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कविता

पिता की स्मॄति में

मंगलेश डबराल


दवाओं की शीशियाँ खाली पड़ी हैं लिफाफे फटे हुए हैं चिट्ठियाँ पढ़ी जा चुकी हैं अब तुम दहलीज पर बैठे इंतजार नहीं करते बिस्तर में सिकुड़े नहीं पड़े रहते सुबह उठकर दरवाजे नहीं खोलते तुम हवा पानी और धूल के अदृश्य दरवाजों को खोलते हुए किसी पहाड़ नदी और तारों की ओर चले गए हो खुद एक पहाड़ एक नदी एक तारा बनने के लिए।

तुम कितनी आसानी से शब्दों के भीतर आ जाते थे। दुबली सूखती तुन्हारी काया में दर्द का अंत नहीं था और उम्मीद अंत तक बची हुई थी। धीरे-धीरे टूटती दीवारों के बीच तुम पत्थरों की अमरता खोज लेते थे। खाली डिब्बों फटी हुई किताबों और घुन लगी चीजों में जो जीवन बचा हुआ था उस पर तुम्हें विश्वास था। जब मैं लौटता तुम उनमें अपना दुख छिपा लेते थे। सारी लड़ाई तुम लड़ते थे जीतता सिर्फ मैं था।


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