श्री कुबेरनाथ राय की ख्याति एक ललित निबंधकार के रूप में रही है। उनकी चर्चा अक्सर ललित निबंध की प्रस्थान-त्रयी की एक कड़ी के रूप में करते हुए खत्म हो जाती
है। लेकिन सच इसके विपरीत है। उनका लेखन बहुआयामी और अत्यंत समृद्ध है। भारत की तासीर को समझने के लिए श्री राय का लेखन अत्यंत महत्वपूर्ण दस्तावेज है। उनके
लेखन से गुजरते हुए अक्सर लगता है जैसे हम अपने पूर्वजो से सीधे बातचीत कर रहे हैं। आज भारतीयता को लेकर खूब चर्चा हो रही है। श्री राय एक ऐसे लेखक रहे हैं
जिनके लेखन का उद्देश्य ही रहा है भारत को समझना। इसके लिए उन्होंने अनेक सूत्र हमको उपलब्ध कराए हैं। दरअसल भारतीयता को समझने के लिए 'भारतीय मानस' को समझना
जरूरी है। यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें अनुसंधान और चिंतन बहुत कम हुआ है। आज जब देश में विघटनमूलक और विच्छिन्नतावादी राजनीति अपना रूप बदल-बदलकर सक्रिय है, तब
इस पर गहन चिंतन-मनन की आवश्यकता और बढ़ जाती है।
भारतीयता पर विचार करते हुए गांधीवादी चिंतक श्री कुबेरनाथ राय एक साथ अनेक प्रश्न उठाते हैं : 'भारतीयता क्या है? इसका ढाँचा कैसा है? इसकी परिभाषा क्या है?
इसकी आवश्यकता क्या है? इसकी पहचान कैसे की जाए? भारत से हम कैसे जुड़ सकते हैं? हम जानते हैं कि ये प्रश्न नए नहीं हैं। पर ये प्रश्न इसलिए जरूरी हैं कि
इन्होंने हमारी कई पीढ़ियों को उद्वेलित किया है और आज भी इस पर बहस जारी है। किंतु किसी निश्चयात्मक उत्तर तक हम नहीं पहुँच पाए हैं। शायद पहुँचा भी नहीं जा
सकता है - "भारतीय संस्कृति या भारतीयता क्या है? यह एक 'अति प्रश्न' (चरम प्रश्न) है। 'अति प्रश्न' का उत्तर परिभाषित करना संभव नहीं। जहाँ परिभाषा संभव नहीं,
वहाँ एक मात्र समाधान है 'पहचान' बनाना।" (मराल, पृ.160)। इस उद्घोष के साथ ही श्री कुबेरनाथ राय लेखन क्षेत्र में उतरते हैं और न केवल उतरते हैं अपितु इसकी
पहचान की तलाश में गंगातीरी/भोजपुरी इलाके से लगायत ईशान कोण से प्रवहमान ब्रह्मपुत्र और काजीरंगा तक की यात्रा करते/कराते हैं।
कुबेरनाथ राय अपने लेखन-उद्देश्य के प्रति सतत जागरूक रहे हैं - ''सच तो यह है कि मेरा संपूर्ण साहित्य या तो क्रोध है, नहीं तो अंतर का हाहाकार। पर इस क्रोध और
आर्तनाद को मैंने सारे हिंदुस्तान के क्रोध और आर्तनाद के रूप में देखा है। इन निबंधों को लिखते समय मुझे सदैव अनुभव होता रहा : 'अहं भारतोऽस्मि'।" (रस-आखेटक,
पृ.195) अपने एक निबंध संग्रह के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं - "निषाद-बाँसुरी' संग्रह का एक गौण उद्देश्य यह भी है : भारतीयता का प्रत्यभिज्ञान,
अर्थात भारत की सही 'आइडेंटिटी' का पुनराविष्कार, जिससे वे जो कई हजार वर्षों से आत्महीनता की तमसा में आबद्ध रहे हैं...।''(निषाद बाँसुरी, पृ.244) श्री राय
अपने संपूर्ण लेखन में सर्वत्र भारतीयता की जमीन पर मुरेठा बाँधे हुए लउर पर ठुड्डी टिकाए हुए नजर आते हैं। यहीं से उनकी अनिमेष लोचन-दृष्टि भारतीयता के
गुणसूत्रों की तलाश करती है - "जिस 'भारत' की बात मेरे संपूर्ण साहित्य में आती गई है वह है इस देश का 'चिन्मय' और 'मनोमय' संस्करण। वह चिन्मय और मनोमय रूप किसी
