खुले गगन में जिंदा हूँ मैं,
इक आजाद परिंदा हूँ मैं।
लंबी-लंबी अपनी राहें,
उड़ूँ हवा में खोले बाँहें।
घूमूँ टहलूँ जाऊँ कहीं भी,
उछलूँ नाचूँ, गाऊँ कहीं भी।
किसी तरह का भी ना डर है,
सारी दुनिया अपना घर है।
कभी दूर तो कभी बगल में,
कभी झोपड़ी कभी महल में।
मंदिर-मस्जिद व गुरद्वारे,
नदी, समंदर, झील किनारे।
कभी लोटता रहूँ रेत में,
कभी खेलता फिरूँ खेत में।
पर्वत की चोटी को छूलूँ,
मस्त पवन के झूले झूलूँ।
बाग-बगीचों में मैं जाऊँ,
अपनी मर्जी के फल खाऊँ।
झरने का मीठा जल पीता,
इसी तरह मैं हर दिन जीता