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कविता

शामिल बाजा

विशाल श्रीवास्तव


बैंडमास्टर के इशारों पर
एक सुर में बजते हैं
अलग–अलग ध्वनियों के बाजे
उसकी उँगलियों के निर्देश को
तकते हुए मिलाते हैं सभी ताल
और इस अनुशासन के बीच
कभी-भी पों की भारी आवाज के साथ
बज जाता है शामिल बाजा

वह कभी भी बज जाता है और
कभी भी बज जाना ही उसकी स्वतंत्रता है
ऐसा भी मान सकते हैं कि उसके बजने
न बजने से कोई फर्क नहीं पड़ता
और उसे बजाने वाले को
नहीं रहती परवाह किसी सुर की

पर सोचो तो आसान नहीं होता
समष्टि के सुर से अलग आवाज करना
कभी कभी फूँक मारो तो भी
नथुने फूलकर रह जाते हैं
साँस अवरुद्ध हो जाती है
निकल आती हैं आँखें बाहर
लेकिन नहीं निकल पाती है
एक जैसे अनुशासित बाजों के बीच
किसी तयशुदा सुर से अलहदा आवाज

बड़े खतरे भी हैं
अलग आवाज करने में
बहुत सारे बाजों के साथ बजते हुए
छिप सकती हैं छोटी-मोटी गलतियाँ
पर शामिल बाजा नहीं कर सकता है गलती
अलग बजने वाले को हमेशा ठीक बजना होता है
उसे जिनके विरुद्ध विद्रोह करना होता है
शामिल भी होना होता है
बस उन्हीं के साथ


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