ट्रेन भागी जा रही थी - खेतों, मैदानों, पहाड़ों, शहरों और गाँवों को पीछे छोड़ते। मजदूरों का एक समूह ट्रेन की जनरल बोगी में बैठा था - सहमा, सकुचा और सिमटा-सा। उनके चेहरे पर एक नामालूम-सा खौफ तारी था। एक धुकधुकी-सी चल रही थी, उनके मन में। गेट के पास मोहन बेसुध लेटा था। उसके जिस्म पर लिपटीं पट्टियाँ और उनसे झाँकतीं दवाएँ, उसे किसी हादसे का शिकार बता और जता रही थीं। सभी किसी अनिष्ट की आशंका से ग्रस्त थे। उसके पास ही उसका अधेड़ बाप भोगला बैठा था। उसकी आँखें शून्य में ताक रही थीं। मोहन रह-रहकर कराह उठता। उसकी कराहट से बोगी में एक किस्म की बेचैनी फैल जाती। इससे बचने का कोई उपाय नहीं था। इस ओर से ध्यान हटाने के लिए कई यात्री खिड़की से बाहर के नजारों में खुद को डुबो देने की कोशिश कर रहे थे।
एक सहयात्री के पूछने पर कि उसे कैसे चोट लगी? घनश्याम ने कहा, 'चैन्नई सेंट्रल पर ट्रेन पकड़ने की जल्दी में फुट ओवरब्रिज से फिसलकर गिर गया था। वहीं पास के अस्पताल में इलाज कराकर हम लोग ट्रेन में चढ़े।' शुरू में हैरत हुई उसके साथियों को, उसके इस तरह से किस्सा खड़ा करने पर। लेकिन उसकी चालाकी जल्द ही वे समझ गए। एक घायल आदमी को लेकर यात्रा करने पर तरह-तरह के सवाल पूछे जा सकते हैं, इसलिए यह कहानी उसने गढ़ी। घनश्याम अपने ग्रुप का सबसे व्यावहारिक शख्स माना जाता था। ठेकेदार भी उस पर भरोसा करता था। मूर्ति की गैर-मौजूदगी में वह सुपरवाइजर का काम भी सँभाल लेता। किसी बाहरी आदमी से बात करने में जो स्वाभाविक झिझक संथालों में होती है, वह उसमें नहीं है। यों भी वह संथाल नहीं रजक है।
ट्रेन ज्यों-ज्यों भागी जा रही थी, त्यों-त्यों मोहन की हालत खराब होती जाती। किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। सब हक्के-बक्के थे। ट्रेन में चढ़ने तक वह ठीक-ठाक था। मगर बीच में उसकी हालत बिगड़ने लगी। अभी भी तकरीबन डेढ़ दिन का फासला तय करना बाकी था। सब यही चाहते थे कि किसी तरह मोहन घर पहुँच जाए। तकलीफ उन्हें भी थी। भोगला की असहायता और बेबसी में वे भी भागीदार थे। लेकिन किया जा सकता था? किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक उसे क्या होने लगा है? चोट लगने के बाद तत्काल उसे अस्पताल ले जाया गया था। चार दिन वह भर्ती भी रहा। वहाँ वह ठीक ही दिख रहा था। दो दिन बाद तो वह बात भी करने लगा था। सुपरवाइजर मूर्ति अस्पताल आता-जाता रहा। उसी ने बताया था कि डॉक्टर ने कहा है कि, 'ले जाओ दवाई दे रहा हूँ। आराम करने पर धीरे-धीरे ठीक हो जाएगा। इसमें महीना, दो महीना भी लग सकता है।' ठेकेदार मोहन के बाप को छुट्टी देने को राजी हो गया। बाकी मजदूरों ने भी लौटने की इच्छा जताई तो वह मान गया।
