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व्यंग्य

किंतु परंतु लेकिन

सुशील सिद्धार्थ


एक गजलकार ने पूरी मशक्कत के बाद खतरा उठाकर परिणाम घोषित कर ही दिया। उसके अनुसार कल चौदहवीं की पूरी रात व्योमविमर्श होता रहा। अंत में एकमत से सहमति बनी कि इस मामले में अनेक हो सकते हैं लेकिन फिलहाल दो मत हैं। पहला, यह जो आसमान में लटका है चाँद है। दूसरा, यह तेरा नामक किसी का चेहरा है जिसकी वजह से जाने कितने लोग लटक गए हैं। यह तो एक शहर का नतीजा है। हर शहर का अपना चाँद है। अपने अपने चिंतक। सबका मालिक एक है लेकिन एक मालिक के व्यापारी अनेक। हर सौदागर अपने हिस्से में आए मालिक को पकड़ कर लटक रहा है। लटका हुआ कोई तो बहस की बाँसुरी बजा रहा है। कोई आरोप की आसावरी अलाप रहा है।

नतीजतन देश में एक लटकपंथ ही निर्मित हो गया है। यह पंथ हमारी जीवन पद्धति का हिस्सा है। संशय, भ्रम, असमंजस, ऊहापोह, संदेह, शायद, किंतु परंतु, हालाँकि, क्या पता, फिर भी आदि बुद्धिजयी शब्द न हों तो एक कालजयी भारतीय तो जीना ही भूल जाए। कहा भी है, लीक छाँड़ि जग में चलैं। तो लीक छोड़ दी, जो गली मिली उसी में घुस गए। सवाल पूरब का जवाब पश्चिम का। सवाल, सांप्रदायिकता बढ़ रही है। जवाब, गोमाता को राष्ट्रमाता घोषित करवाना है। यानी जो अपनी माता को माता का सम्मान देने से कई बार कतराते हैं वे घोषणा के लिए जूझ रहे हैं। वैसे, यह तो घोषित होना ही चाहिए। हमारी जनसंस्कृति में प्राणवायु की तरह शामिल माँ की गाली वाले देश में गो माँ का सम्मान नहीं होगा तो कहाँ होगा।

हम भाव और भावताव में भेद न करने वाले अद्भुत जीव हैं। धारा के विपरीत तैरना ही वीरता है। हम वीर हैं। तैरने से पहले धारा से कह जाते हैं कि हम तैर तो रहे हैं, बाकी बुरा न मानना। जब तुम कहोगी तब तुम्हारे चरणों में हाथ पाँव धर देंगे। इन बातों के लिए हम बहुत रियाज करते हैं। कोई भी बात शुरू होते ही उल्टी खोपड़ी में चले जाने का हमारा रियाज पक्का है। आपके क से कबूतर है तो हमारे क से कौआ होना है। तुम्हारे द से देश है तो उनके द से द्रोह होना ही है। यह है रियाज। सामंतवादी दिलबहलाव, दर्शन और लंठपने में इस रियाज का महत्व सब जानते हैं। जैसे दोपहर में आलीशान दस्तरख्वान, खान, पान, गान के बाद जमुहाई लेते हुए अकबर महान का फरमान कि बीरबल, हम कहते हैं अभी दिन है। क्या तुम कुछ और साबित कर सकते हो। बस। बीरबल बैठ गए करघे पर। लगे तर्क कातने। और साबित कर दिया कि सौ फीसदी रात है। जो है वह तो है ही, जो नहीं है उसे साबित करना ही एक बुद्धिमान का कर्तव्य है। दर्शन का मामला तो कहना ही क्या। खाए अघाए लोग अंगड़ाई ले रहे हैं। पंडत बतलाओ तो परमात्मा है कि नहीं। पंडत ने तमाम शास्त्रों के हवाले से महत्वपूर्ण बात कही कि हे आचार्य, है भी और नहीं भी। आप कहो तो 'है' पर लग जाऊँ। आप कहो तो 'नहीं है' पर आहुतियाँ देने लगूँ। सब नेति नेति है। एक हमारे आपके जैसे ने डरते डरते कहा कि गुरू, अगर अंत में नेति नेति ही कहना था तो शुरू में कह देते।

