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कविता

शराबघर

विशाल श्रीवास्तव


यह शराबघर है
यहाँ दीवारों पर 
दुख किसी पक्के अनुभव की तरह बसता है
उकताए लोगों की दुनिया में
यह जगह
अँधेरे को किसी उत्सव की तरह उगाती है
 
हाँ यहीं ठीक इसी जगह
एक आदमी
इस घिसी और पुरानी मेज पर
अपनी बीवी या प्रेमिका का नाम
खुरचकर चला गया है
वह बहुत थका हुआ था
खुरच नहीं सकता था आसमान
 
एक दूसरा आदमी 
थोड़ी और पीता है
और उन बासी मगर मीठे दिनों को याद करता है
जब वह प्रेम में आकंठ डूबा हुआ था
पृथ्वी, पहाड़ और जंगल
नंगे पाँव चले आते थे उसके साथ
 
एक और आदमी
ऊबकर बाहर निकल रहा है
नीम अँधेरे में डूबी नीली सड़क पर
फैली हुई आवारा रात में शामिल हो रहा है वह 
उस आदमी से डरो मत
उसकी जेब में रिवाल्वर नहीं
एक मरी हुई औरत का फोटो है
 

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