अब उन्हें लगने लगा, गलत था उनका फैसला। अस्पताल में डॉक्टरों, दवा और मशीनों की मौजूदगी आश्वस्त करती थीं। यहाँ चलती ट्रेन में, न कोई जाँच करने वाला, न कोई कुछ बताने वाला है। जून की गर्मी अलग आफत मचाए हुए थी। आसमान से अंगारे बरस रहे थे। ट्रेन की छत तवे-सी तपती तो बोगी ईंट भट्ठा-सा दहकने लगी थी। गर्म हवा बदन को अलग झुलसा रही थी। बोगी में तिल रखने की भी जगह नहीं थी। उमस, गर्मी और पसीने में सने वे एक-दूसरे से सटे बैठे थे। यात्रा यंत्रणा में बदल गई थी।
किसी ने सुझाया कि किसी स्टेशन पर रुककर इसका इलाज करवा लें। पैसे की समस्या नहीं थी - हजार-दो हजार सबकी जेब में थे। सब मिलाकर उसका इलाज करवा सकते थे। पच्चीस-तीस हजार उनके पास नगद थे, इससे ज्यादा की जरूरत पड़ती तो जरूर दिक्कत होती। पर भोगला से अकेले यह सब होने से रहा। आपस में वह कितना भी बढ़ा-चढ़ाकर बातें करें पर अजनबियों के सामने उसकी घिग्घी बँध जाती है। कोई भी पहल करने से डर रहा था, क्योंकि एक तो आगे बढ़ने का मतलब था खुद भी रुकना; फिर मोहन ठीक निकला तो खर्च होनेवाले पैसों के लिए उसे बात भी सुननी पड़ सकती है। अनजान शहर में पुलिस के लफड़े में फँसने का डर अलग था। मोहन का चाचा कालीचरण भी चुप्पी साधे रहा तो कोई और क्या बोलता। मंगल सुगबुगाया तो उसके बड़े भाई टोसे ने उसका हाथ दबा दिया। भोगला के पड़ोसी सुशांतो ने दवा होने की दलील दी। घनश्याम भी एक बार दवा का असर देख लेने के पक्ष में था।
मोहन को मंगल ने दवा दी, बड़े जतन से पानी पिलाया। वह मोहन का दोस्त है। दवा से उसे आराम मिला। सीधे अस्पताल से उसे रेलवे स्टेशन लाया गया था। एलेप्पी-टाटा पकड़ने के पहले भी चार घंटों का सफर लोकल ट्रेन में वे करके आए थे। दो दफे ट्रेन में उसे चढ़ाने में भी खासी दिक्कत पेश आई। जनरल बोगी ठसाठस भरी हुई थी। काफी मशक्कत के बाद उसे गेट के पास लिटाया गया। उसके बगल में भोगला बैठा था। जो कभी उसका माथा सहलाता तो कभी गमछे से हवा करता। ट्रेन खुलने के चार-पाँच घंटे बाद ही उसकी हालत खराब होने लगी थी। उन्हें लगने लगा था कि यात्रा करने की स्थिति में मोहन नहीं था। कम से कम उन्हें रिजर्वेशन कराके ही यात्रा शुरू करनी चाहिए थी। दो पैसे बचा लेने की गरज से आदतन उन्होंने जनरल बोगी का टिकट ही ले लिया था। हालाँकि, रिजर्वेशन इतना जल्दी मिलता भी कैसे?
पोटका से आए थे 40 मजदूर। रात-दिन मेहनतकर कांचीपुरम के कलपक्कम में कई बिल्डिंगों को उन्होंने खड़ा कर दिया। ठेकेदार उनके काम से खुश था। ठेकेदार यहाँ से ही उनके अकाउंट में पैसे डालवा देता, घरवाले बैंक में पैसे आ जाने की तस्दीक फोन पर कर देते। वे भी खुश थे मजदूरी के साथ ओवर टाइम के पैसे अलग मिलते। मोहन अपने बाप के साथ आया था। दोनों बाप-बेटे जमकर खटते। तीन माह पहले जब उनमें से 27 लोग पोटका लौट रहे थे तब भी वे रुके रहे, कुछ और कमाई कर लेने के इरादे से।
