आज से प्रायः 108 साल पहले महात्मा ने दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग से अपने पहले अखबार 'इंडियन ओपिनियन' का संपादन आरंभ किया। प्रवेशांक में ही उन्होंने बताया
कि इसका मकसद ''भारतीय समुदाय की इच्छाओं को अभिव्यक्त करना और उनके हितों के लिए काम करना है।'' तब गोरे शासकों के दिल में वहाँ काम करने वाले अथवा व्यापार
करने वाले भारतीयों के प्रति जो हिकारत का भाव था और जैसी दयनीय उनकी बस्तियों की हालत थी, उसे शासन तंत्र के सामने लाना, उनसे न्यायपूर्ण व्यवहार की माँग करना,
इस साप्ताहिक अखबार का घोषित लक्ष्य था। अखबार का दूसरा बड़ा मकसद दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले अलग-अलग जमातों, अलग-अलग काम-धंधा करने वाले लोगों को भारतीयता की
एक पहचान देना और इस तरह उन्हें एक सूत्र में बाँधना था। इसकी घोषणा करते हुए महात्मा का यह अखबार कहता है कि ''हम तमिल या कलकत्ता वाले नहीं हैं, हम मुसलमान या
हिंदू नहीं हैं, हम ब्राह्मण और बनिया भी नहीं हैं बल्कि हम केवल और केवल ब्रिटिश भारतीय हैं। हमें साथ-साथ डूबना और साथ-साथ तैरना है।'' इस पुंजीभूत और सहधर्मी
पहचान के लिए ही उन्होंने अखबार का नाम रखा - 'इंडियन ओपिनियन' और एक साथ चार भाषाओं में इसका प्रकाशन शुरू हुआ। वे भाषाएँ थीं - अंग्रेजी, हिंदी, तमिल और
गुजराती।
अपनी आत्मकथा 'सत्य के साथ मेरे प्रयोग' में गांधी पत्रकारिता के उद्देश्यों को इन शब्दों में बताते हैं। वह कहते हैं कि ''समाचारपत्र का पहला मकसद लोगों की
संवेदना को समझना और उसे अभिव्यक्त करना, दूसरा उनके भीतर जरूरी भावनाएँ जगाना और तीसरा मकसद सार्वजनिक दोषों का निडर होकर पर्दाफाश करना होता है।'' ये तीनों
वही बातें हैं जिन्हें गांधी ने अपने पहले अखबार - 'इंडियन ओपिनियन' के प्रवेशांक में रेखांकित किया था।
'इंडियन ओपिनियन' के जरिए महात्मा का लक्ष्य जहाँ अंग्रेज शासकों को अश्वेत आबादी, खासकर भारतीय समुदाय की जरूरतों और इच्छाओं से अवगत कराना था, वहीं दूसरी ओर
उनका ध्येय भारतीय समुदाय के लोगों को उनकी कमियाँ और कमजोरियाँ बताना थी था। इस साप्ताहिक के प्रवेशांक में वह यह भी रेखांकित करते हैं कि ''हम यह मानने को कतई
तैयार नहीं कि यहाँ रहने वाले भारतीय लोगों की जो कमियाँ गिनाई जाती हैं, हममें वे कमियाँ नहीं हैं। जब कभी भी हमें उनकी गलती नजर आएगी हम बेहिचक उन्हें बताएँगे
ओर उन्हें दूर करने के तरीके भी सुझाएँगे।'' कहना न होगा कि गांधी अपने अखबारों और लेखन के जरिए जीवनपर्यंत यह काम करते रहे। आज की पत्रकारिता और पत्रकार
बिरादरी का बहुलांश जब अपनी कमियों-कमजोरियों की अनदेखी कर दूसरों के छिद्रान्वेषण में तल्लीन दिखाई देता है, तब गांधी की अपने भीतर झाँकने की, आत्म-मूल्यांकन
की प्रवृत्ति एक बेशकीमती पत्रकारी मूल्य बनकर उभरती है।
