इस इलाके को खजूर बागान क्यों कहते हैं? क्या यहाँ खजूर के पेड़ थे बहुत से, पहले?, यह पूछने पर पचास-पचपन के अमलेंदु बनिक मुझे एक ओर ले जाकर सड़क पार का वह
छोटा-सा सरोवर दिखाते हैं, जिसे खजूर के पेड़ों ने घेर रखा है। फिर कहते हैं, देखिए न अभी भी हैं, पर, पहले और ज्यादा रहे होंगे। बात आपकी सच है, तभी न पड़ा है
नाम खजूर बागान। अमलेंदु, सिक्यूरिटी गार्ड हैं। बांग्ला भाषी हैं। उनसे मेरी बातचीत बांग्ला में ही हो रही है। यों भी, बांग्ला ही तो त्रिपुरा की भाषा है, दिन
भर वही सुन और दिख पड़ती है। आदिवासी जरूर अभी भी अपनी भाषा - काकबारोक - का इस्तेमाल करते हैं। पता चला कुछ अध्यनशील बांग्लाभाषी भी अब काकबारोक के
'पुनरुद्धार' में जुटे हैं। काकबारोक में समकालीन साहित्य भी लिखा जा रहा है। अगरतला का यह टूरिज्म अतिथि गृह काफी बड़ा है। खुला परिसर है। नाम है, 'गीतांजलि'
पास ही राजकीय अतिथि गृह है, 'सोनार तरी' नाम का। दोनों नाम, जाहिर है, रवींद्रनाथ ठाकुर की कृतियों से ही लिये गए हैं। अगरतला और त्रिपुरा से रवींद्रनाथ का
संबंध प्रगाढ़ था। वह त्रिपुरा राज परिवार के चार पीढ़ियों तक के सदस्यों के अंतरंग रहे थे। राज परिवार, संपत्ति के विवादों तक में उनका मुँह जोहता था। जब पिछली
बार त्रिपुरा आया था तब वह 'मालंच भवन' भी देखा था, जहाँ वह अक्सर ठहरा करते थे। मेरी पिछली यात्रा को कई बरस हो गए। फिर से, वह भवन देखने की इच्छा है। अमलेंदु
से पूछता हूँ, यहाँ से मालंच भवन कितनी दूर है! वह कहते हैं 'बेशी दूरे नाय। आपनी हेटेउ जेते पारेन।' (ज्यादा दूर नहीं है। आप पैदल भी जा सकते हैं) जिस उत्साह
से अमलेंदु ने 'मालंच भवन' का रास्ता बताया है, उससे यही लगता है कि उस भवन के महत्व से वह परिचित हैं। रवींद्रनाथ की मूर्तियाँ हैं, चौक चौराहों में, दीवारें
भी कहीं कहीं उनकी मुखाकृति से चित्रांकित हैं।
आज तो नहीं अब कल मालंच भवन की ओर जाऊँगा। देख रहा हूँ, अभी साढ़े छह बजे हैं, पर दिन चढ़ आया है। सूरज तेज है। त्वचा में धूप की चुभन-सी है। पूर्वोत्तर में
सूरज जल्दी उगता है। कहीं कहीं तो चार-साढ़े चार बजे ही प्रकाश फैल जाता है। दूसरे दिन भी उठने में थोड़ी देर हो गई है। सो, सैर के लिए तो निकलता हूँ, पर, मालंच
भवन की ओर जाना नहीं हो पाता। उस सड़क पर टहलता जरूर हूँ जो मालंच भवन की ओर जाती है। यह 'गीतांजलि' के पिछवाड़े की ओर ही है। रास्ते में बाँस वृक्ष हैं। अन्य
कई सघन वृक्ष भी। एक 'आरण्यक' अनुभूति है। अगरतला में आम के पेड़ हैं, उनमें बौर हैं। पर, लीची के वृक्ष भी कई हैं, जिनकी बौरों को देखकर, दूर से, कोई भ्रम में
पड़ जा सकता है, कि यह आम है या लीची। अनंतर जिस दोपहर को दिल्ली की फ्लाइट पकड़ने के लिए एयरपोर्ट जा रहा था तो युवा गाड़ी चालक शुभंकर ने एक लीची बागान की ओर
इशारा करते हुए कहा था, जो नहीं जानते वे इसे आम का बागान समझ बैठते हैं। वास्तव में एक गहरा साम्य तो है। मैंने पूछा था, त्रिपुरा तो रबर प्लांट के लिए भी जाना
जाता है, क्या शहर में भी रबर के पेड़ हैं? तो उसकी ओर से जवाब आया था कि नहीं शहर में तो नहीं हैं, न ही एयरपोर्ट के इस रास्ते में, पर, अगर आप बांग्लादेश
