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कविता

धीमे

विशाल श्रीवास्तव


धीमे चल रही है यह दुनिया
जैसे खत्म हो गया है इसका त्वरण
चलते-चलते घिस गया है इसका उदास टायर
धीमा धीमा सब कुछ धीमा
एक बदमाश लड़का फिसल रहा पेड़ की डाल पर
छोटी लड़की कूद रही पानी में
अपनी फ्राक के घेर को दोनों हाथों से पकड़कर
एक विलंबित छप्प
धीमे से ही एक प्रेमी
फैला रहा आसमान में अपनी बाहें
पीले दुपट्टे वाली वह साँवली लड़की
देखो असीम धीमेपन से मुस्कुरा रही है
कोई कुछ कह रहा धीमे-धीमे
कोई कुछ सुन रहा धीमे-धीमे
कान में कोई शैतान कीड़ा
गुन-गुन कर रहा धीमे-धीमे
थका सूरज सरक रहा कुछ धीमा
बोझिल हवा धीमी हमेशा की तरह
यह अकेला संसार धीमा अपनी लय में
धीमेपन में हो रहे हैं युद्ध
उससे भी धीमी हो रहीं संधियाँ
सँभलने का इतना अभ्यास हमें
अपने घर में भी चलते हैं धीमे धीमे
कोई गुजर जाता है बड़ी तेजी से अचानक
ठीक हमारी बगल से
हमारे धीमे सपनों को रौंदता हुआ
अपने भारी चमड़ों के बूटों तले
अभी हम आहिस्ता से दुखी होंगे
अभी कोई धीमे से रखेगा
हमारे कंधों पर अपना गरम हाथ
 

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