वस्तुतः गांधी गुजरी सदी के एक बेहद प्रभावशाली पत्रकार थे। एक ऐसे पत्रकार जिनके निर्भीक, सीधे और सरल शब्द करोड़ों लोगों के दिलों-दिमाग में सरलता से पैठ बना
लेते थे और अपने विचारों से एकमेक कर लेते थे। उनकी पत्रकारिता उनकी 'आत्मा की आवाज' थी। उन्होंने एक बार कहा कि हफ्ते-दर-हफ्ते अपने स्तंभों में मैं अपनी आत्मा
उड़ेलता जाता था ताकि अपने सिद्धांतों और सत्याग्रह के अमल के बारे में बता पाऊँ। 2 जुलाई, 1925 को 'यंग इंडिया' में उन्होंने लिखा - ''अपनी निष्ठा के प्रति
ईमानदारी बरतते हुए मैं दुर्भावना या क्रोध में कुछ भी नहीं लिख सकता। मैं निरर्थक नहीं लिख सकता। मैं केवल भावनाओं को भड़काने के लिए भी नहीं लिख सकता। लिखने के
लिए विषय और शब्दों को चुनने में मैं हफ्तों तक जो संयम बरतता हूँ, पाठक उसकी कल्पना नहीं कर सकता। मेरे लिए यह प्रशिक्षण है। इससे मैं खुद अपने भीतर झाँकने तथा
अपनी कमजोरियों को ढूँढ़ने में समर्थ हो पाता हूँ।''
अपने विचारों की प्रखरता और दृढ़ता तथा भाषा की सरलता और साफगोई की बदौलत गांधी एक सफल और पूर्णकालिक पत्रकार हो सकते थे, लेकिन हम जानते हैं कि वह केवल पत्रकार
नहीं थे। पत्रकारिता उनके सामाजिक और राजनीतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अपनाए गए अनेक उपकरणों में से एक जरूरी उपकरण था। वह कहते हैं कि ''पत्रकारिता में
मेरा क्षेत्र मात्र यहाँ तक सीमित है कि मैंने पत्रकारिता का व्यवसाय अपने जीवन के उद्देश्य को पूरा करने में एक सहायक के रूप में चुना है।''
इसके बावजूद एक सहायक विधा अथवा उपकरण के तौर पर ही सही, चालीस सालों तक गांधी ने पत्रकारिता की ओर इस अवधि में छह समाचारपत्रों का संपादन किया। इनमें से
'इंडियन ओपिनियन', जैसा मैंने आरंभ में उल्लेख किया था, चार भाषाओं में प्रकाशित होता था। 'नवजीवन' पहले मासिक के रूप में गुजराती में प्रकाशित होता था, बाद में
गांधीजी ने इसे साप्ताहिक कर दिया और हिंदी में प्रकाशित करने लगे।
'इंडियन ओपिनियन' से लेकर गांधी की पत्रकारिता के आखिर तक की यात्रा पर अगर हम सरसरी निगाह भी डालें तो कुछ बातें एकदम साफ दिखाई पड़ती हैं - (1) वह जनभाषा की,
लोगों की समझ में आने वाली और इस्तेमाल की जाने वाली भाषा की, ताकत को पहचानते थे। साथ ही वह दक्षिण अफ्रीका में समस्त भारतीय समुदाय को एकजुट करना चाहते थे
इसलिए उन्होंने 'इंडियन ओपिनियन' का प्रकाशन चार भाषाओं में किया। (2) अपनी बात वह अंग्रेज हुक्मरानों तक तथा बाहरी दुनिया तक पहुँचा सकें इसलिए हर दौर में
अंग्रेजी में एक अखबार अथवा संस्करण निकालते रहे। (3) हिंदी को वह दक्षिण अफ्रीका में भी महत्वपूर्ण मानते रहे इसलिए 'इंडियन ओपिनियन' का प्रकाशन हिंदी में भी
किया। लेकिन भारत लौटने और भारत भ्रमण के बाद उनके मन-मस्तिष्क में यह बात पुख्ता हो गई कि कोई अखिल भारतीय एक भाषा हो सकती है, तो वह हिंदी ही हो सकती है।
