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कविता

अपभ्रंश में हँसता हुआ आदमी

विशाल श्रीवास्तव


मॉल के भीतर खड़ा वह आदमी
निखालिस अपभ्रंश में हँस रहा था
और जब हिंदी की काया में प्रवेश कर गई हों
तमाम भाषाओं की संक्रामक आत्माएँ
और चमक गया हो उसका चोला
इतना बड़ा बाजार चलता हो उसके सहारे
भयानक है न किसी का अपभ्रंश में हँसना
 
आश्चर्य की नींद में थे आस-पास के लोग
और वह आनंद के जागरण में था
बेतरतीब दाढ़ी वाला वह आदमी
पूरी तरतीब से बना रहा था अपनी खैनी 
वह उसी तरह खिला हुआ था और गंध से भरा
बादशाह की तरह जैसे प्याज रहता है 
नव्यतम व्यंजनों के बीच भी अपने पूरे ठाठ से 
 
मैंने सहमते हुए पूछा उससे 
बाबा सुनो यह कैसे कर सकते हो तुम
हँसे जा रहे हो अपभ्रंश में
जरा तो मान रखो इस सलीके भरी जगह का
 
तभी जैसे स्थगित हो गया उसका हास
कोटरों में धँसी उसकी आँखों में दिखी
उसके गाँव से आने वाली सड़क
जो अब सिर्फ उसके गाँव से शहर को आती है
लौटती नहीं है उसके गाँव को
 
उसने नहीं कहा 
कहा जैसे उसके मौन ने
मैं जानता हूँ भाई
भला इस समय में कहाँ पोसाएगी मेरी यह खैनी
मेरा यह काला छाता और यह चमरौंधा जूता
खेती-किसानी, चैती, फाग और मेला
भव्यता से भरे जीवन में 
कहाँ टिकेगा यह इतिहास का कबाड़
तो मैं आठवीं सदी में लौट रहा हूँ 
लेकर इन सारी चीजों को 
और इसीलिए निधड़क हँस रहा था अपभ्रंश में
सँभालो तुम अपनी चमकती हुई हिंदी 
और अपना दमकता हुआ बाजार
 
मुझे लगा कि जैसे नंगा खड़ा हूँ बाजार में
वहीं वह आदमी बेशर्म
लौटते हुए अवधी में रोने लगा
 

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