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कविता

मित्र

विशाल श्रीवास्तव


मित्र थे 
जो चुनते थे 
शर्ट की आस्तीन से अदृश्य भुनगे
कंधे से साफ करते थे धूल
ख्याल से भरकर छूते थे माथा
ध्यालन रखते थे मित्र
 
झूठ बोलकर बचाते थे मित्र
क्रूर शिक्षक और क्रुद्ध पिता से
 
मित्र थे
जिन्होंने सिखाया प्रेम करना
जो हमें चैराहों पर मिलते थे
जिनसे गलबहियाँ कर घूरते थे हम
शहर की सुंदर लड़कियों का दुपट्टा
और अकसर पीछा करते थे
गुलाबी हुड वाले रिक्शों का
 
मित्र थे
जो हमें दूर ले गए वर्जनाओं से
जिनके साथ सीखा सिगरेट पीने का हुनर
जिनके साथ हाइवे ढाबों पर छुपकर शराब पी
देखीं उनके साथ तमाम मसाला फिल्में
बहुत मौज की जिनके साथ हमने
 
मित्र थे 
जिन्होंने सिखाया क्रोध करना
जिनके लिए हम दूसरों से लड़े और वे हमारे लिए
मित्रों ने छीनी भी प्रेमिकाएँ 
तब जी भर कर गरियाया हमने उन्हें
बदले में हुआ बेशुमार गालियों का विनिमय
अद्भुत विरेचक थे हमारे मित्र
 
हमारी जरूरत थे मित्र
बहन की शादी कैसे होती उनके बिना 
कैसे होता दादी का अंतिम संस्कार
माँ की बीमारी में साथ दिया उन्होंने
पहली नौकरी पर स्टेशन छोड़ने गए मित्र
 
हमारा जीवन थे मित्र
जब गले से लगते थे 
तो जीवन मित्रता से पोसा हुआ लगता था
 
अब दूर हैं मित्र
मिलते हैं इंटरनेट के चैटरूमों में
या फोन पर बाँटते हैं दुख दर्द
पर ऐसे उनके गले नहीं लगा जा सकता
नहीं जमाया जा सकता है धौल
उनकी पीठ पर 
 
इस तरह मित्रता अब भी
बची हुई है हमारे जीवन में
पर जीवनाधार वो 
मादक यारबाशियाँ नहीं हैं
 

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