इसलिए अपनी मातृभाषा में निकलने वाले 'नवजीवन' को उन्होंने गुजराती के बदले हिंदी में निकालना आरंभ कर दिया। यही नहीं, उसकी बारंबारता भी चौगुनी, यानी महीने में
एक के बजाय चार अंक, कर दी।
इसके बरक्स आज की पत्रकारिता पर, अखबारों और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों पर, गौर करें। हम पाते हैं कि अखिल भारतीय किसी भाषा की इच्छा पत्रकार बिरादरी में आज प्रायः
तिरोहित हो चुकी है। अंग्रेजी पढ़ने-समझने वाले लोग देश भर में भले दो प्रतिशत हों, लेकिन उसे अखिल भारतीय स्तर पर स्थापित करने का प्रभुवर्गीय हठ बेशर्मी के साथ
बढ़ता जा रहा है। भारतीय भाषाओं में हिंदी को मित्रभाव से प्रायः नहीं देखा जाता है और यह प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है। और तो और, हिंदी की बोलियों में भी स्वयं
को स्वतंत्र भाषा के रूप में स्थापित करने ओर हिंदी को कमतर दिखाने की प्रवृत्ति बढ़ी है। बड़े व्यापारिक घरानों द्वारा संचालित अखबारों और मीडिया में हिंदी में
अँग्रेजी के शब्द घुसाने, हिंदी को हिंग्लिश बनाने की प्रवृत्ति बढ़ी है। दूसरी ओर, सर्वाधिक प्रसार संख्या का दावा करने वाले समाचारपत्रों के सबसे ज्यादा
स्थानीय संस्करण हैं। इनमें प्रायः हर जिले का पन्ना है जहाँ छपी खबर दूसरे जिले में नदारद होती है। यही हाल राज्य स्तर पर है। यानी गांधी की अखिल भारतीयता के
स्थान पर क्षेत्रीयता और आंचलिकता आज सिरमौर बनी हुई है। आज एक राज्य अपने को विशेष राज्य का दर्जा देने की माँग करता है। संविधान में नागरिकों की तरह सभी राज्य
भी बराबर हैं। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि किसी राज्य को विशेष राज्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता। किंतु इसके लिए जरूरी स्थितियाँ और विशेष कारण वहाँ वर्णित हैं।
उनकी अनदेखी कर अपनी दूसरी कमजोरियों से ध्यान बँटाने और राजनीतिक धार चढ़ाने के लिए कोई क्षेत्रीय पार्टी या उसकी सरकार इस तरह की माँग उठा सकती है, बल्कि उठाती
है और उसे अभियान की तरह चलाती है। अखबार इस तरह की माँग के औचित्य और कारणों की पड़ताल कर सकते हैं और तर्क़ व तथ्य की कसौटी पर कस कर अपनी राय और विश्लेषण पेश
कर सकते हैं। वे नीर-क्षीर विवेक का इस्तेमाल कर पाठकों को वस्तुस्थिति से अवगत करा सकते हैं लेकिन वे ऐसा नहीं करते। उनके सामने विज्ञापन की बोटी है जिसे पाने
के लिए वे काग-समाज की भांति एक सुर में काँव-काँव कर रहे होते हैं। विशेष राज्य के दर्जे की माँग करने वाले इस पिछड़े राज्य के विज्ञापन का सालाना बजट, आपको
जानकर हैरत होगी, 350 करोड़ रुपये है। यानी हर महीने लगभग 30 करोड रुपये। यह राशि राज्य के गिनती के अखबारों और चैनलों में बाँटी जाती है। अब वेतनभोगी किस
