भारत में महिलाओं के प्रश्नों का उद्भव और महिला अध्ययन की भूमिका
राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान भारत में महिलाओं से जुड़े हुए प्रश्न एक राजनीतिक प्रश्न के रूप में ठीक उसी प्रकार उभरे जिस प्रकार सांप्रदायिकता और अस्पृश्यता से जुड़े हुए प्रश्नों का उद्भव हुआ। इन प्रश्नों ने स्वतंत्र भारतीय राष्ट्र के स्वप्न को आकार देने का कार्य किया। इतिहासकारों और सामाजिक वैज्ञानिकों ने महिलाओं की समानता और असमानता के राजनीतिक पहलू पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया, जिसकी वजह से इस मुद्दे की न सिर्फ उपेक्षा हुई बल्कि इसके मूल्यांकन के तहत तमाम तरह की अस्पष्ट और गलत धारणाओं को बढ़ावा मिला। वर्तमान समय में महिला अध्ययन की प्राथमिक भूमिका इस उपेक्षा को दूर करने के लिए अनुभवजन्य साक्ष्यों को जुटाना और एक सैद्धांतिक दृष्टिकोण के माध्यम से इस मुद्दे को उचित स्थान देना है। भारत में महिला प्रश्नों के इतिहास का आरंभ सामान्यतः उन्नीसवीं शताब्दी से माना जाता है।। यद्यपि कुछ समकालीन शोध इस बहस को और प्राचीन करार देते हैं। उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय प्रेस के प्रारंभ होने के बाद महिला प्रश्नों को सामाजिक बहस के रूप में प्रमुखता मिलने लगी। सर्वप्रथम समाज सुधारकों और राष्ट्रवादियों द्वारा इस मुद्दे पर कार्य किया गया और अंततः समकालीन समय में उन लोगों ने इसका अध्ययन करने की कोशिश की जो समाज में बढ़ती असमानता, गरीबी, और बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर काम कर रहे थे। उन्नीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक से लेकर अब तक इस पूरी बहस को हम पाँच चरणों में विभाजित कर सकते हैं।
प्रथम चरण में, महिला प्रश्नों का उद्भव, नए शिक्षित मध्यम वर्ग के बीच एक प्रकार के पहचान की संकट के तौर पर हुआ। ये वो मध्यम वर्ग था जो कि औपनिवेशिक शिक्षा व्यवस्था का पहला उत्पाद था। यह वर्ग औपनिवेशिक शासकों की जीवन शैली का अनुकरण कर रहा था परंतु इस लक्ष्य प्राप्ति में वे अपनी स्त्रियों की स्थिति को एक बाधा के रूप में देख रहे थे। इसी दौरान पश्चिम के आलोचकों द्वारा हमारे तमाम रीति-रिवाजों की आलोचना भी हुई और शिक्षित मध्यम वर्ग भी इन कुरीतियों को जैसे विधवाओं के साथ किया जाने वाला व्यवहार, बाल-विवाह, महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखना, सती-प्रथा, आदि को समाज में एक धब्बे के रूप में मान रहा था। इन आलोचनाओं की वजह से इन मुद्दों को काफी गंभीरता से लिया गया। समाज सुधारकों की प्रथम पीढ़ी ने इन कुप्रथाओं को मिटाने के आम जन के बीच लगातार प्रयत्न जारी रखा। हालाँकि इनमें से कुछ सुधारक ही ऐसे थे जो पाश्चात्य संस्कृति की नकल से परे जाकर महिलाओं की अधीनता, गुलामी को अलग नजरिए से व्याख्यायित कर रहे थे। उन्नीसवीं शताब्दी की अंतिम दशकों में महिलाओ से जुड़े प्रश्न सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और पुनरुत्थानवादी रंग में रँगे नजर आए, जो पश्चिम के प्रभाव और उनके मूल्यों का जवाब देने के