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कविता

सफ़र-हमसफ़र

लाल्टू


ऐसा ही होगा यह सफ़र
कभी साथ होंगे
कभी नहीं भी
रास्ते में पत्थर होंगे
पत्थरों पर सिर टिकाकर सोएँगे

होंगे नुकीले ही पत्थर ज़्यादा
पत्थरों पर ठोकर खा रोएँगे.

जो सहज है
वही यात्रा होगी जटिल कभी
जैसे स्पर्श होगा अकिंचन
बातें होंगी अनर्गल
उन सब बातों पर
जिन पर बातें होनी न थीं.

बातों के सिवा पास कुछ है भी नहीं
यह भी सच कि
दुनिया बातों से नहीं चलती
अमीर नहीं होते कला, साहित्य के गुणी.

फिर भी सफ़र में
गलती से आ ही जाता है वह पड़ाव
जब सोचते हैं
कि अब साथ ही चलेंगे
जब डर होता है
कि कभी बातें याद आएँगीं
और बातें करने वाले न होंगे

डर होता है
कभी सब जान कर भी
आँखें घूमेंगीं
ढूँढेंगीं हमसफ़र.

(पश्यन्ती - 2004)


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