पत्रकार की हिम्मत कि करोड़ों की खैरात बाँटने वाली सरकार के खिलाफ मुँह खोले।
गांधी वेतनभोगी पत्रकार नहीं थे। वह अपने अखबारों में कोई विज्ञापन नहीं प्रकाशित करते थे। अपने पाठकों से वह चंदे और दान की माँग जरूर करते थे, लेकिन शासन
तंत्र से नहीं। इसलिए उनकी निष्ठा अपने पाठकों के प्रति थी, उस मकसद के प्रति थी जिसकी प्राप्ति का उपकरण उन्होंने पत्रकारिता को बनाया था। वह अंग्रेज लोगों के
प्रति द्वेषभाव नहीं रखते थे, इस तथ्य को उन्होंने बार-बार रेखांकित किया है। फिर भी उनकी निष्ठा भारतीय समाज के प्रति थी। इसीलिए मात्र कुछ हजार की प्रसार
संख्या वाले उनके अखबारों की प्रतीक्षा देश भर को और दुनिया भर को रहती थी। अंक आते ही समाचार एजेंसियाँ उनके लेखों को उसी दिन या अगले दिन एक साथ सभी समाचार
पत्रों को प्रेषित कर देती थीं। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी अपनी पुस्तक 'गुजरात एंड इट्स लिटरेचर' में 'नवजीवन' के प्रभाव के बारे में बताते हैं कि ''संसार में
किसी अन्य समाचार पत्र को इस प्रकार की लोकप्रियता और अपने क्षेत्र में इस प्रकार का महत्व नहीं प्राप्त हुआ होगा जितना इस छोटे, सरल समाचार पत्र को प्राप्त
हुआ। हालाँकि इस अखबार ने न तो कभी भड़काऊ खबर छापी और न ही कोई विज्ञापन प्रकाशित किया। अनेकानेक लोगों ने उपन्यास और पुराण आदि पढ़ना छोड़ इस अखबार को पढ़ना शुरू
कर दिया था। इस साप्ताहिक की एक प्रति दूर-दराज में स्थित गाँव के लिए इकलौती पत्रिका और पूरा जीवनदर्शन होती थी।''
मित्रो, गांधी बहुभाषी और बहुलतावादी भारतीय समाज की प्रकृति और उसकी संरचना को जानते थे। इसीलिए उन्होंने अपनी पत्रकारिता का इस्तेमाल इस विविधता को एकता के
सूत्र में बाँधने के लिए किया। लेकिन आज क्या हो रहा है? भाषा को जाति और धर्म से जोड़कर पहचानने की कोशिश की जा रही है। हिंदी का अखबार केवल हिंदुओं के
तीज-त्यौहार, धार्मिक आयोजनों के बारे में छापेगा, अन्य प्रमुख धर्मों के बारे में प्रायः नहीं, अथवा यदा-कदा। यही स्थिति अन्य भाषाओं के अखबारों की हो सकती है,
लेकिन उनके बारे में दावे के साथ कुछ बताने की स्थिति मेरी नहीं है। सवाल है कि समाचारपत्र घटनाओं की जानकारी देने के लिए होते हैं, न कि धर्म का प्रचार-प्रसार
करने अथवा धर्म के आधार पर द्वेष फैलाने के लिए। 1942 में एक प्रश्न का जवाब देते हुए गांधी ने कहा, ''मैं चाहता हूँ कि भारतीय प्रेस (या पत्रकार) वे काम न करें
जो उनकी अंतरात्मा की आवाज के विरुद्ध हों। राष्ट्रीय संस्थाओं और नीतियों की ईमानदारी से आलोचना करने से राष्ट्रीय हित को कभी नुकसान नहीं होगा। लेकिन
सांप्रदायिक उन्माद भड़काने के खबरों के प्रति हमें सावधान रहना है। यदि भावी आंदोलन से... लोगों के साथ सांप्रदायिक सद्भावना तथा शांति स्थापित नहीं हो पाती है,
तो इस आंदोलन का कोई अर्थ नहीं होगा।''