शास्त्र तत्काल शस्त्र में बदल गया। निशाना लगाया। रे मूर्ख, टाइम पास करना भी तो जीवन का धर्म है। समस्याएँ कम हैं और समय बहुत। अच्छा बता रोटी कपड़ा मकान सुरक्षा इनसाफ जैसी गिनी चुनी बातें हैं जो समस्याओं की जड़ हैं। अगर हम सोचने वाले एकमत होकर सोचने लगें तो एकाध साल में कोई दिक्कत ही न रहे। इनके समाधान मिलने लगें। फिर? तब? तब हमारे समाज की महान प्रतिभाएँ क्या घास छीलेंगी! इसलिए हम ऐसे विचार करते हैं कि वह अचार में बदल जाए। हम चिंतन का लट्ठ लेकर किसी के भी आगे तन कर खड़े हो जाते हैं। यही एक जिम्मेदार बुद्धिजीवी की पहचान है। और भी पेंच हैं। गेंद एक खिलाड़ी असंख्य। हम एक गेंद से अनेक गेंदें तैयार करते हैं। यही अनेकता में एकता है। तब खेल शुरू होता है। उदाहरण देता हूँ। भूख एक गेंद है। अब अनेक होंगी। सवर्ण भूख, दलित भूख, आदिवासी भूख, अल्पसंख्यक भूख, शहरी भूख, शिक्षित भूख, अशिक्षित भूख आदि। आत्महत्या एक है। इसकी गेंदें कई। दलित आत्महत्या, सवर्ण आत्महत्या। बस फिर क्या, सब उतर पड़े मैदानों में। तूने किसी महाकवि की यह अमर कविता नहीं सुनी क्या। समय बिताने के लिए करना है कुछ काम, शुरू करो अंत्याक्षरी लेकर हरि का नाम। चिंतन यानी करना है कुछ काम। हम परिणाम की चिंता नहीं करते। ससुरा कभी न निकले। बस हरि का नाम लेकर लगे हैं। यही कम है क्या। इसके बाद शास्त्र ने देर तक धिक्कारते हुए प्रवचन दिया। या प्रवचन देते हुए धिक्कारा। तब मुझे बोध हुआ कि क्रोध ही विवेक का जनक है।

अब रही लंठई। इसमें तो चाँद चेहरा छाप चिंतन ही जीने का आधार है। बस कूद पड़ना है। हाहाकार मचाकर बंदर कूद पड़ा लंका के अंदर। न सुनना, न देखना, न जानना। बस लपक लेना। यह लपकपंथ है। इस पंथ के चिंतकों के लिए तुलसीदास बहुत पहले लिख गए हैं - साखामृग कै बड़ि मनुसाई, साखा ते साखा पर जाई। बंदर को कहीं पहुँचना नहीं होता। वह एक शाखा छोड़कर दूसरी लपक लेता है। दूसरी के बाद तीसरी। ज्ञान की बहुतेरी शाखाएँ हैं। हर शाखा के अपने अपने कपि हैं। यद्यपि हैं। तथापि हैं। इसलिए स्वाभाविक है शाखाप्रेमी अधिकतर या पेशेवर चिंतकों को किसी हल तक नहीं पहुँचना होता। कोई सोचते सोचते ऊबकर पहुँचना भी चाहे तो अन्य जिम्मेदार सोचक डपट देते हैं। कि किसी चिंतन में न जल्दी करो। न सहमत हो। अद्भुत रूप से यह परंपरा समाज की शोभा बनी हुई है ।

होती होगी किसी बात या बहस की सीमा वीमा। अब तो हालत यह है कि अगर कोई कहे कि हमें अपने देश की रक्षा करनी है तो विचार चिरने लगेंगे। चिंतन महत्वपूर्ण स्थानों से फटने लगेगा। और फिर शुरू। क्यों करनी है, ऐसा सोचना दूसरे मुल्क पर शक करना है। दुश्मन से भूल हो गई होगी कि सीमा पर हमारे कुछ जवानों को गोली लग गई। वे शस्त्रों की इबादत कर रहे होंगे। इतनी सी बात। अरे हमारे पास जवानों की कमी है क्या। आखिर शहीद होने का प्रशिक्षण भी तो जारी रखना है।

ऐसे चिंतकों में एक ने तो पिछले दिनों नैतिकता का प्रतिमान रखा। चिंतक अपने पिताजी के साथ कहीं जा रहे थे। एक उदीयमान उत्सुक सामने से आ गया। उत्सुक ने पूछा कि क्या यही आपके प्रगतिशील पिता हैं? चिंतक ने पिता को देखा। गौर से देखा। फिर कहा, कह नहीं सकता। मैं कागद की लेखी पर भरोसा नहीं करता। और आँखिन देखी की संभावना नहीं थी। उत्सुक आगे बढ़ा। लेकिन यह आपकी माँ के पति तो हैं ना! चिंतक बोले, यह आप माँ से पूछिए। यह भी जान लेना जरूरी है कि जो किसी का पति है वह किसी का पिता भी हो यह अनिवार्य नहीं। पिताजी शुद्ध ब्लडप्रेशर के मरीज थे। इस चिंतन के बाद उच्च रक्तचाप की उच्च स्थिति पर पहुँच कर चिंतक को उच्चतम अति शुद्ध भजन सुनाए। आखिरी समाचार मिलने तक अस्पताल में हैं। माँ तीरथ करने निकल गई हैं। इस चिंतन को नमन।

एक कहावत पहले समझ में नहीं आई थी - बहुत जोगी मठ उजाड़। अब आ रही है। हर मठ में मट्ठा तैयार हो रहा है कि अगले किसी मठ की जड़ों में उतार देना है। मठ की उपलब्धि शठ है, शठ की उपलब्धि हठ है। हठ यह कि कबड्डी ही चिंतन है। लंगड़ी मारना संवाद है। हूतूतू शब्दावली है। पटक देना तर्क है। दबोचना प्रभावित करना है। दूसरे का दम निकालना ही दमदार होना है। और मानना तो है ही नहीं। चाँद और चेहरा गए भाड़ में। हमें किंतु परंतु लेकिन की चाँदनी का कारोबार करना है।


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