। यह चूहे-बिल्ली की पहेली छोड़ो और सीधी बात बताओ।"
''यार एक ऐसी काली बिल्ली होती है जो सीसे को एक बार भी देख ले तो सीसा चूर-चूर हो जाता है। ऐसी बिल्ली बस एक बार हाथ लग जाए, उसके पाँच करोड़ मिल जाएँगे। तुम भी
कोशिश करो भाई, आधा-आधा बाँट लेंगे..."
''कौन चूतिया है जो पाँच करोड़ जेब में रखकर बिल्ली ढूँढ़ रहा है? इतने पैसे में तो अच्छा-खासा बिजनेस हो सकता है!"
''यार इससे हमें क्या, बना रहे वो चूतिया। हमें तो उसके पैसे से मतलब है भाई।"
''और डबल इंजन का मतलब क्या हुआ?"
''वो दोमुँहा साँप होता है न? वही।"
''उसके बदले कितना दे रहा है?"
''दो करोड़..."
''भाग साले, दो करोड़! आजकल सारे सँपेरे वही दोमुँहा साँप रखकर दर्शन दिलाते चलते हैं और उसका दो करोड़? मैं कल ही तुम्हें पचीस-पचास साँप दिला देता हूँ।"
''आराम से बेटा, आराम से। सँपेरों के पास जो साँप होते हैं उसका वजन कितना होता होगा?"
''एक-डेढ़ किलो।"
''वही तो! और दो करोड़ पाने के लिए बारह किलो का दोमुँहा साँप चाहिए। बारह किलो का एक साँप भी दिला दो और कल ही मुझसे एक करोड़ ले जाओ।"
''जो उसके लिए तुम्हें दो करोड़ देगा वह उस सँपेरे से अगर हजार रुपये में एक साँप खरीद कर और खिला-पिलाकर बारह किलो का बनाना चाहेगा तो भी उस पर पचीस हजार भी
खर्च नहीं होने वाला। क्यों देगा वह दो करोड़? और उस साँप का कोई करेगा क्या?"
''बेकार की बातों में तेरा दिमाग ज्यादा लगता है... यार राहुल, हमें इससे क्या लेना-देना है भाई कि हमसे साँप लेकर कोई क्या करेगा? पहले बारह किलो का साँप ढूँढ़ो
फिर बात करो।"
''यह साँप-बिल्ली का खेल तुम्हें ही मुबारक हो, मुझे बख्श दो।"
''बस हो गया, करना-धरना तो कुछ नहीं बस उपदेश देना आता है।"
''तो क्या साँप पकड़ने जंगल चला जाऊँ, कि दो करोड़ मिलने वाले हैं।"
''मैं यह कब कह रहा हूँ... जरा सुन तो लिया कर। सुना है ऐसे साँप ज्यादा बड़े नहीं मिल पाते। बड़े होने पर उनमें कुछ खास बात पैदा हो जाती है इसीलिए उसकी कीमत बढ़
जाती है।"
''मुझसे क्या चाहते हो केवल इतना बता दो।"
''तुम्हारे घर के लोग तो गाँव में रहते हैं, ऐसे किसी सँपेरे को शायद जानते हों। एक बार बात करके देखना..."
''अब मैं चलूँ? तू सुधरेगा नहीं साला... लगा था कि अब रास्ते पर आ जाएगा मगर अब तो कोई उम्मीद ही नहीं दिखती। अपनी मेहनत और हुनर पर भरोसा ही नहीं है, बस पलक
झपकते पैसा बरसाने वाला प्रोजेक्ट चाहिए..."