लिए तैयार किए गए थे। इस दृष्टिकोण को विशेष तौर पर शिक्षित युवाओं के बीच में देखा गया। सुधारवादी स्वदेशी परंपराओं को बचाने के लिए महिला शिक्षा को समर्थन दे रहे थे। वे रूढ़िवादियों की खिलाफत कर रहे थे उनका मानना था कि महिला शिक्षा के माध्यम से हम हम स्वदेशी संस्कृति को बढ़ावा दे सकते हैं जिसमें परिवार जैसी संस्थाएँ उपयोगी साबित होंगी और महिलाओं की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होगी। उनका मानना था कि महिलाओं की शिक्षा परिवार में संवादहीनता को समाप्त करने का काम करेगी। शिक्षा के माध्यम से परिवार में महिलाओं की स्थिति में सुधार होगा और वे युवाओं के मन से पाश्चत्य प्रभाव को हटाने का काम करेंगी। इस प्रकार सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों द्वारा एक नए प्रकार की अवधारणा की शुरुआत की गई, और महिलाओं के प्रश्नों को सांस्कृतिक मूल्यों के संरक्षक की अवधारणा से जोड़ दिया गया। दूसरे चरण में ही, 1890 के दौरान ज्योतिबा फुले ने अपने लेखन के माध्यम से ये बताया कैसे उच्च वर्ग के वर्चस्व और भारतीय समाज में ब्राह्मण प्रभुत्व को स्थापित रखने में महिला की अधीनता को साधन के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसी समय बी.एम. मालाबारी ने सामाजिक अभियान में प्रेस की वृहद् भूमिका को रेखांकित करने का काम किया। सर्वप्रथम टाइम्स ऑफ इंडिया के पाठकों ने उन महिलाओं की सच्ची घटनाओं और उनकी आपबीती को पढ़ा जो अपने पतियों के हाथों यातना का शिकार हुई।
तीसरे चरण में, महिला प्रश्न राष्ट्रीय आंदोलन से गुँथे हुए रूप में हमारे सामने आए। स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल मुट्ठी भर महिलाओं ने पुरुष नेताओं को चुनौती देते हुए उन्हें भी क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने की अनुमति माँगी। इस आंदोलन में बड़े पैमाने पर महिलाओं की लामबंदी और भागीदारी देखी गई एवं महिलाओं से जुड़े बुनियादी प्रश्नों को भी को उठाया गया। यद्यपि यह अचंभित करता है कि कैसे महिलाओं की समानता का अधिकार जैसा मुद्दा एक राजनितिक मुद्दे में परिवर्तित हो गया।
उन्नीसवीं शताब्दी के समाज सुधारकों द्वारा अपना ध्यान मुख्य रूप से शहरी माध्यम वर्ग की महिलाओं की समस्या तक केंद्रित रखा गया। भारतीय साहित्यकारों और पश्चिमी साहित्यकारों द्वारा भारतीय महिलाएँ चाहे वह हिंदू हो या मुस्लिम, की दबी-कुचली छवि को प्रस्तुत किया गया, लेकिन उन लाखों महिलाओं के बारे कोई चिंता नही व्यक्त की गई जो भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी की तरह थी और उन पर औपनिवेशिक व्यवस्था का अत्यंत बुरा प्रभाव पड़ा और यह प्रभाव पुरुषों की तुलना में महिलाओं पर ज्यादा पड़ा। सिर्फ बंगाल में ही सूत कातने के व्यवसाय में लगी 30 लाख महिलाएँ बुरी तरीके से प्रभावित हुईं। ये पूरी जनसंख्या की 1/5 भाग थीं। उन्नीसवीं शताब्दी तक इनकी संख्या में और बढ़ोत्तरी हुई। यही स्थिति भारत में विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत उन महिलाओं की भी थी जो सिल्क व्यवसाय एवं कुटीर उद्योगों में कार्यरत थीं। 