अब उन्हें शक होने लगा कि उनके साथ छल हुआ है। शायद मूर्ति और ठेकेदार को पता था कि मोहन की हालत गंभीर है। फिर डॉक्टर से मूर्ति ने तमिल में क्या बात की, उन्हें क्या पता? मूर्ति ने जो बतलाया उन्होंने तो उसे ही सच मान लिया। कहीं ठेकेदार ने तो चालाकी नहीं की, मूर्ति ने भी उसके साथ मिलकर उन्हें धोखा दिया... मरणासन्न मोहन को उनके साथ भेजकर? जबकि काम अभी भी बाकी है। उन सभी को छोड़ने पर ठेकेदार इतनी जल्दी राजी क्यों हो गया? दो माह पहले वह उनके बाकी साथियों को नहीं जाने देने पर कैसे अड़ा हुआ था। उस वक्त उड़ीसा की टीम को पहले बुलाने का ख्याल उसे क्यों नहीं आया? उसके मन में यह डर रहा होगा कि मोहन मरा तो मुआवजा देना पड़ेगा। मजदूर हंगामा कर सकते हैं। थाना-पुलिस का चक्कर लगाना पड़ सकता है। विदा कर दो, रास्ते में या घर जाकर मरा तो बात दब जाएगी। तरह-तरह की आशंकाएँ उठने लगीं। मूर्ति के धोखेबाज होने का खयाल ज्यादा व्यथित करता। मुंबई में कुछ अर्सा रहकर आने की वजह से मूर्ति हिंदी बोलचाल लेता है। इसी खासियत की वजह से उसे उनका सुपरवाइजर बनाया गया था। कितना वह उनसे घुलमिल गया था। मोहन से भी वह चाँदमनी को लेकर चुहल करते रहता।
ट्रेन तेज रफ्तार से भागी जा रही थी। चाँदी-सी चमचमाती पटरियाँ पीछे छूटती जातीं। तभी ट्रेन किसी अँधेरे सुरंग में घुसी। कुछ लम्हों के लिए सबकी आँखों के आगे अंधा घटाटोप छा गया। पता नहीं मंगल को ऐसा क्यूँ एक पल के लिए लगा कि अब वे कभी इस अँधेरी खोह से बाहर नहीं निकल पाएँगे। अँधेरे में मोहन की साँसें उखड़ती जान पड़तीं। सुरंग से निकलने पर मंगल की जान में जान आई। उसके मन में अब यह आशंका उठी कि ट्रेन के पहिए थमे तो मोहन की साँसें भी थम जाएँगी। वह चाहता था, ट्रेन भागे... तेजी से भागे और उन्हें जल्द से जल्द घर पहुँचा दे।
अजीब स्थिति थी, एक तरफ यह भय था की कहीं मोहन को कुछ हो न जाए; दूसरी ओर यह यकीन भी था कि कोई अनहोनी नहीं होगी। नियति के भरोसे सब कुछ छोड़, अनिर्णय और अनिश्चय की स्थिति में दम साधे-से वे बैठे थे। अब फैसला नियति को करना था। मृत्यु इतनी असामान्य परिघटना है कि जब तक वह आ नहीं जाती तब तक उसके आने का यकीन ही नहीं होता। खुद को दिलासा देने के लिए वे यह भी मान ले रहे थे कि मूर्ति की बात सही ही हो। मोहन ठीक ही है। बस, यात्रा की परेशानियों और गर्मी से उसकी हालत बिगड़ गई है। घर पहुँचकर आराम करेगा तो ठीक हो जाएगा। यही सोचकर वे बैठे रहे। ट्रेन भागी जा रही थी जो उनके लिए इस वक्त की सबसे तसल्लीबख्स चीज थी।
धुंधलका घिरने लगा। खेतों से मवेशी लेकर चरवाहे लौट रहे थे। भोगला को अपने खेत याद आने लगे। पिछले वर्ष सुखाड़ से धान की पूरी फसल चौपट हो गई थी। इसलिए जब काम के लिए तमिलनाडु चलने का प्रस्ताव आया तो वह सहर्ष तैयार हो गया। मोहन को भी साथ ले लिया। सोचा था कि साल भर में बाप-बेटा मिलकर इतना कमा लेंगे कि अगले दो-तीन साल फसल अच्छी न हुई तो भी कोई दिक्कत नहीं होगी। इस बीच में धान हो गया तो फिर कहना ही क्या? एक यात्री उसके पास से टायलेट के लिए गुजरा। उसका ध्यान टूटा। गेट से बाहर उसकी नजर चली गई, जहाँ परती खेत फैले थे... दूर-दूर तक...
