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व्यंग्य

प्रसून जी को श्रद्धांजलि

गोविंद सेन


‘प्रसून जी नहीं रहे!’ निर्गुण साहित्यिक संस्था के गुणी सचिव श्री विश्वमोहन दीप ने संस्था के अध्यक्ष और प्रवक्ता को अवगत कराया। फलतः सचिव के साथ अध्यक्ष और प्रवक्ता गमगीन हो गए। ताबड़तोड़ एक बैठक आयोजित कर दुख का दावानल संस्था के हर सदस्य तक पहुँचाया गया। तय हुआ कि स्थानीय रामाजी के बाग में देश के ख्यातनाम कवि को श्रद्धांजलि अर्पित की जाएगी। उसी दिन महीनों से विलंबित दाल-बाफला पार्टी भी होगी। सबको श्रद्धांजलि के साथ दाल-बाफला पार्टी की बात खूब पसंद आयी। प्रवक्ता के मार्गदर्शन में सचिव ने फटाफट समाचार बनाया। आखिर नगर में सबको पता तो चलना चाहिए कि निर्गुण प्रसून जी को श्रद्धांजलि अर्पित कर रही है। हवा तो बननी चाहिए। हाँ, दाल-बफला पार्टी वाली बात समाचार में जरूर विलोपित कर दी गई।

श्रद्धांजलि के दिन रामाजी के बाग में रोचक दृश्य उपस्थित था। एक पेड़ के नीचे अधेड़ वय की दो कवयित्रियाँ चटकीले रंग के कपड़े पहने विराजित थीं। एक कवयित्री की आँखों पर आकर्षक फ्रेम वाला चश्मा चढ़ा था। उसके कटे बाल हवा में किसी पक्षी के पर की तरह फड़फड़ा रहे थे। इन्हें गजलें लिखने का शौक है। तरन्नुम में गातीं भी हैं। हालाँकि इन्हें मतला, मक्ता, बहर वगैरह का कोई इल्म नहीं है। गजल में उर्दू के ऐसे कठिन शब्दों का प्रयोग करती हैं जिनका अर्थ इन्हें खुद मालूम नहीं होता। फिर भी भाई लोग इन्हें ‘कोकिल कंठी’ कह-कहकर फुलाते ही रहते हैं। बेचारी फुलते-फुलते बेडौलाकार हो चुकी हैं। बहरहाल, दोनों कवयित्रियों का सर्वाधिक उपयोग सरस्वती वंदना और चंदा वसूलने के लिए होता था।

कवियों के छोटे-छोटे समूह बाग को रौंदते हुए घूम रहे थे। रेडीमेड डाल-बाफला भी आ चुके थे। बस नगर की नाक तोपचंद जी की प्रतीक्षा की जा रही थी क्योंकि उन्हीं की अध्यक्षता में श्रद्धांजलि कार्यक्रम होना था।

तभी किसी ने अंताक्षरी की शुरुआत कर दी। फिर क्या था, सब अंताक्षरी में रम गए। कोई फटी आवाज में गाता - ‘पहला-पहला प्यार है - पहली-पहली बार है...’ कोई और गला फाड़कर गाने लगता - ‘कहो ना प्यार है...’ ऐसे ही प्यारे गाने पेश किए जा रहे थे। खूब हँसी ठट्ठा होता रहा।

इसी बीच तोपचंद जी का आगमन हो गया। जैसा कि हर नेक अध्यक्ष करता है, उन्होंने विलंब से आने के लिए क्षमा माँगी। हालाँकि कवि बंधुओं को उनका आना रंग में भंग डालने जैसा लगा। खैर, अंताक्षरी कार्यक्रम अब कवि-गोष्ठी में बदल गया। सबने अपनी-अपनी भड़ास निकालनी शुरू की। वीर रस के कवि ने खूब हाथ-पैर झटक-झटक कविता सुनाई, मानो वह प्रसव वेदना से छटपटा रहा हो। हास्य रस के कवि की कविता सुन सभी गंभीर हो गए। सचिव ने नथुने फुला-फुलाकर ‘पिता’ शीर्षक से एक ऐसी कविता का पाठ किया जिसे केवल ‘परम पिता’ ही समझ पाए। जो-जो कवि कविता सुना चुके थे, वे एक-एक करके इधर-उधर खिसकने लगे। अंतिम कवि को सुनने वाला कोई न बचा।

सहसा अध्यक्ष को अपने कर्तव्य का भान हुआ। उन्होंने सभी कवियों को हाँक लगाई। उन्होंने सबको याद दिलाया कि आज हम यहाँ प्रसून जी को श्रद्धांजलि देने के लिए इकट्ठा हुए हैं। सबको याद हो आया और सबने गमगीन होकर पुनः जाजम पर आसन ग्रहण किया। संस्था के अध्यक्ष ने संचालक का काम स्वयं अपने हाथों में लेते हुए श्री तोपचंद जी से अध्यक्ष पद का आसन ग्रहण करने की गुज़ारिश की। उन्होंने थोड़ी हिचक का प्रदर्शन कर अध्यक्ष का पद ग्रहण कर लिया। अध्यक्ष, सचिव और प्रवक्ता ने अपने-अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित किए। बहरहाल सचिव के श्रद्धा-सुमन सबसे प्रभावी थे। उन्होंने प्रसून जी के बारे में जो-जो अखबार में पढ़ा था, सब उगल दिया। उन्होंने यह भी बताया कि प्रसून जी से उनके व्यक्तिगत संबंध भी थे। यह एकदम मौलिक खबर थी, अखबार में से नहीं टीपी थी। इस सनसनीखेज खबर को भी सब हजम कर गए। अंत में दो मिनट का मौन रखा गया। मौन में सबकी आँखों के सामने बाफले और लड्डू नाच रहे थे।

सबकी भूख चरमोत्कर्ष पर पहुँच चुकी थी। सभी दाल-बाफला और लड्डू पर गिद्धों की तरह टूट पड़े। कुछ कलमवीरों में तो अधिकाधिक लड्डू खाने की होड़ तक लगी।

श्रद्धांजलि का समाचार तीसरे दिन ही अखबार में लग गया। अध्यक्ष, सचिव और प्रवक्ता तीनों खुश थे क्योंकि उनके नाम प्रमुखता से छपे थे। अध्यक्ष ने सचिव की मुक्तकंठ से प्रशंसा की कि उन्होंने अंताक्षरी, श्रद्धांजलि और पिकनिक पार्टी सबको एक साथ निपटा दिया।

उधर ऊपर प्रसून जी की आत्मा को अपार कष्ट हो रहा था। उनकी आत्मा को समझ में नहीं आ रहा था कि इन कवि जैसे दिखने वाले बंधुओं ने उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की या उनका नुक्ता [मृत्यु-भोज] किया। लेकिन प्रसून जी तो अब दुनियावी मामलों में दखल देने के काबिल न थे। बस छटपटा कर रह गए।


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