''यह प्रोजेक्ट इतना भी कठिन नहीं है बेटा... तुम बनते रहो प्रोफेसर, मैं उससे पहले बनकर दिखा दूँगा।"
''तुम ही क्यों? वायलिन वादक भी सुप्रीम कोर्ट में ऑफिस खोलकर तुम्हें दिखाने वाला है। अगर तुम्हें सीसा तोड़ने वाली काली बिल्ली मिल सकती है तो उसे भी सुप्रीम
कोर्ट में ऑफिस मिल सकता है। मुझे अपने लिए तो जरा भी भरोसा नहीं है अब, बस तुम लोगों की उन्नति देखना रह गया है।"
''अभी हँस लो, लेकिन सच बता रहा हूँ। एक साँप मिल भी गया है। अभी ढाई किलो का है।"
''अच्छा?" राहुल वास्तव में चौंक गया। ''हालत यहाँ तक पहुँच भी गई है? कहाँ रखा है साँप?" राहुल दुकान में नजर दौड़ाने लगा।
ओपी ने चहकते हुए बताया - ''अबे, यहाँ दुकान में क्या ढूँढ़ रहा है, यहाँ क्या साँप रखूँगा? गाँव में चचेरे भाई ने पकड़वाया है। पाँच हजार सँपेरे को देना पड़ा। आज
ही उसे पंद्रह हजार का ड्राफ्ट भेजा है ताकि साँप को ठीक से खिलाया-पिलाया जा सके। आज नहीं तो दो-तीन साल में, लेकिन कामयाब तो हो ही जाना है।"
''ठीक है ओपी, मेरी शुभकामनाएँ तुम्हारे साथ हैं। साँप की कुशलता की खबर देते रहना।"
ओपी मुसकरा कर रह गया।
राहुल गया तो था यह सोचकर कि मन थोड़ा हल्का हो जाएगा लेकिन और भरकर लौटा था। हालाँकि ओपी के प्रोजेक्ट की बातों से तो उसका मनोरंजन ही हो रहा था किंतु उसके
दुकान की असफलता उसे कहीं बेचैन कर रही थी। अगर ओपी की दुकान चल निकलती तो उसे यह सोचकर अच्छा लगता कि मेहनत और ईमानदारी से जीने लायक स्थिति इस दुनिया में अभी
बनी हुई है। उसे यह सोच-सोचकर घबराहट हो रही थी कि ओपी जिस प्रकार कर्ज के दलदल में फँसता जा रहा था उसका परिणाम पता नहीं कितना बुरा होने वाला है!
वायलिन वादक का भाई लगभग तीन महीने घर में बिताकर दिल्ली वापस आ गया था। राहुल की उससे एक दिन बाहर बालकनी में ही मुलाकात हो गई। राहुल ने जब देर से वापस आने का
कारण पूछा तो उसने बता दिया कि पैर टूट गया था। प्लास्टर कटने में ही दो महीने लग गए। राहुल ने जब उसे बताया कि तुम्हारे भैया कह रहे थे शादी करने के लिए वह
गाँव में पड़ा है तो उसकी जबान लड़खड़ा गई। फिर भी सँभलते हुए उसने कहा कि हाँ, वो भी एक कारण था। लेकिन वह कारण न होता तो क्या प्लास्टर चढ़े होने के बावजूद दिल्ली
आ जाते? इस प्रश्न पर पल भर ठहरने के बाद उसने सफाई से बात काट दी और पलटकर राहुल से ही पूछ बैठा - ''ओपी जी की दुकान कैसी चल रही है?"
''बहुत अच्छी चल रही है। कभी खुद जाकर देख आओ।"
''हाँ। जाएँगे एक दिन। सुना है बहुत वीआईपी दुकान है?"
''हाँ वीआईपी ही है।"
अभी कुछ और बातें हो सकती थीं लेकिन भाई ने वकील को नीचे से आते देख लिया था। अब वह कमरे में क्षणभर भी नहीं टिक सकता था। कमरे में जल्दी से ताला मारकर वह
सीढ़ियों में समा गया। वकील के साथ उसका एक और वकील दोस्त था। पहले भी वह कभी-कभी आता था किंतु पिछले तीन महीने की तनहाइयों में यह यारी कुछ ज्यादा ही परवान चढ़
गई थी। उसके आने का मतलब था आज बोतल खुलेगी, गाँजे की कली महकेगी और देर रात दोनों यार खाना खाने निकलेंगे। वैसे देखने में तो वह भी चोर ही लगता था, वकील तो
कहीं से नहीं लगता था।
राहुल भी कपड़े बदलकर वि.वि. कैंपस जाने के लिए निकल गया। आज उसका मन खाना बनाने का नहीं हो रहा था। सोचा हास्टल के मेस में खाना खाकर लौट आएगा। गेट पर पहुँचा तो
देखा वायलिन वादक का भाई बाहर खड़ा था। करीब पहुँचने पर साथ-साथ चलने लगा - ''अब तक यहीं खड़े थे?"