1920 के आरंभ में सूरत में एक स्थानीय संगठन ने ग्रामद्योगों महिलाओं की गिरती आर्थिक और सामान्य स्थिति का पता लगाने का प्रयास किया। जूट उद्योग में कार्यरत 50% महिलाएँ अपने उद्योगों को छोड़कर गाँवों से आजीविका की तलाश में शहर की तरफ पलायन कर गईं। यही स्थिति उन आदिवासी महिलाओं की भी देखी गई जो चाय बागानों एवं कोयला खाद्यानों में श्रमिक के रूप में काम कर रही थीं, उनको भी पलायन का शिकार होना पड़ा।
उन्नीसवीं एवं बीसवीं शताब्दी में हुए तमाम किसान आंदोलन में महिलाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। फिर भी यह अत्यंत आश्चर्यजनक बात है कि समाज सुधारकों का ध्यान इनकी तरफ नहीं गया और ना ही यह उनके चिंता का विषय था। साथ ही, यह भी विडंबनापूर्ण बात है कि इतिहासकारों ने राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान महिलाओं की भागीदारी की प्रंशसा तो की लेकिन इसको महात्मा गांधी के चमत्कारिक व्यक्तित्व के साथ जोड़ कर ही देखा। उनसे परे जाकर महिलाओं की भागीदारी को रेखांकित नही किया। इस दौरान हुए किसान और मजदूर आंदोलनों में महिलाओं की भूमिका पर या तो बहुत कम ध्यान दिया गया या फिर ध्यान ही नही दिया गया। गांधीवादी अंतराल को छोड़ दें तो बाकि तीन चरणों में महिलाओं के प्रश्न पूरी तरीके से उनकी पारिवारिक स्थिति तक ही सीमित थे। उनकी शिक्षा तक पहुँच और कानूनी अधिकार ही महत्वपूर्ण मसले थे।
चौथा चरण आजादी के बाद की स्थिति को दर्शाता है, संविधान निर्माण के बाद काफी सारी समस्याओं का समाधान हो गया जैसे महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिला जिससे की राजनीतिक समानता की प्राप्ति हुई, सार्वजनिक सेवाओं में प्रवेश मिला, व्यवसायों आदि में भी महिलाओं को अधिकार मिला। इस दृष्टिकोण से यह समय मध्यम वर्ग की महिलाओं के लिए अत्यंत सफल रहा जिसमें महिलाएँ बड़ी संख्या में लाभान्वित हुई। इस दौरान महिला संगठनों ने भी महिलाओं की समानता और अधिकार के लिए युद्ध स्तर पर जुझारू तरीके से कार्य किया और सरकार ने भी सामाजिक कल्याण के लिए अनुदान आदि दिए। लेकिन, लगभग 20 वर्षोँ तक के लिए महिलाओं के प्रश्न सार्वजनिक क्षेत्र से गायब ही हो गए और महिलाओं से जुड़े हुए लेखन और अनुसंधान दोनों में गिरावट दर्ज की गई।
पाँचवा चरण वास्तव समाज में बढ़ रही असमानता, गरीबी और जनता के अधिकारों को लेकर एक प्रकार की असुरक्षा का दौर था। 1971-74 में गठित ‘भारत में महिलाओं की स्थिति’ का पता लगाने वाली समिति ने अपने रिपोर्ट में यह निष्कर्ष दिया कि अर्थव्यवस्था में महिलाओं की स्थिति हाशिए पर हैं। आँकड़ों के अनुसार, महिलाओं की यह स्थिति आजादी से पहले भी थी, इन परेशान करने वाला तथ्यों को कुछ अधिकारी एवं समाज वैज्ञानिकों के द्वारा भी पहचाना गया लेकिन वे इस मुद्दे की तरफ सबका ध्यान आकर्षित करने में असफल रहे। 