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कविता

खरोंच

विशाल श्रीवास्तव


खाली रहने पर खुद ब खुद
पैर का नाखून खुरचने लगता है जमीन
बच्चे दिन भर जाने क्या इधर-उधर खुरचते रहते हैं
नन्हें नाखूनों में भरे रहते हैं
पूरे घर भर की दीवारों का शिल्प
सोचने बैठो तो एक उँगली
चुपचाप खुरचने लगती है माथे को
पिता अपने अकेलेपन में
खुरचते रहते हैं दाढ़ी की अदृश्य खूँटियाँ
माँ बढ़ाती रहती हैं अपनी चिंताएँ
पुरानी मेज पर पड़ती जातीं खरोंचों के साथ
सड़क पर गाड़ियाँ खरोंच रहीं एक दूसरे को
स्त्रियाँ सपने में अपने भय खुरच रहीं
सुंदरियाँ तमाम हिकमतों से 
खुरच रहीं अपने चेहरे का मैल
दुनिया का सबसे ताकतवर आदमी
सफाई से नक्शे से खुरच रहा है इबारतें
 
हर जगह एक स्पष्ट खरोंच बच रही है
जिसमें मरहम की जगह भर रहा है
हमारे पसीने जैसा दुर्लभ कोई तरल
इस चुनचुनाहट को हम
जीवित रहने के प्रमाण की तरह मानते हैं
 
देखो एक नई उमर का लड़का
कलाई पर खरोंच रहा है किसी लड़की का नाम
वह वाकई प्रेम के शास्त्रीय गर्व से भर रहा है।
 

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