''किसी का वेट कर रहे थे सर!"
''तो मेरे साथ कहाँ चल रहे हो?"
''लगा कि आपके साथ ही चलते हैं..."
ऐसी ही होती थी इन दोनों भाइयों की बातें। इरादा कुछ और बयान कुछ! राहुल भली-भाँति समझ रहा था कि गेट पर सिक्योरिटी ने उसे रोक दिया होगा और वह इतनी देर से किसी
ऐसे व्यक्ति की प्रतीक्षा में था जिसके साथ गेट के भीतर प्रवेश कर सके। रात में कभी-कभी अपरिचित या संदिग्ध व्यक्तियों को रोक दिया जाता था।
बात के लिए बस एक बात पूछ ली राहुल ने - ''तो आजकल किस परीक्षा की तैयारी चल रही है?"
''सोच रहे हैं आइ.ए.एस. का दे दें।"
इतनी बड़ी चोट के लिए तो राहुल सचमुच अभी तैयार नहीं था। इस ठोकर से बुरी तरह तिलमिला गया - ''तुम तो स्टेशन मास्टर और लोअर डिविजनल क्लर्क की तैयारी करते थे?"
''ओ!"
''अब 'ओ' का क्या मतलब? करते थे या नहीं यह बताओ।"
''इस बार सोच रहे हैं आइएएस दे दें।"
राहुल ने उसके साथ दिमाग खराब करना व्यर्थ समझा और दूसरी दिशा की ओर मुड़ गया- ''मैं जरा इस हास्टल में एक मित्र से मिल आऊँ? तुम निकलो जहाँ जाना था..."
उसने भी राहत की साँस ली और राहुल ने भी। हालाँकि उसे जाना कहीं नहीं था, इधर-उधर बैठकर लड़कियों को घूरना था और वक्त गँवाना था।
आज राहुल को एक प्रकाशक के काम के बीस हजार रुपये एकमुश्त मिल गए थे। एक और थोड़ी अच्छी बात यह हुई थी कि दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कालेज में गेस्ट फैकल्टी के
तौर पर पढ़ाने के लिए महीने में बारह-पंद्रह क्लास मिलने की उम्मीद बँधी थी। मतलब कि अब हर महीने कम से कम बारह हजार पक्का। सोचा आज की रात ओपी के साथ बिताई जाए।
महीना भर से ज्यादा ही हो गया था उससे मिले हुए। इस दौरान ओपी की शाहखर्ची घटने की बजाए और बढ़ती ही जा रही थी। हालाँकि पिछले दोनों प्रोजेक्ट के प्रति वह उदासीन
हो गया था। गाँव में चचेरे भाई ने साँप के नाम पर उससे लगभग तीस हजार रुपये झटक लिए थे और जब साँप दिखाने का समय आया तो कह दिया कि साँप मर गया। क्या करता, गम
खाकर रह जाना पड़ा। अच्छी तरह समझ गया था कि यह सिरे से झूठ बोल रहा है। अभी पिछले हफ्ते ही उसने फोन करके बताया था कि बीवी-बच्ची घर गई हुई हैं। बच्ची की
परीक्षा खत्म होने के बाद छुट्टी हो गई थी। जब मन करे आ जाना। पार्टी करने के लिहाज से ओपी का घर ठीक था। उसका मकान मालिक दूसरे मकान में रहता था और वह मकान
मालिक के दबाव से मुक्त था।
आज वह फोन लगाता उससे पहले ही ओपी का फोन आ गया। राहुल के फोन उठाते ही - ''आज शाम फुर्सत में हो क्या?"