प्रकार की क्षुद्रता और संकीर्णता से ऊपर है। शिवत्व, बुद्धत्व, रामत्व ही इसके प्रतीक हैं।" (मराल,पृ 168)
श्री राय की नजर में यह 'भारतीयता' किसी एक की बपौती नहीं अपितु 'संयुक्त उत्तराधिकार' है। और इस उत्तराधिकार के रचयिता सिर्फ आर्य ही नहीं रहे हैं। वस्तुतः
आर्यों के नेतृत्व में इस संयुक्त उत्तराधिकार की रचना द्राविड़-निषाद-किरात ने की है। ग्राम-संस्कृति और कृषि-सभ्यता का बीजारोपण और विकास निषाद द्वारा हुआ है।
नगर सभ्यता, कला-शिल्प, ध्यान-धारणा, भक्तियोग के पीछे द्राविड़ मन है। आरण्यक शिल्प और कला-संस्कारों में किरातों का योगदान है। श्री राय के लिए 'भारतीयता' कोई
अमूर्त अथवा यूटोपिया नहीं है अपितु प्रत्यक्ष सगुण रूप है - "मुझसे जब कोई पूछता है कि 'भारतीयता क्या है' तो मैं इसका एक शब्द में उत्तर देता हूँ, वह शब्द है
'रामत्व' - राम जैसा होना ही सही ढंग की भारतीयता है। हमारे युग में भी एक पुरुष ऐसा हो गया था जिसने राम जैसा होने की चेष्टा की और बहुत कुछ सफल भी रहा। वह
पुरुष था महात्मा गांधी।" (त्रेता का वृहत्साम, पृ.165)। श्री राय के लिए 'भारत' कोई 'मानसिक भोग' या 'भौगोलिक सत्ता' नहीं है। यह उससे बढ़कर 'एक प्रकाशमय,
संगीतमय भाव-प्रत्यय या चैतन्य-प्रतिमा का रूप' तो है ही 'अधिक सत्य एवं शाश्वत' भी है। (कामधेनु, पृ.90) श्री राय का आग्रह है कि - 'भारत' को मात्र एक राजनीतिक
और भौगोलिक इकाई के रूप में न देखकर उसे भारतीय मनुष्य, भारतीय धरती और भारतीय संस्कार के त्रिक के रूप में देखना चाहिए। एक राजनीतिक इकाई मात्र मान लेने से
'भारत' का अस्तित्व एक मतदाता सूची में बदल जाता है। एक भौगोलिक इकाई मात्र स्वीकार कर लेने पर उसका बँटवारा हो सकता है। पर एक संस्कार समूह और बोध सत्ता के रूप
मे उसका विशिष्ट निराकार रूप कालजयी है - "भारत की यह निराकार मूर्ति (अर्थात 'संस्कार समूह' के रूप में) सूक्ष्मतर होने की वजह से अधिक कालजयी है। कोई जवाहरलाल
या कोई जिन्ना इसका 'पार्टीशन' या बंदर-बाँट नहीं कर सकता।" (कामधेनु, पृ.90)। गांधी ने भी 'हिंद-स्वराज' में इसी बात को थोड़ा और गर्वीले भाव में कहा है -
'हिंदुस्तान को बहुत से अक्ल देने वाले आए और गए पर हिंदुस्तान जस का तस रहा'। अपने एक अन्य निबंध संग्रह 'मराल' में श्री राय 'भारतीयता' को और भी स्पष्ट करते
हैं - "अतः 'राम' शब्द के मर्म को पहचानने का अर्थ है भारतीयता के सारे स्तरों के आदर्श रूप को पहचानना... सही भारतीयता क्षुद्र, संकीर्ण राष्ट्रीयता के दंभ से
बिल्कुल अलग तथ्य है। यह 'सर्वोत्तम मनुष्यत्व' है। पूर्ण 'भारतीय' बनने का अर्थ है 'राम' जैसा बनना।" (मराल,पृ.163)
कुबेरनाथ राय की दृष्टि में 'भारत भूगोल से ज्यादा एक जीवन दर्शन और एक मूल्य परंपरा है' जिसे वे 'मनुष्यत्व का महायान' कहते हैं। (उत्तरकुरु, पृ.105) इसके पीछे
के कारणों को भी वे स्पष्ट करते हैं - "इसी जंबूद्वीप में देवता मनुष्य के लोक में नीचे उतरकर मनुष्यों के साथ 'मिश्र' होकर रहते आए हैं।" (उत्तरकुरु, पृ.105)
देवता से उनका तात्पर्य किसी पारलौकिक सत्ता से न होकर देवोपम जीवन दृष्टि से है। वे लिखते हैं - "वह सारी मानसिक ऋद्धि, मानसिक दिव्यता जिसकी कल्पना देवता में
