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कविता

तुम बुरे थे हुसैन

विशाल श्रीवास्तव


(मकबूल फिदा हुसैन के लिए)
 
तुम बुरे थे 
और ऐसा इसलिए है कि 
तुम हो उन तमाम लोगों में से एक 
निरापद और सुरक्षित है जिन्हें बुरा कहना
 
जैसे यह इतना भी आसान नहीं है
कि चौदह साल के गुमशुदा 
पारसी लड़के की ओर से
भारत के सबसे प्रगतिशील राज्य
के मुख्यमंत्री को थोड़ा बुरा कहा जा सके
जब वह नरसंहार के दस साल पूरे होने
पर सद्भाव का अनुष्ठान करता हुआ
मंत्र की तरह बुदबुदाता है कि
गुजरात जैसी शांति कहीं नहीं है
 
इसलिए भी आसान है तुम्हें बुरा कहना
कि तुम कलात्मक रूप से आकर्षित थे
एक अभिनेत्री के नितंबों के सौष्ठव पर
तुम चाहते तो 
मेरे मोहल्ले के मौलाना की तरह
पवित्र बने रह सकते थे
लाड़ जताने के बहाने
एक हाथ में तस्बीह पकड़े पकड़े
चौदह साला लड़कियों को कौली में
भर लेने की अपनी आदत के बावजूद
 
वैसे भी हमारी पुरानी आदत है कि 
हम भाषा में तो क्षमा करते हैं
पर रेखाओं में नहीं और इसीलिए
हमने वात्स्यायन, कालिदास और विद्यापति
को तो क्षमा कर दिया पर तुम्हें कैसे करते
और वैसे भी तुम्हारी ठुड्डी पर दाढ़ी होते हुए
तुमने हिमाकत कर दी दैवीय नग्नता के प्रकाशन की
जो अजंता एलोरा और खजुराहो भर में रहती तो ठीक था
 
जब हमारी देश–भाषा में भगवा की चकाचौंध थी
तुम डूबे थे नीले और धूसर रंगों के खिलवाड़ में
तुम गए तो जैसे
चमक गए हमारे पवित्र त्रिशूल 
और मंदिरों के स्वर्णकलश
बच गई हमारी मिट्टी 
तुम्हारी बुराई को दफन करने से
 
आखिरकार महान है हमारा देश
उसके हृदय में कैसे हो सकती है जगह
तनिक भी बुरेपन के लिए
 

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