''हाँ बताओ।" राहुल कुछ सशंकित हो उठा क्योंकि ओपी की आवाज कुछ बेचैन और उदास-सी लग रही थी।
''तुम्हारे साथ बैठना है, आ जाना।"
''ठीक है, आता हूँ सात बजे तक।"
चंद सेकेंड पहले तक राहुल के भीतर ओपी से मिलने की जो तमन्ना जगी थी वह उससे बात होते ही शिथिल हो गई। पता नहीं क्या होने वाला है। खैर, राहुल ठीक समय पर ही
पहुँच गया। रास्ते में ही ओपी का फोन आया कि सीधे घर आ जाना, आज दुकान बंद है। घर में घुसते ही राहुल चौंक गया। सारा सामान और बिस्तर-सब कुछ बँधा पड़ा था। यहाँ
तक कि किचेन का एक-एक ग्लास तक बँध चुका था। पीने के लिए डिस्पोजेबल ग्लास बोतल के साथ ही रखा हुआ था। राहुल की समझ में कुछ नहीं आ रहा था - ''घर शिफ्ट कर रहे
हो क्या?"
''हाँ दोस्त, अब यही एक रास्ता रह गया है।"
''कहाँ जा रहे हो?"
''बैठो तो। बात करते हैं।"
दुकान में काम करने वाला एक लड़का जो ओपी के ही गाँव का था वह उन दोनों की भरपूर सेवा में लगा हुआ था। दो-तीन पैग तक ओपी मुँह सिलकर चुपचाप पीता रहा। इस तरह पीना
और पीने को मजबूर होना किसी सजा से कम न था। तीन पैग के बाद ओपी की जुबान खुली - ''गाँव जा रहा हूँ राहुल। दिल्ली में रहना अब संभव नहीं रहा..."
ओपी आँख भी मिलाने से कतरा रहा था। ग्लास को एकटक घूरते हुए बमुश्किल इतना बोल पाया था। अजीब घबराया हुआ-सा लग रहा था वह।
''क्या बात है?"
''दुकान चल नहीं रही है। कर्ज बहुत बढ़ गया है, एक करोड़ से भी ज्यादा। चुका सकने की कोई हालत नहीं है। सब बेच भी दूँ तो भी बीस लाख से ज्यादा हाथ नहीं आएगा।"
''इतना निराश मत होओ, अपना खर्च थोड़ा कम कर दो और बैंक से लोन लेकर कुछ कर्ज चुका दो। कुछ दिन में सँभल जाएगा यार।"
''अब यहाँ तो कुछ नहीं सँभलेगा। कर्जदारों को जो हाथ लगता है वही उठा ले जाते हैं। ऐसे में दुकानदारी भी क्या चलेगी? किसी ने बाइक छीन ली, कोई फ्रीजर उठा ले
गया, किसी के हाथ फोटो स्टेट मशीन लग गई... बहुत अपमानजनक लगता है यह सब।"
''लेकिन यहाँ से जा कैसे पाओगे? कोई जाने देगा?"
