दे नहीं पाए तिमिर में तुम
मुझे आलोक के क्षण
कह नहीं पाए जगत से
मैं मिली हूँ प्रेरणा बन
नेह घटते दीप का उपहार
लेकर क्या करूँगी
कान में यूँ फुसफुसाता
प्यार ले कर क्या करूँगी
मैं व्यथित थी तब तुम्हें
अवकाश के क्षण मिल न पाए
फूट रोई मैं अकेली,
नयन ना तुमने भिगाए
आज हाथों में समय ले,
हो उपस्थित, मानती हूँ
तुम प्रणेता, सैकडों
मजबूरियाँ, मैं जानती हूँ
किंतु मैं भी स्वयंसिद्धा,
मैं नहीं कोई भिखारिन
प्रेयसी मैं हूँ तुम्हारी,
मैं नहीं सरला पुजारिन
अहम से लिपटे कनक का
दान ले कर क्या करूँगी
भावना से हीन झूठा
गान ले कर क्या करूँगी
कौन कहता भामिनी
रचती नहीं वैदिक ऋचाएँ
चंद्रमुख संदल बदन पर
शोभती यौगिक विभाएँ
मैं तुम्हारे शास्त्र का लघु
ज्ञान ले कर क्या करूँगी
जन्मदात्री, मैं नदी,
पाषाण से मैं क्या डरूँगी !