की जाए, यदि किसी मनुष्य में उतर जाए तो वह देवोपम हो जाता है।" (उत्तरकुरु, पृ.105-6)। इसी देवोपम की पहचान ही असल में 'भारतीयता' की पहचान है। इस पहचान-स्वरूप
की निर्मिति के लिए वे इतिहास में पसरे कला, शिल्प, शास्त्र के खोह में प्रवेश करते चले जाते हैं और वहाँ से 'भारतीयता की मणि' लेकर ही निकलते हैं।
प्रसिद्ध समाजशास्त्री डॉ. श्यामाचरण दुबे ने अपने निबंध 'भारतीयता की तलाश' में भारतीयता की सही समझ की कुछ पूर्व शर्तों की ओर इशारा किया है, जिनमें 'इतिहास
दृष्टि', 'परंपरा बोध', 'समग्र जीवन-दृष्टि', और 'वैज्ञानिक विवेक' प्रमुख हैं। (समय और संस्कृति, पृ. 44-5) श्री राय के लेखन में यह 'चतुरानन-दृष्टि' हर जगह
देखने को मिलती है। 'भारतीयता' की पहचान के लिए जिस शास्त्रीय, स्थानीय और क्षेत्रीय परंपराओं के अंतरावलंबन की सूक्ष्म समझ की आवश्यकता पर डॉ. श्यामाचरण दुबे
ने जोर दिया है, वह श्री राय को संस्कार में मिली है। कला-शिल्प की आंतरिक संरचना और बुनावट को जिस आत्मीयता से वे प्रस्तुत करते हैं, वह अद्भुत तो है ही असल
'भारतीय मन' का प्रमाण भी है। महाकवि कालिदास की अमरकृति 'शकुंतला' उनके लिए 'दुष्यंत-शकुंतला' की प्रणय-गाथा मात्र न होकर 'भारतीयता की निर्मिति' के एक
महत्वपूर्ण कोण की तरफ इशारा करती है। उनकी दृष्टि में यह कथा आर्येतर और आर्य के महासमन्वय और वर्णाश्रम के सही ऐतिहासिक स्वरूप की ओर इशारा करने के साथ ही
भारतीय धर्म साधना की पूर्णांगता को भी प्रस्तुत करती है, जिसके अनुसार काम और तप परस्पर विरोधी न होकर सहजीवी हैं। भारत के जल-जंगल-जमीन को लेकर लिखे गए उनके
निबंधों में 'भारतीयता' का इंद्रधनुषी रूप देखने को मिलता है। इस 'आसेतु हिमाचल वसुंधरा' को वे मामूली मिट्टी मानने के लिए कत्तई तैयार नहीं हैं। यह उनके लिए
'साक्षात देव-विग्रह' है जिसे 'कोई जय नहीं कर सकता'। 'महीमाता' निबंध में भारतवर्ष के मृण्मय स्वरूप की सार्थक विवेचना करते हुए श्री राय ने यह सिद्ध किया है
कि भारत का सिर्फ झंडा ही तिरंगा नहीं है अपितु 'मिट्टी के रंग की दृष्टि से यह भारतवर्ष तिरंगा, त्रिवर्णी भूमि है - सादी, लाल और काली'। श्री राय की नजर में
'यह स्वर्णगर्भा वसुंधरा है, शस्य लक्ष्मी... साक्षात माता है'। (निषाद बाँसुरी, पृ.84)
श्री राय एक जगह लिखते हैं कि 'भारतीय सभ्यता में बाह्य तत्वों को आत्मसात करने की अपूर्व क्षमता थी। ऐसे तत्वों का भारतीय सांस्कृतिक परिवेश में अनुकूलन भी
हुआ, समाकलन भी'। सच तो यह है कि भारतीयता का विकास एक लंबी सांस्कृतिक यात्रा है। यह प्रक्रिया निरंतर आज भी जारी है। लेकिन आज परिस्थितियाँ भिन्न हैं। आज हम
पर फिर चौतरफा आक्रमण हो रहा है। हर्षवर्धनोत्तर काल में जो स्थिति पैदा हुई थी कुछ वैसी ही परिस्थितियाँ आज फिर से हमारे सामने उत्पन्न हो गई हैं। आज बड़ी सफाई
और बारीकी से 'भारतीयता' को कुचलने की कोशिश हो रही है - "भारतीयता के सगुण प्रतीक 'महात्मा गांधी' के नाम को ही मिटाने की कोशिश हो रही है। इसी के साथ 'अन्नों