रात को मोहन एक बार फिर कराहने लगा। जिससे उसकी असह्य पीड़ा का पता चलता था। हर कराह के बाद भोगला घनश्याम की ओर बड़ी बेचैनी से देखता। घनश्याम और दूसरों के लिए भी अब ओर बर्दाश्त करना मुश्किल था। उसकी पीड़ा और भोगला के क्लेश ने सभी को विचलित कर दिया। समझदारी का घेरा तोड़कर घनश्याम फैसलाकुन स्वर में बोला, 'स्टेशन आने दो।' अगले स्टेशन में उतरकर उसे अस्पताल ले जाने का निर्णय ले लिया गया। ट्रेन पूरे रफ्तार से भाग रही थी। मंगल ने एक बार फिर मोहन को दवा दी। दवा ने असर दिखाया। उसकी तकलीफ कुछ कम हुई। सबने राहत की साँस ली। स्टेशन आया तो मोहन नींद में था, उसे जगाना उन्हें ठीक नहीं लगा। समझदारी फिर हावी हो गई। रात ट्रेन में ही गुजारकर सुबह उसकी स्थिति देख किसी स्टेशन पर उतरने का फैसला हुआ।
देर रात को टीटीई आया। टिकट चेक करते हुए उसकी नजर मोहन पर पड़ी। उसने पूछा, 'क्या हुआ है इसे?' बोगी में खामोशी छा गई। जवाब देने का साहस कोई न कर सका। सबकी नजरें घनश्याम पर गईं। वह हिचका। टीटीई ने भी खास दिलचस्पी उसमें नहीं दिखाई। वह किसी दूसरे ही हिसाब-किताब में व्यस्त था। एक घायल आदमी के गले पड़ जाने के भय से वह घबरा भी रहा था। टिकट चेक कर वह चलते बना।
यात्री नींद में था। रात की नीरवता बोगी के अंदर और बाहर फैली गई। स्याह मैदान के सुदूर छोर पर एक झोपड़ी में धुँधली-सी जर्द रोशनी चमकी। भोगला एक क्षण के लिए डरा कि कहीं हवा उस टिमटिमाती लौ को बुझा न दें। थोड़ी देर में भोगला की आँखें भी झपकने लगीं। ऐन इसी समय मोहन की साँसें डूबते लौ की तरह लड़खड़ाने लगीं। मौत को शायद इसी पल का इंतजार था। चुपके से, दबे पाँव उसने अकेले पड़ गए मोहन को दबोच लिया। वह अनंत यात्रा पर निकल गया। थोड़ी देर बाद ट्रेन की सीटी से भोगला को होश आया। अर्धनिद्रा में ही उसने मोहन के सिर पर हाथ फेरा। माथे की ठंडक उसे संदिग्ध-सी लगी। एक झटके में उसकी नींद टूट गई। उसने नाड़ी और धड़कन महसूस करने की कोशिश की। मगर जीवन का कोई चिह्न उसे नहीं मिला। उसकी अधीरता बढ़ने लगी। बदहवासी में वह मोहन के बदन को बेतहाशा टटोलने लगा। उसकी हरकतों से आस-पास बैठे मुसाफिरों की भी नींद उचट गई। उन लोगों ने भी निर्जीव देह में जीवन ढूँढ़ने की कोशिश की, लेकिन सब व्यर्थ। उसके आस-पास फुसफुसाहट शुरू हो गई। चेतनाशून्य-सा भोगला अपने बेटे के बेजान शरीर को एकटक निहार रहा था। जिसे आँसू बनकर बह जाना था वह दुख उसके भीतर बर्फ की तरह जम गया। इस ठोस सघन दुख ने उसके मन की तरलता को भी सोख लिया। कोई भाव, कोई विचार उसके मन में नहीं उठ रहा था, मन की गति ठहर गई थी। कुछ यात्री अभी भी गहरी निद्रा में थे। जो जग गए थे उन्हें भी काले घुप्प अँधेरे के सिवा कुछ नहीं दिखाई दे रहा था। बाहर फैला घना बीहड़ सन्नाटा बोगी में भी पसरा था।
