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कविता

बड़ी होती लड़कियों के लिए शोकगीत

विशाल श्रीवास्तव


लड़कियाँ बड़ी हो जाती हैं
प्रायः कुछ जल्दबाजी में ही
वृद्धि के प्रतिमान और औसत ध्वस्त करती
सपनों की फैंटेसी में दुनिया में रेशम बुनने की उम्र 
आती हैं छोड़
बासी होती मासूमियत पर 
लावण्य का पर्दा ओढ़कर 
निर्मम दुनिया की सतह पर 
झिझक कर रख देती हैं पाँव
किसी मुश्किल मुहावरे सी होती हैं लड़कियाँ
बोलने में आसान, समझने में मुश्किल
शब्दों सी कठिन दुनिया का अभ्यास करतीं 
लड़कियाँ पर्स में बची रेजगारी से 
घर लौटने के किराये का हिसाब करती हैं
रोज अखबार पढ़ते हुए
खुद से जुड़ी खबरों को भूलने की करती हैं कोशिश
मायूसी से भरे निर्जन क्षितिज पर
उम्मीद जैसा कोई दुर्लभ शब्द तलाश करती लड़कियाँ
कितनी जल्दी बड़ी हो जाती हैं
एकदम बदल जाती हैं लड़कियाँ।
 

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