70 के दशक में, भारत में नियोजित विकास कार्यक्रम की वजह से भारत परिवर्तन के दौर से गुजर रहा था। तमाम समाज वैज्ञानिक विभिन्न आयामों से और इन जटिल प्रक्रियाओं का विश्लेषण करने की कोशिश कर रहे थे। समिति ने अपने जनसांख्यिकीय रुझानों में पाया कि पुरुषों और महिलाओं के जीवन प्रत्याशा और मृत्यु दर में असमानता की खाईं बहुत ज्यादा हो गई थी, शिक्षा में भी असामनता पाई गई। ये सारी स्थितियाँ उन मूल्यों के विपरीत थीं जिन मूल्यों और आदर्शों के साथ हमारे सविधान निर्माताओं ने संविधान का निर्माण किया था। जिस राजनीतिक अधिकार, कानूनी समानता और शिक्षा को विश्वसनीय साधन माना गया वे सिर्फ कुछ महिलाओं तक ही सिमट कर रह गए और हाशिए पर मौजूद महिलाओं की पहुँच से बाहर ही रहे। साथ ही, पितृसत्ता ने भी पहले की अपेक्षा ज्यादा मजबूती से अपनी पकड़ बनाई। इसी दौरान समिति ने अपनी रिपोर्ट में कुछ सवाल भी पेश किए इसी दौरान महिला आंदोलन की नई लहर ने भी समाज को प्रभावित किया और आपातकाल के दौरान लोग अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति सचेत हुए। भारत महिलाओं की स्थिति के लिए गठित समिति अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चल रही बहस से अनजान थी सिर्फ समिति के चेयरमैन ही महिला आंदोलन में आंतकवादी पृष्ठभूमि से परिचित थे। रिपोर्ट के प्रकाशित होने के और ‘इंडियन कौंसिल ऑफ सोशल साइंस रिसर्च’ को बढ़ावा मिलने के बाद पहली बार महिलाओं के बारे में बेहतर जानकारी प्राप्त हो पाई। साथ ही इतिहासकारों और समाज वैज्ञानिकों द्वारा महिलाओं के बारे में उन प्रश्नों की खोज की गई जो अब तक अदृश्य थे। इसी दौरान 1977 के बाद महिलाओं के साथ हिंसा की तमाम घटनाएँ पूरे देश में घट रही थीं, जैसे कि बलात्कार, हत्या, और भी कई हिंसा वाली घटनाएँ हो रही थी जिसके खिलाफ महिलाओं में आक्रोश दिनों दिन बढ़ता जा रहा था। हालाँकि ये सब समिति के लिए एक सबूत के तौर पे तो नही दिखे लेकिन इन घटनाओं के जरिए समाज में हो रहे अवमूल्यन और हाशिए पर पड़ी महिलाओं की पहचान जरूर हो गई। इन घटनाओं के विरोध में महिलाओं ने प्रदर्शन किया और नए संगठनों का निर्माण हुआ जो कि एक प्रकार से आंदोलन का सूचक था 1977 के बाद ये आंदोलन और भी मजबूती से उभरा।
महिला प्रश्न अब सिर्फ परिवार के भीतर के मुद्दों तक ही सीमित हो गया जैसे कि परिवार में उन्हें कितना अधिकार प्राप्त है और सामाजिक स्तर पर पुरुषों के मुकाबले कितनी समानता प्राप्त है। लेकिन अगर हमें समाज में परिवर्तन चाहिए तो प्रश्नों को व्यापक स्तर पे देखना होगा आर्थिक, सामाजिक, राजनितिक, और बौद्धिक धारणा और प्रक्रिया का विश्लेषण करना होगा। इस संदर्भ में महिलाओं की शिक्षा की भूमिका को एक महत्वपूर्ण आयाम मान लिया गया है।
भारत में महिलाओं पर शोध और लेखन का बहुत पुराना इतिहास रहा है लेकिन समकालीन शैक्षणिक दुनिया इससे अनजान ही रही है। यदि हम इस विषय पर हुए लेखन की खोज करें तो हमें बौद्ध काल में जाना होगा। थेरीगाथा जो कि बौद्ध भिक्षुणियों द्वारा लिखी गई थी, के माध्यम से हमें उनके अनुभवों को जानने का अवसर मिलता है। उस समय की तमिल कविताओं (3 बी.