धीरे-धीरे दूर क्षितिज में रोशनी का एक लाल गोला उभरने लगा। जिसकी चमक में खेत-मैदान रोशन होने लगे। धीरे-धीरे बोगी के बाहर का जनजीवन अपने रोजमर्रा की रफ्तार से संचालित होने लगा। भोगला से कोई निर्णय की उम्मीद नहीं थी। उसके साथियों को ही कुछ करना था। अभी 30-32 घंटों का सफर और तय करना था। लाश को यहाँ उतरने में दिक्कत ही दिक्कत थी। अलग से कोई गाड़ी बुक कर के शव को गाँव ले जाने में मोटा खर्चा था, जो भोगला पर दोहरी चोट साबित होता। रेल महकमे को खबर करने का भी विकल्प था। पर उसमें क्यों और कैसे जैसे सवालों का डर था। रेल पुलिस का सामना करने से भी वे डर रहे थे। कोई कुछ सलाह देकर अपनी गर्दन नहीं फँसाना चाहता था। घनश्याम भी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। इसी अनिर्णय की स्थिति में ट्रेन एक के बाद एक स्टेशनों को पीछे छोड़ती आगे बढ़ी जा रही थी। भोगला रह-रहकर मोहन का चेहरा निहार लेता। मानो, उसे अब भी उम्मीद हों कि वह अपनी आँखें खोल देगा।
मुआवजा पर भोगला का हक बनता है। आखिर, मोहन काम के दौरान ही बीस फुट ऊँचे भाड़े से गिरा था। उन्हें बहादुर की याद आ गई। पाँच साल पहले पोटका में हाइवा से गिराए जा रहे बोल्डरों से दबकर मरा था बहादुर। उसके परिजनों को मुआवजा मिला था। उन लोगों ने भी तो बाकी मजदूरों के साथ मिलकर हंगामा खड़ा कर दिया था। झारखंड मुक्ति पार्टी के नेता भी बीच में कूद पड़े थे। मुंशी ने बताया था कि नेता लोग तो पैसे लेकर मामलों को दबाने पर राजी हो गए थे। पर क्रशर के मालिक अशोक सिंह ने नेताओं के आगे हड्डी डालने की बजाय बहादुर के परिवार को ढाई लाख देकर हमेशा के लिए झंझट खत्म करना बेहतर समझा। नेताओं के मामले में कूदने से दबाव तो बना ही था। यही हादसा अगर पोटका में मोहन के साथ हुआ होता तो ठेकेदार को वे अब तक पानी पिला चुके होते। नाक रगड़कर ठेकेदार को पाँच-छह लाख मुआवजा देना पड़ता। पर कलपक्कम में अपने घर से इतने दूर उनके हाथ-पाँव बँधे थे। वहाँ कोई उनकी मदद करने वाला नहीं था। अपनी जमीन से विलगाव ने उस अदृश्य डोर को भी छिन्न-भिन्न कर दिया था, जो उन्हें एक समूह के रूप में बांधे रखती आई है। पराई जमीन पर एक साथ होकर भी वे खंड-खंड में बँटे थे। अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा वहाँ उनकी प्राथमिकता थी। हादसे के बाद किसी किस्म के मुआवजे के लिए उनमें से किसी ने मुँह नहीं खोला। कोई आगे बढ़ने का जोखिम नहीं लेना चाहता था। बहाना भी था कि बिन बोले ठेकेदार इलाज का खर्च तो उठा ही रहा है। पर, तब किसने सोचा था कि वह मर भी सकता है... और अब जब वह मर चुका है तो उनके हाथ में कुछ नहीं था।
वे डरे हुए थे - लाश को लेकर यात्रा करने पर। दुख था उसकी ऐसी मौत पर। पर राज खुल जाने के डर से वे आँसू भी नहीं बहा सकते थे। उन्होंने शव को तिरछाकर लिटाया और आधे चेहरे को गमछे से ढँक दिया, ताकि देखनेवाले को यह लगे कि वह गहरी नींद में सोया है। तमाम एहतियात के बावजूद धीरे-धीरे उनकी बोगी में बैठे बाकी मुसाफिरों को भी पता चल गया कि मोहन चल बसा। वे भी भोगला की तरह थे फटेहाल और बदहाल, दो जून की रोटी के लिए हाड़तोड़ मेहनत करनेवाले; उन्हें उसकी त्रासदी अपनी लग रही थी। उनकी मूक संवेदना भोगला के साथ थी।
