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बाल साहित्य

शहरी बस

शादाब आलम


दिनभर दौड़ लगाया करती
है सड़कों पर शहरी बस।

सड़क किनारे लगी कतारें
बेसब्री से सभी निहारें।
शुरू हो गया धक्कम-धक्का
जैसे आकर ठहरी बस।

लोग ठसा-ठस भरे हुए हैं
कुछ बैठे कुछ खड़े हुए हैं।
गड्ढा आया, झूल उठें सब
ज्यों थोड़ी सी लहरी बस।

जितने मुँह उतनी हैं बातें
बातों में रस्ते कट जाते।
राय-मशवरे, वाद-विवादों
से बन पड़ी कचहरी बस।

आँधी-अंधड़, सर्द हवाएँ
इस पर रोब दिखा न पाएँ
लू की लपटें, भीषण गर्मी
सहती कड़ी दुपहरी बस।


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हिंदी समय में शादाब आलम की रचनाएँ