बचपन में जब हारा छुआ-छुआन में
तो लगा नष्ट हो जाना चाहिए
कुछ भी तो नहीं बचा जीवन में अब
फिर हारना सीखा और शेष रहा
पिता ने जब डाँटा पहली बार
पहली बार हुई ग्लानि
जीवन लगा खाली
तब आदत डाली उसकी भी
पहली लड़की ने जब कहा सजल होकर
तुम्हें आँसुओं का रंग नहीं पता निष्ठुर
हुआ सघन दुख से पहला परिचय
तब सीखा क्या होता है टूटना
धीरे-धीरे लड़ा और लिया सारे दुखों का अनुभव
किया सारी पीड़ाओं के लिए अभ्यास
फिर खास दुख नहीं हुआ नौकरी न मिलने पर
प्रेमिकाओं की शादियों में भी सामान्य रहा
लोगों के मर जाने का भी नहीं कोई प्रभाव
सब एकदम ठीक
इन दिनों दुख में विगलित नहीं होता
शोक आस-पास नहीं जीवन के
भला लगता है हरी घास पर चित लेटना
देखना नीले आसमान को
पता नहीं क्यों इन दिनों
मर जाने का बहुत मन करता है
प्रेम और घृणा
मैंने जिन दोस्तों को प्यार किया
वे नहीं पसंद थे घर वालों को
उन्होंने उनसे घृणा की
जिन किताबों को मैं पढ़ते नहीं अघाता था
पिता खौल उठते थे उन्हें देखकर
उन्हें गणित की किताब से प्यार था
मुझे प्यार मटर-आलू से घृणा लौकी-कोंहड़े से
माँ के लिए इसका ठीक उल्टा
मुझे गुस्सा सिकड़ी, घर-घर और गुड्डा-गुड़िया से
बेतरह प्यार दीदी को इन सारे खेलों से
मुझे प्यार गेंद-बल्ले से और सबको घृणा
घोर आलोचक शिक्षक
जो कॉलेज में जो पढ़ाते थे कविताएँ
पसंद नहीं आती थीं जरा भी
जिन कविताओं को मैं पढ़ना चाहता
उन्हें नापसंद सख्त
जिन साँवली लड़कियों को मैंने प्यार किया
एक सुर से खारिज किया उन्हें घरवालों ने
इस तरह चलता रहा विपरीत
खेल घृणा और प्रेम का
मैं थक गया
मुझे समझदार होना पड़ा
इन दिनों मैं सबसे पूछ लेता हूँ
चीजों को प्यार करने से पहले