सूरज सर पर चढ़ आया। ट्रेन पटरी पर दौड़ी जा रही थी। जल्द ही धीमी आँच में बोगी तपने लगी। गर्म हवा में बदन उबलने लग। पसीने से तर रेलयात्री हलकान थे। लाश के इतने करीब होने के कारण बातचीत फुसफुसाहट में ही हो रही थी। गोया, जोर से बोलने पर उसकी नींद उचट जाने का खतरा हो।
उनमें घुसुर-पुसुर शुरू हो गई कि मोहन की माँ पर क्या गुजरेगी? उसके छोटे भाई-बहन भी उसका इंतजार कर रहे होंगे। चाँदमनी पर क्या बीतेगी? मोहन और चाँदमनी दोनों एक ही ईंट भट्ठे में काम करते थे। वहीं दोनों की आँखें चार हुईं। मंगल उनका राजदार था। उनके प्रेम की सुंगध फैलते-फैलते भोगला तक भी पहुँची। कलपक्कम से भी मोहन उससे चोरी-छिपे फोन पर बातचीत करते रहता था। फसल चौपट नहीं होती तो पिछले साल ही दोनों की शादी हो जाती। भोगला तय कर चुका था दोनों की शादी लौटकर करा देगा। अब सब कुछ खत्म हो चुका था।
ट्रेन एक पुल पर से धड़धड़ाते हुए गुजरी। सूखी-सी, टेढ़ी-मेढ़ी एक नदी में कुछ बच्चे नहाते दिखे। मंगल को भ्रम हुआ कि उन बच्चों में मोहन भी शामिल है। उसके जेहन में मोहन और अपने साझा बचपन के दृश्य तैरने लगे। नाले में नहाते, मछली मारते, मुर्गे-मुर्गियों के पीछे भागते और आपस में झगड़ते। उसे लगा ट्रेन की खिड़की से ये दृश्य एक-एककर गुजर रहे हैं।
रात एक बार फिर घिर आई। बाहर दूर-दूर तक अँधेरा पसरा था। खिड़की से तेज हवा के थपेड़े अंदर आ रहे थे। दिन वाली तपिश हवा में नहीं थी। कभी-कभार दूर कहीं किसी घर में टिमटिमाती रोशनी दिख जाती। बीहड़ में किसी के बसे होने का खयाल अजीब जान पड़ता।
ट्रेन की तरह वक्त भी तेजी से भागा जा रहा था। कुछ यात्री बीच-बीच में चढ़ते-उतरते भी रहे। दूसरा दिन भी ढला। जून की तपिश झेलना बेजान जिस्म के लिए मुश्किल साबित हो रहा था। धीरे-धीरे सूरज निकल आया। सूने पड़े खेतों में मवेशी और इनसान नजर आने लगे। शव में सड़न पैदा होने लगी। बदबू फैलने लगी। कुछ या़त्री नाक-भौं सिकोड़ने लगे थे। लाश फूलने लगी। बू का तीखापन कम करने के लिए बोगी के दोनों दरवाजे और खिड़कियाँ खोल दी गईं। सुबह का समय था, ताजा हवा सुकूनदायक लग रही थी। सात घंटों का सफर अभी भी बाकी था।
दूसरा टीटीई आया। किसी ने उससे बदबू की शिकायत की थी। टीटीई ने शव को देखा। उसके चेहरे पर वितृष्णा उभर आई। 'ट्रेन में लाश लेकर जा रहे हो!' उसके स्वर में खिसियाहट थी। वे भयाक्रांत थे, मानो कोई भारी अपराध कर दिया हों। थोड़ी देर चुप्पी पसरी रही। सुशांतो आगे आया, हिम्मत बटोरकर उसने घनश्याम द्वारा गढ़े गए किस्से को टीटीई को सुनाया। अब तक नाक पर रूमाल रख चुका टीटीई बोला, 'लेकिन, लाश तो उतारनी पड़ेगी। अभी से दुर्गंध फैलने लगी है... दिन चढ़ा तो क्या होगा?' उसने स्टेशन मास्टर को इत्तला कर दी। स्टेशन मास्टर ने ट्रेन में लाश होने की सूचना रेल थाने को दी। मगर रेल पुलिस देर से हरकत में आई। ट्रेन खुल गई।
