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कहानी

दिल की इक आवाज ऊपर उठती हुई...

मुकेश वर्मा


तीन सौ सड़सठवीं मंजिल से गिरते हुए जब वह अपने होश-हवास पर कुछ काबू कर पाया तो उसने देखा कि वह नीचे गिरता ही जा रहा है। वह मदद के लिए उस बड़ी इमारत के सामने चिल्‍लाया लेकिन ऊपर के कई माले हमेशा की तरह सख्‍त बंद हैं। मकानों की दरारों में से रह-रह कर सिगरेट का धुआँ और शराब की गंध लापरवाही से निकल रही है।

अपने जिस्‍म को पत्‍थर की तरह ठीक सीधे और नीचे ही नीचे जाते देखते हुए उसके दिमाग में सिर्फ मदद... मदद की एक ही आवाज गूँज रही है। उसे तीन सौ पाँचवीं मंजिल के टैरिस पर एक हैरतजदा आदमी दिखाई पड़ा। उसने हाथ फैलाकर कहा - ‘मैं नीचे गिरता जा रहा हूँ, बताओ मैं क्‍या करूँ..․ मेरी मदद करो।' टैरिस पर सकपकाया खड़ा आदमी अकबका गया और लगभग हकलाते हुए चिल्‍लाया - ‘अरे रुको... क्‍या करते हो... मर जाओगे... मैं फिर कहता हूँ कि... वहीं रुक जाओ...'

गिरता हुआ वह झल्‍लाना नहीं भूला, ‘मालूम है... मुझसे बेहतर कौन जान सकता है... स्‍साले...। लेकिन तब तक वह दो सौ अठासी नंबर के फ्‍लैट के करीब पहुँच गया है। उसने फिर मदद की गुहार की। दरवाजे पर एक चुस्‍त-दुरुस्‍त बदगुमान शख्स पतलून की जेबों में हाथ घुसेड़े उसे ताक रहा है। उसने तेज आवाज में पूछा, ‘क्‍या है रे, काय को चिल्‍लाता है? क्‍या नाम है तेरा? काय को कूँदा? भीख माँगने का नवा तरीका निकाला है? दो लात देऊँगा तो और फटाफट नीचे पहुँचेंगा...

उसने चाहा कि रुककर वह इस बदतमीज आदमी से निपट ले लेकिन उसे अपनी हालत का ध्‍यान आया। उसने खुद ही कुछ करने में दिमाग लगाया। जब वह फ्‍लैट नं․ 259 के पास से निकला तो उसने बिना देखे कहा - ‘भाई, मैं नीचे गिरता जा रहा हूँ... हालाँकि जमीन पर हरा लॉन है लेकिन फिर भी चोट तो लगेगी... अब मुझे जरा जल्‍दी से बताओ कि... गिरते वक्‍त मेरा सही पॉस्‍चर क्‍या रहे... कि पैरों को सीधा रखूँ... या सिर को हाथों से थामे रहूँ... ताकि चोट खतरनाक न बन सके...' फ्‍लैट की खिड़की से आसमान को घूरता एक मनहूस और बेरोजगार नौजवान उसे देख बहुत दिनों बाद आश्‍चर्य-चकित हुआ और हँसने लगा। फिर यकायक चौंककर बोला - ‘भाई साब, आप कहाँ नौकरी करते थे... जगह बताओगे...? टेंपरेरी या परमानेंट... मुझे ज्‍यादा फर्क नहीं पड़ेगा...'

दुनिया से एक बार फिर दुखी होकर, अब उसने कभी कहीं पढ़े गए योग के बारे में सोचा। यदि वह श्‍वास को रोक लेने का अभ्‍यास करे या फेफड़ों में से हवा निकाल ले तो... क्‍या शरीर हल्‍का होकर फूल की तरह आहिस्‍ते से जमीन पर रख जाएगा... क्‍या ऐसा हो सकता है? ...ऐसा न हो कि फूल जैसा हल्‍का, होकर वह इमारत के किसी खतरनाक कोने से टकरा कर छार-छार हो जावे... हाथ पाँव टूटे तो भी चल जाएगा लेकिन... कहीं जान से हाथ धोना पड़ा तो...' यह ‘तो' इतना बड़ा बनकर उसके सामने आया कि इस बार वह फूट-फूटकर रोने लगा।

कुछ बच्‍चे, बचपन और जवानी की सरहद पर खड़े फ्‍लैट नं․ 226 के तंग बरामदे में कौन सा खेल खेलें, इस बात को लेकर झगड़ रहे हैं। एक भर आवाज चीखा...

‘सुपरमैन... सुपरमैन...'

‘इसकी लाल चड्ढी कहाँ है...?

‘हवा में... कहाँ गया...?'

