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कविता

ओ रावण !

असीमा भट्ट


ओ रावण !
तुम आज भी कई भेष धरते हो
कभी मारीच तो कभी सोने का मृग
आज भी सोने का मृग की माया से
सीता को लुभाते हो और छलते हो
और सीता तुम!
तुमने कुछ नहीं सीखा
अपनी परंपरा और इतिहास से
हर चीज एक चाल है
तुम्हें बाँधने के
तुम्हें फँसाने के
राम अपने साथ वन ले जाता है
इतनी सुंदर युवा पत्नी को छोड़ कर पुरुष अकेला कैसे रह सकता है
ले गए जंगल और कैद दिया लक्ष्मण रेखा में
खीँच दी बस एक लकीर
ताकि तुम लाँघ न सको उनकी तथाकथित परंपरा
तुम्हें दी सख्त हिदायत - न करो पार लक्ष्मण रेखा
होगा उल्लंघन, होगा घोर पाप
रखनी होगी संस्कारों की रक्षा और लाज
तुम नहीं भूल सकती अपनी बेड़ियाँ
तुम नहीं तोड़ सकती अपनी बेड़ियाँ
तुम्हें रहना ही है मर्यादा की सीमा में
बस एक कदम पार और
और होगा अन्याय
घोर अनर्थ
अधर्म


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