सी.) तमिलनाडु और कर्नाटक के शिलालेख भी महिलाओं के लेखन के बारे में बताते हैं। उस समय के लोगो के लिए ये आंदोलनों को गतिशील बनाने का माध्यम थे, मध्य युग में मैसूर के महल की दासी ने एक लंबी कविता के जरिए समाज में अपनाए जा रहे दोहरे मापदंड को चुनौती दी। किसी भी इतिहासकार और भारतविदों ने भारत के अतीत की वास्तविकता का पुनःपरीक्षण करने का प्रयास नहीं किया न ही उन्हें इस पर परीक्षण करने लिए आमंत्रित किया गया। महिला प्रश्नों के आरंभिक दौर में महिलाओं पर लेखन और शोध का कार्य इतिहासकारों एवं भारतविदों के द्वारा किया गया, उन्होंने महिलाओं की पारिवारिक भूमिकाओं और समाज सुधार में परिलक्षित हुई इनकी भूमिका पर लिखे गए ग्रंथों का पुनरावलोकन किया और उसकी व्याख्या की। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के उदय ने इस नजरिए को मजबूत किया और राष्ट्रीय इतिहासकारों में एक प्रकार से होड़ सी मच गई यह बताने के लिए कि प्राचीन काल में महिलाओं की स्थिति कितनी उच्च और बेहतर थी। प्राचीन भारत के सामाजिक जीवन की व्याख्या करने के लिए उस समय के विद्वानों ने जो समझ और जिन स्रोतों का सहारा लिया उनकी सीमाएँ सिर्फ उस समय के अभिजात वर्गों तक ही सीमित थी। यहाँ तक की इन समूहों ने उन महिला लेखन पर भी कम ध्यान दिया जो महिलाओं द्वारा उनके खुद के नजरिए और उनके अनुभवों पर आधारित थी। महिला प्रश्नों पर हो रही बहस में भी पुरुषों का ही बोलबाला था। यहाँ तक की उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी के रचनात्मक लेखकों, कवियों, पत्रकारों, नाटक-लेखकों; जो महिलाओं की समस्याओं के बारे में चिंतित थे, उनका भी जोर महिलाओं की पारिवारिक भूमिका पर ज्यादा होता था। उनके केंद्र में मध्य वर्ग की महिलाएँ ही थीं न कि ग्रामीण महिलाएँ।
यद्यपि क्षेत्रीय भाषा के साहित्य में महिलाओं के नजरिए और उनकी छवि, उनके व्यवहार को अलग-अलग समय में विभिन्न प्रकार से प्रदर्शित किया गया, निःसंदेह इस पे पूरे देश में विशाल सामग्री मौजूद है लेकिन वैज्ञानिक दृष्टि से इन छवियों की पहचान या विश्लेषण करने का प्रयास नही किया गया। महिलाओं की स्थिति की जाँच करने वाली गठित समिति ने 1930 से 1970 तक की 9 भारतीय भाषाओँ में छपे साहित्य का विश्लेषण करने कई कोशिश की। इनमे से अधिकतर महिलाओं के प्रश्न आरंभिक दौर में विवाह में, शिक्षा में और सार्वजनिक जीवन में भागीदारी में असामनता और समानता पर आधारित थे, लेकिन 50 के दशक में इन चिंताओं पर कमी देखी गई। पुरुष और महिला लेखकों द्वारा महिलाओं को संबोधित समस्याओं में अभी भी मध्यम वर्ग की महिलाओं पर ही केंद्रित थी। आजादी के बाद सामाजिक वैज्ञानिक अनुसंधान में महिलाओं की शिक्षा के बारे में काफी लेखन किया गया, लेकिन संघर्षरत कामगारी महिलाओं पर और राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका के बारे में बहुत कम लेखन किया गया। साथ ही अर्थव्यवस्था और कृषि के क्षेत्र में भी महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को भी कोई महत्व नही दिया गया, इन क्षेत्रों में उनकी कार्य क्षमता में गिरावट भी दर्ज की गई। 60 के मध्य के डॉ डी. गाडगिल ने यह निष्कर्ष दिया की कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी एक प्रकार से क्षेत्रीय सांस्कृतिक विविधताओं का प्रतिबिंब थी। 70 की शुरुआत तक ये विषय किसी भी अर्थशास्त्री के जाँच के दायरे से बाहर का विषय था।