अगले स्टेशन पर रेल पुलिस का एएसआई शंकर देवगम, सिपाही द्वारिका चौबे और चार मेहतर उनका इंतजार कर रहे थे। ट्रेन के रुकते ही वे बोगी में चढ़े। लाश को मेहतरों ने स्ट्रेचर पर लादकर उतारा। इसमें उन लोगों ने भी मदद की। शंकर को आदिवासी देख वे थोड़े सहज हुए। हालाँकि, वह हो था, जबकि उनमें ज्यादतर संथाल थे। फिर भी एक आश्वस्ति तो थी ही। अपनापा कायम करने के लिए घनश्याम ने उससे बंगला में बात करने की कोशिश की। पर शंकर ढीला नहीं पड़ना चाहता था, वह हिंदी में ही पूछताछ करते रहा। रेल थाना प्रभारी सुरेश सिंह के तानों कि 'अरे आदिवसियों से भला होगी पुलिस की नौकरी... सिपाही में रोब-दाब होना चाहिए... ई साला आदिवासी रंगरूट सब, लगता है खुदे चोरी करके आया है। वर्दी का रौब-रुआब... खौफ सब खत्म कर दिया है ई लोग।' यह व्यंग्य उसके अवचेतन में गहरे पैवस्त हो गया था। अनजाने में ही वह कुछ ज्यादा ही कड़क हो गया था। हालाँकि, अपने स्वभाव के विपरीत आचरण करने के लिए उसे विशेष जोर लगाना पड़ता है।
मंगल को गुस्सा आ रहा था। यकबारगी तो गुस्से में उसने सच बता देना चाहा। वह ठेकेदार और मूर्ति द्वारा धोखा दिए जाने के खयाल से क्रुद्ध था। पुलिस के चक्कर में फँसाकर उन्हें मजा चखाना चाहता था। मगर दूसरे ही क्षण स्वयं गवाही बगैरा के चक्कर में फँसने के डर से वह सहम गया। अब तक घनश्याम फुट ओवरब्रिज वाली कहानी दोहराना शुरू कर चुका था। सब कुछ सुनने के बाद शंकर ने कहा, 'पोस्टमार्टम कराना पड़ेगा।'
लाश के साथ भोगला भी ट्रेन से उतरा। चौबे ने एक-दो और लोगों को भी रुक जाने के लिए कहा - पोस्टमार्टम में, क्रियाकर्म में मदद करने के लिए। सब एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे। घनश्याम और सुशांतो भी मुँह चुराने लगे। चौबे ने जोर दिया, 'अरे... रुक जाओ... शाम तक सब निपट जाएगा, रात वाली लोकल पकड़कर निकल जाना।' मंगल दोस्ती का हक अदा करने के लिए रुकने को तैयार हो गया। इस दफे उसने टोसे के इशारे की अनदेखी कर दी। भोगला के चचेरे भाई कालीचरण को भी ग्लानि हुई। हिम्मतकर वह भी रुक गया। ट्रेन ने सीटी बजाई। सभी बोगी में धीरे-धीरे चढ़ने लगे। वे तीनों रुक गए।
कागजी कार्रवाई पूरी करने के बाद लाश को एक रिक्शे से पोस्टमार्टम हाउस के लिए भेज दिया गया। पीछे से शंकर और चौबे आटो से उन तीनों को साथ लेकर पोस्टमार्टम हाउस पहुँचे। आटो का भाड़ा देने की बारी आई तो चौबे ने भोगला को इशारा किया। वह कुछ समझता उससे पहले शंकर ने स्वयं सौ का नोट निकालकर आटोचालक को दे दिया। मंगल ने शंकर को पैसे लौटाना चाहा। पर उसने लेने से मना कर दिया। चौबे ने शंकर को अजीब नजरों से घूरा। पुलिसिया परंपरा के विपरीत उसके आचरण से चौबे को अचंभा हुआ। अनायास चौबे की नजर भोगला के चेहरे की ओर मुड़ गई। भोगला की आँखों में उसे कुछ विचित्र-सा दिखा। विषाद या रिक्तता नहीं, कुछ ऐसा जो दिल को बेध देता था। लगता था, हृदय की अतल गहराई का निविड़ अंधकार उसकी आँखों में उतर आया हो। चौबे ने अपनी निगाह हटा ली। भोगला की आँखों में ज्यादा देर झाँकने की ताब वह नहीं ला सका। पोस्टमार्टम होने के बाद लाश को रिक्शे से ही स्टेशन के पास स्थित श्मशान भिजवा दिया गया।