के देशी बीज, पशुओं की देशी नस्लें, देशी भूषा और सज्जा, देशी भाषा और शब्दावली सब कुछ से हमें धीरे-धीरे काटने की कोशिश चालू है जिससे हम सर्वथा जड़-मूलहीन हो
जाएँ। अतः ठहरकर सोचने की जरूरत है। आज हमारे लिए जरूरी है कि पश्चिमी मानसिकता को निरंतर उधार लेने की जगह अपने देशी मानसिक उत्तराधिकारों की चर्चा करें।"
(उत्तरकुरु, पृ.70)। सरस्वती के वरद पुत्र श्री कुबेरनाथ राय की यह चिंता अत्यंत सहज और स्वाभाविक है। उनके लेखन का गंभीर अनुशीलन आवश्यक है। 'भारतीयता' के
महत्वपूर्ण प्रतीकों की सारगर्भित विवेचना जिस ईमानदारी और प्रमाणिकता के साथ उन्होंने अपने निबंधों में की है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। आज समय की माँग है कि हम
उसे समझकर सही परिप्रेक्ष्य में समाज के सामने रखें।
श्री राय की एक बड़ी चिंता है हमारा अपनी जड़ों से अपरिचित होना। डॉ. श्यामा चरण दुबे ने भी एक जगह स्वीकार किया है कि - "जड़ों की तलाश एक बुनियादी सवाल है। वह एक
सार्थक जिज्ञासा से जुड़ा है और अस्तित्वबोध को एक नया आयाम और नए मूल्य देता है।" (समय और संस्कृति, पृ.44) श्री राय का मानना है कि पिछले डेढ़-दो-सौ वर्षों मे
इस आर्ष चिंतन को अँग्रेजी भाषा के माध्यम से गलत ढंग से समझा और परोसा जा रहा है। स्वतंत्र भारत के बुद्धिजीवी अपने निजी पर्यवेक्षण, अपनी भारतीय दृष्टि और
अपने भारतीय स्रोतों के आधार पर आर्ष चिंतन और भारतीय समाज को समझने तथा तत्संबंधी सिद्धांतों को विकसित करने की अपेक्षा पश्चिमी अवधारणाओं और प्रत्ययों के
सहारे अपने अधूरे सरलीकरण प्रस्तुत कर रहे हैं जिनसे देश का भयानक अहित अवश्यंभावी है। सच तो यह है कि भारतीय चिंतन और संरचना को ठीक-ठीक समझने के लिए भारतीय
बुद्धिजीवियों को अपना निजी समाजशास्त्र या देशी नृतत्वशास्त्र या सौंदर्य शास्त्र विकसित करना चाहिए। श्री राय इन्हीं जड़ों की तलाश में निरंतर मानसिक यात्रा
करते रहे हैं। श्री राय विदेशी विद्वानों से विचारों के आदान-प्रदान के विरोधी नहीं हैं। परंतु गांधी की ही तरह अपने घर की खिड़कियों को खोले रखने के साथ-साथ
अपनी निजी-देशी-सोंधी-जमीन 'हमारे हरि हारिल की लकड़ी' को मजबूती से पकड़े रखने का आग्रह करते हैं। श्री राय उसी आर्ष चिंतन परंपरा के प्रामाणिक दस्तावेज के साथ
हमारे सामने उपस्थित होते हैं। इसके लिए वे नृतत्व शास्त्र के साथ-साथ भाषा विज्ञान का भी सहारा लेते हैं और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भारतवर्ष को
जानने के लिए 'भारत' और 'भारतीय विश्व' को जानना आवश्यक है। भारतीयता की तलाश का रास्ता-लेखन नीरस और उबाऊ न हो इसके लिए उन्होंने आवश्यकतानुसार 'लालित्य' का
खूब सहारा लिया है। भारतीयता की समझ के लिए लालित्य-बोध एक आवश्यक कड़ी है क्योंकि भारतीयता एक ही साथ 'भावना' और 'मनोदशा' दोनों है। बोधयुक्त देशज लालित्य के
अखाड़े में खड़े श्री राय दोनों भुजाओं और जंघों पर भीम-ताल ठोंक कर चुनौती देते हैं। यह सच है कि इस तरह की यह ललकार तो कोई 'मरदवा' ही दे सकता है जिसकी अपनी
जमीन उर्वरा शक्ति से भरपूर हो।