एक विषय के रूप अपने स्थापना के बाद मानव विज्ञान ने भारत में गैर मध्य वर्ग की वास्तविकता की जाँच करने की कोशिश की। मानव विज्ञान अनुसंधान में महिलाओं को काफी प्राथमिकता दी गई लेकिन उनका फोकस भी पारिवारिक अनुष्ठान, रीति-रिवाज, संपत्ति, संतान उत्पत्ति आदि महिलाओं की भूमिका तक ही था। हालाँकि इसी अवधि में सामाजिक परिवर्तन के कुछ बड़े सिद्धांतों को भी जन्म मिला। श्रीनिवास ने इसी दौरान संस्कृतिकरण का सिद्धांत प्रस्तुत किया जिसमें उन्होंने संस्कृतिकरण में महिलाओं की भूमिका को रेखांकित किया। इस सिद्धांत को एक प्रकार से महान वैधता मिली। लेकिन सामाजिक परिवर्तन के लिए फिर भी कोई वांछित प्रयास नही किया गया और न ही आबादी के एक बड़े हिस्से, जो हाशिए का शिकार थे, के लिए प्रयास किया गया। समाज में उत्पन्न हो रही नई प्रकार की समस्याओं ने महिलाओं की स्थिति को नए सिरे देखने का प्रयास किया ये कुछ प्रमुख प्रश्न थे (1) 60 के दशक में बढ़ती जनसंख्या का संकट (2) और बढ़ती जनसंख्या से गरीबी और बेरोजगारी की समस्या। बढ़ती आबादी और बेरोजगारी दोनों ने सरकार और अंतरराष्ट्रीय एजेंसीज को परिवार नियोजन के लिए कार्यक्रम बनाने के लिए आकर्षित किया। इनमें महिलाओं के शिक्षा, उनकी स्थिति, उनकी बेरोजगारी, और निर्णय निर्माण में महिलाओं की भूमिका की जाँच और गर्भनिरोधक सेवाओं की उनके तक पहुँच पर शोध किया गया। लेकिन वे महिलाओं की स्थिति और भूमिका में परिवर्तन एवं जनसंख्या के उदय में कोई संबंध स्थापित नहीं कर पाए।
1971 में बेरोजगारी प्राक्कलन करने वाली दांतेवाला समिति ने पहली बार आयु, लिंग, व्यवसाय, शहरी / ग्रामीण आवासीय आधार पर बेरोजगारी की जाँच की। बेरोजगारी प्राक्कलन करने वाली एक और समिति भागवती समिति ने प्राप्त डेटा के माध्यम से ये बताया की बेरोजगारी का प्रतिशत पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में जयादा है। वेस्ट बंगाल सेन्सस 1951 और इंडियन सेन्सस 1961 में ये दर्शया गया की अर्थव्यस्था में महिलाओं की भागीदारी में कमी आई है। लेकिन इसके बावजूद ये सामाजिक वैज्ञानिकों और नीति-निर्माताओं का ध्यान आकर्षित करने असफल रहीं। महिलाओं की समिति ने जाँच शुरू की तब ये सारी स्थितियाँ थी। समिति का मानना था की महिलाओं का राष्ट्र निर्माण में योगदान में महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए और ये तभी हो पाएगा जब हम संविधान के मूल्यों को अपनाएँ। समिति ने निष्कर्ष को काफी भयावह और परेशान करने वाला करार दिया। जनसांख्यिकीय संकेतकों ने जो रुझान दिए वो थे - (1) महिला और पुरुषों में लिंग अनुपात का स्टार में बढ़ोतरी, मृत्यु दर में चौड़ी होती खाईं, आर्थिक भागीदारी दर की में गिरावट, बढती पलायन दर, महिलाओं की निरक्षरता में बढ़ोतरी आदि।