‘नीचे... भई नीचे...!' कोरस में आनंद के स्‍वर गूँज उठे।

‘सुपरमैन... सुपरमैन... ऽऽऽ...

इस क्षण वह फ्‍लैट नं․ 203 के सामने से गिरता हुआ गिरता गया। दीवार पर लटके काँच में सूरत निहारता एक अधेड़ शेविंग कर रहा है। देखकर उसने दाढ़ी पर चिपका साबुन पोंछा और जोर से हँसा और जोर-जोर से हाथ हिलाने लगा। गिरते आदमी ने फिर वही पूछना चाहा लेकिन वह हाथ ही हिलाता रहा। यकायक उसने पूछा - ‘कैसे गिरे... अचानक... खुली खिड़की से? ...और जोर से खिड़की बंद कर ली।

वह अभी भी हवा में है। बेचैन है। उसके शरीर का क्‍या पॉस्‍चर होना चाहिए, वह समझ नहीं पा रहा है। उसने बड़ी अजीजी से उस फ्‍लैट को देखा जिसके बाथरूम की बाहर वाली निकपाट खिड़की चौपट खुली है।

‘...बेशर्म ...गुंडे ...बदमाश...'

टॉवल की ओर लपकती औरत मुँह खोलकर चीखी। खिड़की से नीचे देखती औरत का मुँह खुला का खुला रह गया।

उसके भाग्‍य का गुंडा बदमाश फ्‍लैट नं․ 178 के पास फड़फड़ा रहा है।

सामने ड्राइंगरूम में तीन लोग बैठे और एक खड़ा व्‍हिस्‍की पी रहा है। एक चिल्‍लाया - ‘देख, क्‍या सीन है...! सबकी आँखें उसी तरफ मुड़ गईं।

‘...क्‍या कहता है... आओ सट्‌टा लगावें... आसमान से उतरा फरिश्‍ता या अंतरिक्ष से आया चोर... लगाते हैं... फरिश्‍ते पर एक के चार... चोर पर एक के आठ... माल निकाल... जल्‍दी बे...

फ्‍लैट नं․ 149 के किचन में आटा गूँथती काली औरत ने कहा - ...एक वो है जो ऊपर से कूद पड़ा और ...एक तुम हो निठल्‍ले... निकम्‍मे... काम के न काज के... दुश्‍मन अनाज के... मैं नौकरी न करूँ तो भूखे मर जाओ... उसे देखो... और कुछ शर्म करो...। उसने दरवाजे से नीचे गिरते आदमी को एक बार देखा और चुप बैठा रहा। जब गिरते आदमी ने उसे देखा, तब भी वह उसी तरह चुप बैठा रहा। औरत के अधिक बड़बड़ाने पर वह चुप उठा। चप्‍पलें पैरों में फँसाकर बाहर निकल आया और आदतन सीढ़ियाँ उतरने लगा। नीचे उतरते हुए ऐसा लगा कि वह नीचे गिर रहा है। उसने जेब ढूँढ़ी लेकिन आखिरी बीड़ी वहाँ भी नहीं है।

उस वक्‍त फ्‍लैट नं․ 118 के बाजू से वह गुजर रहा है जिसके टैरिस में दर्जनों कैक्‍टस के गमलों के बीच से पीले पत्तों वाली एक बेल दीवार दरके कोने से बार-बार बाहर उमड़ रही है। अस्‍त-व्‍यस्‍त मोटी औरत ने लगभग कान खींचते हुए लड़के को बुरी तरह से डपटा।

‘...छोड़... छोड़... उसने देखा... दरवाजा भी ठीक से बंद नहीं करता... हाय रे... वह नीचे गिरा जा रहा है... उसने देख लिया... जरूर देखा होगा...'

लड़के ने ढीठता से कहा - ‘...किसने देखा...?'

पसरी औरत बेदम हाँफ रही है।

...उसने ...और किसने... अरे वो मुआ... जो नीचे गिरा जा रहा है... लड़के ने हाथों में ताकत भरी और गिचगिचा कर बोला - ‘कौन गिरा... आप तो मुझे देखो कि आपके लिए मैं कितना नीचे गिर सकता हूँ...' कहते हुए मनीबैग से फूली और तीन जगह से उधड़ी चितकबरी पैंट पाँव से परे ठेल दी।

