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कविता

लालटेन

राकेशरेणु


प्रायः टँगी रहती है
जंग खाई खूँटी पर
कभी-कभार उतर जाती है
और जलती रहती है निर्विघ्न
तब तक मैं पढ़ता हूँ जोर-जोर से
सोने की चिड़िया की
दूध की नदी की कहानी
कई बार यह बैठ जाती है
बाबूजी के सिरहाने
वे लगाते हैं हिसाब
सालों पुरानी डायरी में, अँगुलियों पर
खर्चे का कर्जे का।
माँ
कई बार झुकती है इसके आगे
सामने लेकर
कमीज की घिसी कॉलर
दूसरे विश्वयुद्ध के दिनों में
दादा जी लाए थे इसे
तभी से जल रही है।
चुपचाप मैं कम करता हूँ इसकी रोशनी
तभी सुनता हूँ बाबूजी की थरथराती आवाज
जलते दे इसे जब तक अँधेरा है
जलने दे
जब तक जगे हुए हैं लोग। 


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हिंदी समय में राकेशरेणु की रचनाएँ