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कविता

क्या हमारे भीतर कहीं आग बची है?

विशाल श्रीवास्तव


लक्षित नहीं होता है पर
जीवन के ठंडे और धूसर 
राख भरे अवसाद के नीचे
क्या हमारे भीतर कहीं आग बची है?
 
मुट्ठी की नसों को मार गया है लकवा
प्रशांत विनम्रता और धैर्य में निहुरे-निहुरे
रीढ़ में बस गया है एक नाजु़क स्थायी लोच
 
केवल जिन पर अपना बस चलता है
रात के कुछ उन बिल्कुल अपने घंटों में
अपने रोग शोक ग्रस्त सपनों में  
हम क्रांति जैसा कोई वर्जित शब्द काँखते हैं
 
हमारे जर्जर शब्दकोशों के दीमक खाए पन्नों
में प्रतिरोध जैसे तमाम शब्दों पर
गिर गई है प्रसन्न स्याही की कोई बूँद
 

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