इस वीकेंड
जब दो विश्व शांति के नोबेल विजेता
आँखें मूँदे
रंगून में चूम रहे थे एक दूसरे को
लगभग उसी वक्त गाजा की सड़कों पर
ले जाए जा रहे थे
फिलीस्तीनी झंडे में लिपटे
तीन मासूम बच्चों के शव
एक चीखती आवाज पूछती है
क्या इन्होंने दागे थे राकेट
नहीं...
जवाब देती है विलाप करती हुई भीड़
पता भी नहीं कि उनके हाथ में निवाला था
या उनकी पसंद का खिलौना
या भयाक्रांत वे गोद में थे अपनी माँ की
जब मौत उतरी उनके घर की छत पर
उसी आसमान से
जो उनके लिए आनंद और विस्मय की जगह थी
जहाँ वे इंद्रधनुष देखते थे
देखते थे चिड़ियों का उड़ना
उनकी पतंगें उड़ती थीं जिसके अनंत में
जिसके गर्भ में वे
अपनी फुटबॉल मार देना चाहते थे
आखिर कैसा लगता होगा अपनी ही जमीन पर
रहने की सजा के तौर पर मार दिया जाना
और वह भी तब जब आपको पता न हो
मौत के बारे में ठीक से
सन्नाटा पसर जाता है सड़क पर
गहरा गहरा इतना गहरा
कि चाहे तो उसमें डूबकर
आत्महत्या भी कर सकते हैं
अमेरिका और इजराइल
सन्नाटा ही नहीं
भय भी गहरा होता है आसपास
आठ साल का मोहम्मद
एक ऐसा सवाल पूछता है
अपने पिता से
जिसे दुनिया के किसी भी कोने में
आठ साल के बच्चे की ओर से
कभी नहीं पूछा जाना चाहिए
‘हम कब मारे जाएँगे?’