बार्डर की ओर जाने वाली सड़क पर जाएँ तो वे दिख जाएँगे। अगरतला शहर से बांग्ला-देश बार्डर बस तीन-चार किलोमीटर ही तो है। जो भी हो, अगरतला अभी उन शहरों में है,
जहाँ, जिस ओर भी आप नजर उठाएँ, कुछ पेड़-पौधे जरूर मिलेंगे। और उसके छोटे-पक्के घरों की इमारतों के भीतर से भी वे झाँक ही उठते हैं। अभी बहुमंजिली इमारतों के
'रोग' से अगरतला ग्रस्त नहीं हुआ है, गनीमत है।
त्रिपुरा इस बार संगीत नाटक अकादेमी द्वारा आयोजित 'नाट्य समागम' के प्रसंग से आना हुआ है, जो नजरुल कलाक्षेत्र में हो रहा है। कल रतन थियाम निर्देशित मैकबेथ की
अपूर्व प्रस्तुति देखी है। आगे भी बहुत कुछ देखने सुनने को है। कई नाटक हैं। बंगाल का बाउल, आंध्र की हरिकथा, मणिपुरी 'वारी लिबा' कथा गायन, आल्हा-गायन आदि के
भी कार्यक्रम हैं। नजरुल कला क्षेत्र के परिसर में शाम होते ही भीड़ जुट जानी है, लोकनर्तक-वादक अपने कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं। रंग-बिरंगे बल्ब जल उठते हैं
दिल्ली के कलाकार भुनेश्वर भास्कर के घट-संस्थापन को लोग दिलचस्पी से देखते हैं। अगरतला के कुंभकारों के विभिन्न आकारों वाले मिट्टी के घड़ों को मुखौटों/बिजूकों
की शक्ल देकर, भुनेश्वर ने एक सरसता और 'कौतुक' की सृष्टि की है। परिसर में कई तरह की तरंगें व्याप्त हो जाती हैं। इस परिसर में एक ओर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय
की एक प्रशिक्षण-शाखा है, एक वर्ष के सर्टिफिकेट कोर्स वाली, जिसमें, प्रशीक्षार्थियों को इस तरह ट्रेन किया जाता है कि आगे चलकर वे स्वयं स्कूलों और
शिक्षण-संस्थाओं में रंगकर्म की दीक्षा दे सकें। संगीत नाटक अकादेमी का त्रिपुरा-केंद्र भी खुल गया है। यहीं साहित्य अकादेमी और नेशनल बुक ट्रस्ट के पुस्तक
केंद्र भी हैं। नजरुल की मूर्ति है। निश्चय ही यह एक भरा पूरा परिसर है।
एक दोपहर अगरतला की एक बड़ी पुस्तक दुकान 'बुक वर्ल्ड' में जाता हूँ। उसके मालिक देबानंद दास से भेंट करके अच्छा लगता है। प्रकाशक भी हैं। साहित्य प्रेमी। उनसे
आग्रह करता हूँ कि अगरतला के स्थानीय बांग्ला लेखकों कवियों से मेरी भेंट का कोई प्रसंग बना दें। वे सहर्ष अगले दिन रतन देव बर्मन, मीनाक्षी भट्टाचार्य, संध्या
भौमिक, रत्ना मजुमदार आदि को दुकान में ही आमंत्रित कर लेते हैं। एक गोष्ठी ही तो जम जाती है। मेरी बातचीत सबसे बांग्ला में ही होती है। रवींद्रनाथ, जीवनानंद
दास, शंख घोष आदि के काव्य-प्रसंग सहज ही आ जाते हैं। कविताएँ सुनी-सुनाई जाती हैं। मीनाक्षी भट्टाचार्य रवींद्रनाथ की कविता 'साधारण में' (सामान्य लड़की) की
बड़ी सुंदर आवृत्ति भी करती हैं। चाय और 'संदेश' आदि मिष्टानों के साथ पुस्तकें भेंट में मिलती हैं। भेंट होती है अरुणोदय साहा से, जो त्रिपुरा विश्वविद्यालय के
पूर्व उपकुलपति हैं। अतुल प्रसाद की जीवनी भी उन्होंने लिखी है, जिसमें स्वभावतः रवींद्रनाथ ठाकुर से जुड़े कई प्रसंग हैं। नाम है 'नींद नाहिं आँखिपाते' (आँखों
में नींद नहीं)। अगरतला की, खजूर बागान इलाके की, वहाँ की सांस्कृतिक दुनिया की याद अब वर्षों बनी रहने वाली है।