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कविता

मनस्थिति

लाल्टू


मनस्थिति-1


आवाजें दूर से
शोरगुल
गाड़ी बस, खेलते लड़के
गपशप में मशगूल लोग-बाग
थोड़ी देर पहले एक दुखी इन्सान देखा है
बदन में कहीं कुछ दुख रहा इस वक्त
सबकुछ इसलिए कि आवाजें पहुँचती हैं

कोई आसान तरीका नहीं उस गहरी नींद का
जिसमें सारी आवाजें समा जाती हैं

सुख दुख का असमान समीकरण
बार बार आवाजों की विलुप्ति चाहता है.

सभी आवाजें बेचैन
कैसे? कैसे?

(विपाशा - 1996)

मनस्थिति-2


कोई देखे तो हँसेगा
जैसे शून्य की कहानी
सुन मैं हँसा

बाहर घसियारों की मशीनें
चुनाव का शोर
मैदान में खेल
शोर आता दिमागी नसें कुतरता हुआ भीतर
शून्य की तकलीफ अपने वजूद पर खतरे की
मुझे सुनाई जैसे सुनाई खुद से हो

जाने कौन हँसा
मैं या शून्य.

(विपाशा - 1996)


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हिंदी समय में लाल्टू की रचनाएँ