चौबे भी परंपरा भंग करते हुए आटो से सीधे उन्हें लेकर श्मशान पहुँचा। इस बार आटो का भाड़ा कालीचरण ने दिया। शंकर स्टेशन में ही आटो से उतर गया था। मेहतरों ने पहले से ही एक गड्ढा खोदकर रखा था। गड्ढा बहुत गहरा नहीं था। खटका था, मिट्टी खोदकर कुत्ते लाश को बाहर न खींच लें। चौबे को गुस्सा आ गया। वह मेहतरों को गाली देने लगा। पर वह जल्द ही सँभला। डर था, अगली बार लाश आने पर वे न आएँ, आज का कसर निकालने लगे। भोगला ने जुबान नहीं खोली।
पड़ा गईता सँभाल लिया और गड्ढे में उतर गया। मेहतर एक ओर हट गए। कालीचरण भी फावड़ा उठाकर उसकी मदद करने लगा। आखिरकार, वे मजदूर थे - फावड़ा चलाने में माहिर।
चौबे को पुणे में रहकर पढ़ रहे अपने बेटे की याद जाने क्यों आज बार-बार आ रही थी? श्मशान में उसे अपने बेटे की स्मृति से घबराहट होने लगी। उसकी ओर से ध्यान हटाने के लिए वह खैनी निकालकर मलने लगा। श्मशान घाट का हालनुमा कमरा देखरेख के अभाव में भुतैला खंडहर बन चुका था। जिसके दीवारों पर कई पेड़ उग आए थे। टूटे एसबेस्टस से छनकर सूर्य की किरणें कमरे में आ रही थीं। श्मशान के पास जंगल जलेबी के कई पेड़ उगे हुए थे। पास में ही कुछ मवेशी चर रहे थे। बगल के नाले में फेनिल पानी बह रहा था। लावारिस लाशों की पनाहगाह यह श्मशान खुद उजाड़ और लावारिस-सा दिख रहा था। मोहन की किस्मत में भी यहीं दफन होना बदा था, जबकि उसका बाप उसके साथ था। पर भोगला की आवाज गुम हो गई थी। वह सुनते हुए भी नहीं सुनता था, देखते हुए नहीं देखता था। सोचने-विचारने की सलाहियत भी उसमें बाकी न थी। छोटे बच्चे की-सी उसकी स्थिति थी, जो घर से बाहर आकर बेहद डर गया हों। उससे जितना कहा जाता, बस उतना ही करते जाता है - यंत्रवत।
रिक्शावाला भी लाश लेकर आ पहुँचा। वे दोनों गड्ढे को पर्याप्त गहरा खोद चुके थे। चौबे के इशारे पर मेहतरों ने लाश को गड्ढे में उतार दिया। मंगल और कालीचरण ने फिर से फावड़ा सँभाल लिया। वे उस अभागे को अपने हाथों से मिट्टी देकर शायद कुछ राहत देना चाहते थे या समय पर उसे इलाज नहीं उपलब्ध कराने की अपनी भूल का प्रायश्चित। पास ही एक पेड़ के नीचे बैठे भोगला की निगाह से मोहन का चेहरा मिट्टी के पीछे धीरे-धीरे ओझल होने लगा। सूरज भी अपनी बची-खुची किरणें समेटने लगा था।
रात को तीनों लोकल ट्रेन में बैठे। ट्रेन चल पड़ी। दिन भर की थकान से न जाने कब उन दोनों की आँखें लग गईं। ट्रेन सरपट भागती रही - अँधेरे को चीरते हुए। भोगला भी उनींदा था। बैठे-बैठे ही थोड़ी देर में वह अर्धनिद्रा में चला गया। उसे दूर तक खेत दिखे - जिनमें धान की फसलें लहरा रही थीं। नीम बेहोशी में भी ट्रेन की गड़गड़ाहट और बोगी की हलचल उसे महसूस हो रही थी। वह खुद को आश्वस्त करता है कि मैं सोया नहीं हूँ, मेरी आँखों के सामने से धड़धड़ाते हुए गुजरते खेत हकीकत हैं। मोहन मरा नहीं है, दिन भर की सारी घटनाएँ स्वप्न मात्र थीं। मोहन मेरी बगल में अब भी सही-सलामत लेटा है। कुछ ही पलों में नींद में उसकी चेतना डूबने लगी... उसकी आँखों से आँसू रिसने लगे। लगता था, उसके भीतर कोई चीज पिघल रही है... आहिस्ते-आहिस्ते। ट्रेन भागी जा रही थी - खेतों, मैदानों, पहाड़ों, शहरों, गाँवों... और मोहन को पीछे छोड़ते।