इन तथ्यों की जाँच के बाद ये निष्कर्ष निकल के आया की महिलाओं की विकास गति बहुत धीमी है और साथ ये प्रश्न उठा की क्यों समानता के सिधांत ने समाज पे इतना कम प्रभाव छोड़ा। आखिर क्यों शैक्षणिक संस्थानों , कानूनी व्यवस्था और मीडिया समानता की संस्कृति को विकसित करने में असफल साबित हुई। क्यों राजनितिक दल और ट्रेड यूनियनों ने महिला मुद्दों और अधिकारों की उपेक्षा की। आखिर क्यों सत्ता की प्राप्ति के लिए प्रतीकों और वास्तविकता में इतनी चौड़ी खाईं दिखी। समिति ने इस विफलता की व्याख्या कुछ इस प्रकार की, (1) सभी शिक्षाविद, राजनीतिक दल, ट्रेड यूनियन ने अपनी नीतियाँ शहरी मध्य वर्ग को ध्यान में रख के बनाईं थी और यही वजह थी की महिलाओं की विविध समस्याओं के प्रति वे अज्ञानतापूर्ण व्यवहार कर रहे थे। (2) दूसरा कारण था की सामाजिक परिवर्तन और विकास के लिए जो टूल्स और तकनीक अपनाई गई वो सब उच्च औद्योगिक समाज से उधार ली गई थी, और भारत जैसे जटिल समाज के लिए उपर्युक्तनही थी, (3) महिला आंदोलन के असफल होने का कारण था की वो आंदोलन हर वर्ग की महिलाओं की समस्याओं से खुद को जोड़ नही पाया और सिर्फ एक वर्ग तक ही सीमित हो गया।
भारतीय सामाजिक अनुसंधान परिषद ने महिला अध्ययन का कार्यक्रम प्रारंभ किया और उन महत्वपूर्ण क्षेत्रों का अध्ययन करने कोशिश की जिसको समिति ने बताने का प्रयास किया था। ये कोशिश तीन प्रकार की audiences को टारगेट करके किया गया वो थे नीति-निर्माता, सामाजिक वैज्ञानिक, और सामान्य जनता। इस कार्यक्रम के उद्देश्य थे, (1) नीतियों के परिवर्तन के लिए नए डेटा की खोज, (2) सामाजिक विज्ञान में प्रयुक्त होने वाले सिद्धांत, अवधारणा आदि का पुनर्परीक्षण करना (3) और महिला प्रश्नों को पुनर्जीवित करना। मेरा मानना है की ये कार्यक्रम अपने उदेश्यों में सफल नहीं हो पाया। 1976 से भारत में महिला अध्ययन का विकास और भी बातों से प्रभावित हुआ। महिलाओं के खिलाफ अपराध को बढ़ावा मिला इसी दौरान देश में गहराता राजनीतिक संकट भी दिखा जिससे महिलाओं ने भविष्य के बारे में सोचना शुरू किया कि वे किस प्रकार का समाज अपने आने वाली पीढ़ी को देने जा रही है।
अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा भी महिलाओं की समस्याओं की चिंता ने उनके बारे में एक नई सोच को जनम दिया। पश्चिम में उग्रवादी महिला के आंदोलनों और राजनीतिक कार्यकर्ता आदि के दबाव में आकर 1975 को अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष घोषित किया गया। अंतरराष्ट्रीय दानदाता एजेंसीज भी राष्ट्रों को इस बात के लिए दबाव बना रहे थे की वे महिलाओं के विकास की लिए पहले की अपेक्षा अधिक कार्य करें और उनकी समस्याओं के प्रति संवेदनशील हों। यहाँ तक कि द्विपक्षीय सहायक एजेंसियाँ भी अपने देशों में शोध कार्य पर अधिक निवेश करने पर बल दे रहे थे। भारत में महिलाओं की स्थिति की जाँच करने वाली समिति ने जब ऐसे कठोर निष्कर्ष दिए तो तमाम समाज वैज्ञानिकों ने चेतावनी वाले लहजे में कहा कि इस तरह के निष्कर्ष हमारे लिए घातक सिद्ध होंगे और ये विकास के कार्यक्रम को प्रभावित करेंगे। सितंबर 1979 में महिला अध्ययन पर ICSSR की समिति ने रिपोर्ट प्रस्तुत किया और निष्कर्ष के तौर पर कहा कि जहाँ तीन वर्षीय इस प्रोग्राम