''मालूम किस चूतिए को है कि मैं भाग रहा हूँ। केवल हम दोनों जानते हैं।" ओपी ने उस लड़के की ओर इशारा किया। लड़का उदास-सा मुसकराकर रह गया।
ओपी ने बताया कि बहुत चुपके से जा रहे हैं। रात में बारह बजे तक ट्रक आ जाएगा। लगभग बीस-पचीस लेबर ट्रक के साथ आएँगे। एक घंटे के भीतर घर और दुकान दोनों ट्रक पर
होगा, और हम दोनों भी। दुआ करो कि सब चुपचाप निबट जाए। राहुल वास्तव में यही दुआ कर रहा था। ओपी ने उससे कई बार कहा कि तुम अब चले जाओ लेकिन उसे ओपी को मुसीबत
में अकेले छोड़ जाना ठीक नहीं लग रहा था।
सच में बारह बजे के आसपास ट्रक वाले ने दस्तक दे दी। उसके साथ इतने मजदूर थे कि कुछ ही मिनटों में घर खाली हो गया। ओपी ने घर में ताला डालते हुए कहकहा लगाया -
''कमीना कहीं का, किराएदार को अपना चपरासी समझता था। अब लटकाए रहना ताला दो महीना तक मेरे इंतजार में।"
बात भले गलत हो लेकिन राहुल को ओपी की यह छोटी-सी खुशी अच्छी लगी। दुकान तो घर से भी जल्दी ट्रक पर लद गया था। राहुल भी मुख्य सड़क तक ट्रक में ही आया और फिर आटो
पर बैठकर सीधा वि.वि. कैंपस चलने को कहा। वह अभी कमरे पर जाना नहीं चाहता था, थोड़ी देर तक ढाबा पर बैठना और एक-दो काफी पीना चाहता था।
ढाबा से जरा पहले उसने आटो छोड़ा तो देखा कि सड़क पर काफी छात्र-छात्राएँ जुटी हुई हैं और बहुत हो-हल्ला मचा है। पता नहीं क्या बात है! एक जूनियर लड़की मिल गई
जिसने बताया कि कैंपस से बाहर के दो आदमी पिट रहे हैं जिन्होंने एक लड़की को छेड़ा है। अच्छा? राहुल ने भीड़ में आँखें गड़ाईं तो आवाक रह गया। कुछ छात्र नेता-नुमा
लड़के वायलिन वादक और उसके वकील साथी को जमकर पीट रहे थे। ऐसा अवसर इस कैंपस में कम ही हाथ आता था, सो दबाकर हाथ की सफाई चल रही थी।
राहुल भीड़ से जरा बाहर खड़े हास्टल के कुछ और साथियों से बातें करने लगा ताकि ज़ुर्म अगर हल्का हो तो बचाने की कोशिश की जा सके। उन लोगों ने बताया कि ये दोनों
हजरत लाइब्रेरी कैंटीन के पास की झाड़ियों में बैठकर शराब पी रहे थे। जब वहाँ से कुछ छात्रों ने इन दोनों को जलील करके भगाया तो रास्ते में अकेली देखकर एक लड़की
के साथ बदसलूकी करने लगे। लड़की वहाँ से तेज-तेज चलकर निकल आई। लेकिन इन कमीनों का दुस्साहस तो देखो, इतना करके भी ढाबे पर आ बैठे। वह तो संयोग था कि उस लड़की ने
दोनों को यहाँ बैठे देख लिया और कुछ लोगों को बताया। जिस लड़की को छेड़ा गया था वह बहुत सौम्य स्वभाव की थी इसलिए अविश्वास करने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता था।
राहुल को भी यह सब सुनकर बहुत गुस्सा आया। अब इतना हौसला बढ़ गया है इनका!
वह फिर से भीड़ में जा घुसा। सिक्योरिटी के कई जवान अपने चीफ सिक्योरिटी ऑफिसर साहब को लेकर पहुँच चुके थे। चीफ को इतनी रात गए उठकर आना बेहद नागवार गुजरा था जो
उसके कुम्हलाए मुखमंडल पर बिलकुल साफ-साफ छपा हुआ था। वायलिन वादक और उसके साथी का आई.डी. कार्ड जब्त किया जा चुका था और आगे की कार्रवाई के तौर पर दोनों की
उठक-बैठक चल रही थी। तभी भीड़ में वायलिन वादक का भाई नजर आ गया। राहुल को विश्वास नहीं हुआ कि बिलकुल आगे खड़ा होकर वह अपने देवता-तुल्य भाई का हौसला बढ़ा रहा था!
दोनों की नजरें मिल गई थीं। चंद सेकेंड बाद उसकी नजरें फिर से उसे तलाशने लगीं लेकिन दुबारा उसका चेहरा नजर नहीं आ रहा था। उठक-बैठक में व्यस्त वायलिन वादक का
चेहरा भी कभी दो-दो तो कभी तीन-तीन नजर आने लगा था।
अब राहुल का मन ढाबे पर बैठने का नहीं बल्कि कमरे में जाने के लिए जोर मारने लगा था। इससे पहले कि नशा पूरी तरह उतर जाए, वह नींद में समा जाना चाहता था... भरपूर
नींद में।