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कविता

कुछ भी नहीं

लाल्टू


जो कहना है वह कह दिया गया है
कुछ जनम लेने से पहले कुछ बाद
अब मूक हूँ न ही कहूँ
होने से कहीं अधिक सच न होना
यही है सच हर घर
घर घर

हालाँकि मैं बेघर
वैसे छत है
है परिवार
दुबकने को जाड़े में है रजाई
दफ्तर में कहीं न कहीं जगह ऐसी भी है
सोचने को आकाश महाकाश
फिर भी हूँ कुछ भी नहीं
ब्रह्माण्ड में होना न होना
क्या होना.

(पश्यन्ती - 2001)


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