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कविता

बचपन की कविता

मंगलेश डबराल


जैसे जैसे हम बड़े होते हैं लगता है हम बचपन के बहुत करीब हैं। हम अपने बचपन का अनुकरण करते हैं। जरा देर में तुनकते हैं और जरा देर में खुश हो उठते हैं। खिलौनों की दूकान के सामने देर तक खड़े रहते हैं। जहाँ जहाँ ताले लगे हैं हमारी उत्सुक आँखें जानना चाहती हैं कि वहाँ क्या होगा। सुबह हम आश्चर्य से चारों ओर देखते हैं जैसे पहली बार देख रहे हों।

हम तुरंत अपने बचपन में पहुँचना चाहते हैं। लेकिन वहाँ का कोई नक्शा हमारे पास नहीं है। वह किसी पहेली जैसा बेहद उलझा हुआ रास्ता है। अक्सर धुएँ से भरा हुआ। उसके अंत में एक गुफा है जहाँ एक राक्षस रहता है। कभी कभी वहाँ घर से भागा हुआ कोई लड़का छिपा होता है। वहाँ सख्त चट्टानें और काँच के टुकड़े हैं छोटे छोटे पैरों के आसपास।

घर के लोग हमें बार बार बुलाते हैं। हम उन्हें चिट्ठियाँ लिखते हैं। आ रहे हैं आ रहे हैं आएँगे हम जल्दी।


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हिंदी समय में मंगलेश डबराल की रचनाएँ