फ्‍लैट नं․ 94 के बूढ़े ने उसे बहुत पहिले से देख लिया। फर्क केवल इतना रहा कि वे उसे चिड़िया समझकर खुशी-खुशी सोच रहे थे कि आकाश में अभी भी चिड़िया हैं। लेकिन उनकी बत्तीसी निपक कर बाहर आने को हुई जब उन्‍हें कुछ-कुछ आभासित हो सका कि इतनी बड़ी तो चिड़िया नहीं हो सकती। ऐनक लगाकर वे सप्रमाण जान पाए कि कमबख्त यह तो आदमी है, बेकार ही नीचे को भागा जा रहा है। रेलिंग से सटी कुर्सी पर फिर लेटते हुए वे बुदबुदाए - ‘आह! जवानी की मौज भी क्‍या होती है... जमीन आसमान सब एक हो जाता है... कहीं भी चले जाओ... ऊपर नीचे, दाएँ-बाएँ, चारों दिशाएँ... सभी सनसनाती... तब कुछ भी गजब करने का मन होता था... अब न उम्र रही और... न कोई गजब हुआ... अब तो देखने से भी डर लगता है...।' उन्‍होंने टटोल कर गोली खाई और आसमान से मुँह फेरकर करवट बदल ली।

जिस दम वह फ्‍लैट नं․ 72 के नजदीक पहुँच रहा है। उसके भीतर के हॉल में पहिले से कुछ परेशान हाल लोग आपस में उलझ रहे हैं। उन्‍हें कुछ सूझ नहीं रहा है। तभी जिसने उसे देखा, उसके साथ कई और लोग समवेत भी चिल्‍लाए। ‘...वह... वह... देखो... देखो... कैसे... हाँ... गजब... एकदम... फाइन यार․..' उनमें से सिर खुजलाता आदमी जिसने सबसे बाद में देखा, मुँह फाड़कर आया और सबसे आगे हो गया। ‘...अरे  ...हाँ...।'

उसकी हाँ इतनी बड़ी और लंबी हुई कि उसमें सबकी हाँ घुस गई और दूर तक और देर तक फैली रही। ‘...आइडिया... हाँ... आइडिया... ऐइटाइ तो आमी खूंजछिलाम... आर ऐइटाइ पालामछिलम ना... आखिर आश्‍मान से टोपका... छोप्‍पर फोड़ के...'

सब लोग उसके चारों ओर इकट्‌ठा हो गए।

‘...दादा... की भालो...???'

‘...अपुन को एकटो नोइ आइडिया आई... अपुन को बीमा के बारे में एड फिलिम कोरबो... तो ...शूनो... आमार कंपनी की महिमा... जार लाइफ का बीमा कराया, ओ आदमी... 300वीं मंजिल से नैचूँ को कूदा... बूझले तो न... अमार कंपनी सच ए फॉस्‍ट... के श्‍शाला जब वो 200वीं मंजिल पे पौंचा तो कंपनी ने क्‍लेम का चेक हाथ में पोकरा दिया... व्‍ही ऑर फास्‍ट, व्‍ही ऑर अहैड द शाला टाइम... है न'  ...आइडिया... एकदम नोइ...।'

यह दुनिया का नियम है कि जो नीचे गिरता है, वह गिरता ही जाता है। प्रकृति भी इसमें आड़े नहीं आती बल्‍कि अपनी सारी गुरुत्‍वाकर्षण शक्‍ति के साथ जुट जाती है। वह फ्‍लैट नं․ 28 के सामने रुकना चाहता है। लेकिन बावजूद हरचंद कोशिशों के रुकना हो नहीं पा रहा है। उस फ्‍लैट की तीसरी खिड़की से निकला एक कोमल कमजोर हाथ उसे रोकना चाह रहा है लेकिन रोक पाना नहीं हो रहा है।

यूँ तो बड़ा कहा जाता है कि प्‍यार में बड़ी ताकत होती है। आज यह कहना बेकार सिद्ध हुआ कि गिरने से प्‍यार रोक सकता है अलबत्ता कारण जरूर बन सकता है। बात सिर्फ इतना भर नहीं बल्‍कि आगे यह भी जताया जाता है कि दुनिया की कोई ताकत किसी को गिरने से रोक नहीं सकती। लेकिन केवल लेखक ही है जो यह कमाल दिखा सकता है, भले ही कागज के मैदान में और कलम के माथे पर भल-भल स्‍याही बहाता हुआ...।

...और ऐसा हुआ भी। हुआ यह कि फ्‍लैट नं․ 23 से नीचे आते-आते वह हरे लॉन तक आ ही गया। पके आम सा टपका। धम्‍म्‌ की इक आवाज, वह भी हल्‍की सी। धूल झाड़ी। उठ कर चल दिया, इस बार भी बिना बताए कि अब कहाँ जा रहा है। आप कहेंगे कि ऐसे कैसे??? लेकिन आप भी तो दिल ही दिल में चाहते यही थे... तो अब क्‍यों कैसे-कैसे की रट लगा रखी है?

अगर दिल की बात पूरी हो जाए तो भला आपको क्‍या और क्‍यों कर आपत्ति होना चाहिए...!!!


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