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कविता

दशरथ माँझी

राकेशरेणु


जिनसे प्यार करता था
उनके दुख पी जाना चाहता था
हमारे वक्त में वह नीलकंठ था
बाँहें उसकी इस्पात की थीं
और वैसा ही संकल्प
निर्मल प्रेम की तरलता विद्यमान थी जिसमें
वह खड़ा होता
झरने लगते पहाड़
तड़क उठता चट्टान का हृदय
आँखों की कौंध से
पैरों के आसपास आ खड़े होते शिलाखंड
बिल्ली के बच्चों की तरह
वह एक कदम बढ़ाता
खिसक जाता पहाड़ पीछे
समतल चौरस जगह छोड़ते हुए
वाहिद आदमी था
जिसने सोचा
गाँव को चाहिए रास्ता
शहर और सूर्य तक पहुँचा जा सके
जिससे
गिरे न कोई कलेवा पहुँचाते हुए
पच्चीस साल से वह तोड़ रहा था पहाड़
पच्चीस साल तक देखते रहे जन-तंत्र उसे
लोगों से बहुत पहले
पहचाना पहाड़़ ने - वह आदमी
नहीं, पहाड़ है संकल्प का
गहन शत्रुता में शुरू हुई यात्रा बदल गई मित्रता में उसके बाद
उसी पर धुआँ गई पत्नी
गोद से उछलकर बिटिया बड़ी हुई
जिस रास्ते पर
उसने उत्सर्ग किए पच्चीस बरस
उसी से चलकर वह अपने मार्ग पर था
जहाँ ताश का तिरपनवाँ पत्ता
बाबन पत्तों को बंदर की तरह नचा रहा था।  


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