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कविता

पैराडाइज गली के लोग

विशाल श्रीवास्तव


वह एक मशहूर गली है हमारे शहर में
अब शायद उतनी नहीं
जितनी वह रहा करती थी उन दिनों
जब हम जेबों में कंचे रखा करते थे
बहुत सारी चीजें फैली और जमी हुई थी गली में
गली रास्ते से नहीं वाकई उन चीजों से बनी थी
जैसे गली के नुक्कड़ पर सैलून हुआ करता था अख्तर चचा का
जिनकी कभी न खत्म होने वाली बातों के साथ
लगातार हिला करती थी उनकी महीन दाढ़ी
उनका अमूमन हर ग्राहक शायर होता था
दुकान की फिजाँ में तैरते रहते थे
बिखरे बालों के साथ मीर औ मोमिन के अशआर
इसी तरह एक अकेली बुढ़िया थी गली में
जो अक्सर दीवारों से बतियाया करती थी
दुख बाँटने वाली वे दीवारें अब इतिहास में भी नहीं हैं
दो बूढ़े भी स्थापत्य में शामिल थे उस गली के
वे लगातार शतरंज खेला करते थे वहाँ एकाग्र
कभी-कभी वे इतना स्थिर हो जाते थे कि 
हम यह जानने के लिए छूते थे उन्हें
कि वे वाकई जाग रहे हैं क्या
वहाँ हमारे मतलब के आदमी थे गुलशन भाई
जिनकी खटमिट्ठी गोलियों के बदले 
हम बनते थे उनकी गुलाबी चिट्ठियों के कासिद
एक बेहद बिगड़ैल आदमी भी बाशिंदा था इस गली का
जो बिगड़े साजों की मरम्मत किया करता था
वह बेहद मार्मिक धुनें बजाया करता था उन पर
गली के आखिरी छोर पर वह पुराना सिनेमाघर था
जिसके नाम पर था इस गली का नाम 
जिसमें हम बेरोक-टोक घुस जाया करते थे
संटियों और छड़ियों की मार से बेपरवाह
आज हम उसे याद करते हैं
एक धुँधले पर्दे और एक विशिष्ट गंध के लिए
 
अब भी बहुत कुछ बसता है पैराडाइज गली में
चमकदार चीजों और चमकदार लोगों के साथ
फिर भी जितना अब है
उसे कहीं ज्यादा बसा करता था उन दिनों
जब वहाँ रहते थे वे लोग
वहाँ बसती थी वह विशिष्ट गंध।
 

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