ने नीति-निर्माताओं और सामन्य जनता पर तो प्रभाव डाला लेकिन समाज वैज्ञानिकों और शोध संस्थानों पे कोई खास प्रभाव डालने में असफल रहा। ना तो विश्वविद्यालय और ना ही किसी प्रमुख शोध संस्थानों ने महिला मुद्दे को प्रमुखता दी। इन मुद्दों के संदर्भ में बात करने के लिए हम लोगों ने निर्णय लिया कि इस पर एक बैठक होनी चाहिए और उसके परिणामस्वरूप 1981 बंबई में प्रथम महिला अध्ययन सम्मलेन हुआ। हमें वहाँ चकित करने वाली सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली। संघ की सदस्यता में 10 विश्वविद्यालय, 6 कॉलेज, 6 शोध संस्थान, 138 व्यक्तिगत तौर पर शैक्षणिक संस्थानों से लोग आए थे। इस एसोसिएशन के बाद यूजीसी ने विश्वविद्यालयओं, को इस बात के लिए ध्यान आकर्षित किया की वे महिलाओं की समस्याओं को शिक्षा और शोध गतिविधियों के माध्यम से सामने लाएँ।
बंबई में हुए प्रथम राष्ट्रीय सम्मलेन ने भारत में महिला अध्ययन के विकास के लिए एक वैकल्पिक दृष्टिकोण को सामने रखा। लेकिन सभी कार्य समूहों ने बड़ी चतुरता से महिला अध्ययन को अलग कोर्स के रूप में चलाने के विचार को खारिज कर दिया। स्पष्ट था कि सब का मत था कि भारत के संदर्भ में क्या जरूरत है स्त्री अध्ययन को अलग विषय के रूप में विकसित करने की? अलग से विषय के रूप में स्त्री अध्ययन का विचार विद्यार्थी समुदाय और संकाय समूह दोनों को ही नागवार गुजरा। स्त्री अध्ययन शब्द को लेकर लोगों के मन में तमाम तरह की दुविधा और उलझन थी कुछ लोगों का मानना था की इस शब्द से तात्पर्य है महिलाओं को अधिक व्यापक, संतुलित दृष्टिकोण से समझना (1) सामाजिक प्रक्रिया में महिलाओं के योगदान को जानना (2) महिलाओं का उनके जीवन के प्रति नजरिए को समझना, उनकी इच्छाओं को और उनके संघर्ष को जानना (3) उस सरंचना और उस जड़ को समझना जिस की वजह से महिलाएँ आज भी हाशिएपन, शोषण की शिकार है। स्त्री अध्ययन सिर्फ महिलाओं के बारे में सूचनाओं का अध्ययन नही होना चाहिए या सिर्फ संकीर्णता के साथ सिर्फ महिलाओं का अध्ययन नहीं होना चाहिए बल्कि ये सामाजिक और अकादमिक विकास के लिए एक उपकरण भी होना चाहिए। हम स्त्री अध्ययन के उद्देश्ययों को इस प्रकार भी परिभाषित कर सकते हैं - (1) महिला और पुरुषों को एक दूसरे को समझने में सहायता करे और महिलाओं की बहुआयामी भूमिका को प्रदर्शित करे। (2) सामाजिक, तकनीकी, और पर्यावरणीय प्रक्रिया को लेकर बेहतर समझ विकसित करने में योगदान कर सके (3) मानव अधिकारों में योगदान दे सकें। (4) लिंग भेद का अध्ययन करके सरंचनातमक, सांस्कृतिक, असामनता को दूर करके समाज में योगदान देना (5) वंचित तबके की महिलाओं की समस्याओं को रेखांकित करना। आज स्त्री अध्ययन पूरे शैक्षणिक व्यवस्था के सामने सवाल खड़ा करता है। अगर विश्वविद्यालय इस प्रश्न को मान्यता प्रदान करता है जिस पर कि यूजीसी भी बल दे रहा है तो महिलाओं के अध्ययन को वैधता प्राप्त होगी और समाज से पितृसत्ता को समाप्त करने में सहायता मिलेगी। लिंग-भेद की असामनता पर अध्ययन के लिए हमें राजनितिक, आर्थिक, सांस्कृतिक हर आयाम पर समग्र रूप से अध्ययन करना होगा।