यह एक तथ्य है कि स्वाधीनता प्राप्ति के बाद ही देश में एक सांस्कृतिक अराजकता की शुरुआत हो गई थी। हुमायूँ कबीर जैसे लोगों ने उल-जुलूल व्याख्या से इसकी शुरुआत
की और नुरूल हसन की छ्त्रछाया में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद ने इसे खाद-पानी दिया। परिणाम यह हुआ कि आज राष्ट्रीय भावनाएँ बड़ी तेजी से अशक्त और निष्प्राण
होती जा रही हैं। हम बेझिझक पश्चिम का अनुकरण कर अपनी अस्मिता खोते जा रहे हैं। कल तक यह प्रवृत्ति एक छोटे और प्रभावशाली तबके तक ही सीमित थी पर अब उसका फैलाव
बड़ी तेजी से बढ़ता जा रहा है। आज हम सब इस बात से परिचित हैं कि संस्कृति आज की दुनिया में एक राजनीतिक अस्त्र के रूप में उभर रही है। अपने स्वार्थपूर्ण
उद्देश्यों की पूर्ति के लिए राष्ट्र और संस्थाएँ इसका खुलकर उपयोग कर रही हैं। यदि हम निष्ठा और प्रतिबद्धता से भारतीयता की तलाश करें, उसे पहचाने और आत्मसात
करने की कोशिश करें तो उन पर रोक लग सकती है। पर यह कहने और लिखने में जितना आसान है उतना ही व्यवहार में जटिल भी है।
भारतीयता की पहचान का असल स्वरूप हमें उसकी वांग्मय परंपरा अर्थात साहित्य और शिल्प में देखने को मिलता है। इस पहचान के उद्घाटन के लिए हमारा आर्ष चिंतन से
परिचित होना जरूरी है। 'चिन्मय भारत' नामक पुस्तक में श्री राय ने आर्ष चिंतन के बुनियादी सूत्रों को स्पष्ट करने की कोशिश की है - "आर्ष से हमारा तात्पर्य
'वैदिक' मात्र या 'ऋषि दृष्टि प्रसूत' मात्र नहीं है। हम उस पूरी परंपरा को, जो ऋषि के अनुधावन से बनती है, आर्ष परंपरा मानते हैं। आर्ष से हमारा तात्पर्य उस
समूची चिंतन परंपरा से जिसका प्रस्थान बिंदु तो ऋषि ही है, पर अविच्छिन्न रूप मे कालिदास, शंकराचार्य, रामानुज-वल्लभ-चैतन्य, संत और भक्त से होती हुई आधुनिक
गांधी-अरविंद तक आती है। बीज है ऋषि और भारतीय चिंतन का यह अश्वत्थ अभी तक विराजमान है। वृक्ष बीज के आधार पर ही नामांकित होता है। अतः इस इतिहासव्यापी अखंड
चिंतन परंपरा की संज्ञा आर्ष हो सकती है।" (चिन्मय भारत, पृ.16-17)
आज जब समाज के सभी तबके बुद्धिजीवी से लेकर साहित्यकार तक सभी सरकार-बाजार के पिछलग्गू बनने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं वैसे समय में श्री राय गंगातीरी
पगड़ी बाँधे हुए कंधे पर लउर (लाठी) में भारतीयता का अमृत-घट लटकाए हुए आर्यावर्त से लगायत जंबूद्वीपे-भरतखंडे की परिक्रमा करते हैं। इस बोध-परिक्रमा के लिए जिस
अकुंठ साहस, निर्भयता, स्पष्टता और दो टूकपन की जरूरत होती है वह कुबेरनाथ राय के लेखन में सर्वत्र मौजूद है। श्री राय ने भारतीयता के उदात्त तत्वों को न केवल
आत्मसात किया है अपितु अपने निबंधों में इसकी गंभीर विवेचना भी की है। उनकी तर्कशक्ति अद्भुत है। इसे धार देने के लिए वे विज्ञान, नृतत्व शास्त्र, भाषा विज्ञान,
मिथक, इतिहास आदि अनुशासनों का यथासंभव सहारा भी लेते हैं। श्री राय किसी के विरोध या उपेक्षा से मुक्त संपूर्ण आर्यावर्त में शिव के साँड़ की तरह मुक्त विचरण
करते हैं। सच तो यह है कि श्री राय अपने आत्मलब्ध सत्य के प्रति न केवल पूरी तरह ईमानदार हैं अपितु साहस के साथ उसकी अभिव्यक्ति भी करते हैं जिसका प्रथम और
आखिरी सूत्र है - 'अहं भारतोऽस्मि'।