लेकिन आज हम क्या देखते हैं? मौका मिलते ही अखबार भावनाएँ भड़काने वाले, विद्वेष फैलाने वाले समाचार छापना शुरू कर देते हैं अथवा उस दिशा में मोड़ देते हैं। हाल
ही की एक घटना का हवाला दूँ। मुंबई हमले के मुख्य आरोपी अजमल कसाब को फाँसी की सजा दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने उसे सजा दी थी। घृणित आतंक की यह न्यायिक परिणति थी।
लेकिन उसे मृत्युदंड देने के बाद कुछ हलकों में जिस किस्म की प्रतिक्रिया हुई, लोगों ने जो उल्लास मनाया और अखबारों ने, मीडिया ने जिस तरह की कवरेज उसे दी, क्या
गांधी उसे स्वीकार करते? क्या गांधी की पत्रकारिता उसे स्वीकार करती? क्या पत्रकारिता के मानदंडों के वह अनुकूल था? शायद नहीं। क्योंकि इस तरह से खबरों को मोड़
देने से वे एक बृहत्तर भारतीय समाज को आहत कर सकती हैं, विद्वेष फैला सकती हैं। लगभग ऐसी ही स्थिति अफजल गुरू को फाँसी देने के बाद पैदा हुई। अखबार और मीडिया यह
सवाल नहीं उठाते कि पैंसठ सालों की आजादी के बाद भी हम यह स्थिति क्यों नहीं बना पाए कि आतंकी घटनाएँ हों ही नहीं? हमारा खुफिया और सुरक्षा तंत्र क्यों लचर है?
हमारी हमारी पुलिस व्यवस्था क्यों एक पूरी कौम को अपराधी और आतंकी माने बैठी है? ये सवाल पूछने के बदले वे भावनाएं भड़काने और लोगों को उकसाने का काम कर रहे हैं।
हम गांधी की बात कर रहे हैं। गांधी क्या मृत्युदंड के प्रावधान को स्वीकार कर लेते? क्या जान लेने के अलावा अपराधी को सजा देने का कोई और रास्ता नहीं है? क्या
जान ले लेने मात्र से अपराध खत्म हो जाता है? दुनिया भर में आज मृत्युदंड की व्यवस्था को खत्म किया जा रहा है। लेकिन गांधी का देश इसे समाप्त करने से इनकार कर
देता है और मीडिया में, पत्रकारों में कोई हरकत नहीं होती। मीडिया-इलेक्ट्रोनिक और प्रिन्ट दोनों-इस मुद्दे पर कोई विमर्श नहीं करता, कोई प्रतिरोध नहीं करता। 24
घंटे समाचार बाँचने वाले चैनलों के पास अनेक निरर्थक विषयों पर बहस करने के लिए समय है, लेकिन ऐसे किसी मुद्दे पर चर्चा के लिए वक्त नहीं जो न केवल गांधी बल्कि
पूरी मनुष्यता और देश की दिशा को बदल सकती है। गांधी की पत्रकारिता निश्चित रूप से इसके खिलाफ होती।
1942 में महात्मा से किए गए जिस सवाल के जवाब का अंश मैंने थोड़ी देर पहले उद्धृत किया था, उसी जवाब में महात्मा ने कहा था, ''इसकी (यानी कि प्रेस की) अंतिम
परीक्षा अभी होनी है। मुझे विश्वास है कि प्रेस निर्भीकतापूर्वक राष्ट्रीय उद्देश्य का प्रतिनिधित्व करेगा। दमन की भावना के साथ अखबार निकालने से अच्छा है कि
उन्हें निकाला ही न जाए।'' फिर थोड़ा ठहर कर आगे वह जोड़ते हैं कि ''प्रेस राष्ट्रीय हित को अपने दिलों में सँजोने वाले लोगों को... हिंसा का सहारा लेने के खतरों
के प्रति चेतावनी देगा। हिंसा से लक्ष्य की ओर बढ़ने में बाधा उत्पन्न होगी।''