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कविता

दंगा

राकेशरेणु


एक अजीब-सा शोर है शहर में हर तरफ
तुमने सन्नाटे की चीख सुनी है कभी
वे जो गोदे गए और मर गए
वे जो मृत्यु की तरफ बढ़ रहे हैं धीरे-धीरे
वे जिनके पति/पत्नी/ बच्चे या माँ-बाप मरे
वे जिनका लुट गया सब कुछ
सब चुप हैं
भक्क और चुप्प
सिर्फ सन्नाटे की चीख गूँजती है बाजार में
कहीं से भी आदमी की आवाज नहीं आती
बाजार में कुछ बिल्लियाँ हैं आँखों में खूनी चमक लिए हुए
कुछ कुत्ते हैं भूकना भूल गए हैं शायद
कुछ मरघिल्ली बकरियाँ हैं मृत्यु-भय से आक्रांत
इधर-उधर तलाशती हुई छिपने की जगह
कहीं से भी आदमी की आवाज नहीं आती
सिर्फ सन्नाटे की चीख गूँजती है गलियों में
किस शहर में
अँधेरी सुरंग में आ गया हूँ मैं
सोचता हूँ कौन उठाएगा यह स्याह रात
कब उगेगा भोर का सूरज शहर में
कब तक गूँजेगी सन्नाटे की चीख
कब तक आँखों में बिल्लियाँ चमकेंगी
कब जीवन बतियाएगा गलियों में
कब तक मृत्यु को / हत्या को आराध्य मानेंगे लोग


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