ओ उषा! अब यों न सकुचा
आ, उतर के आँगना आ
सत्य होने की ललक में
स्वप्न कोई जागता है
स्पर्श तेरा माँगता है
रातरानी की लटों से
नील नभ के पनघटों से
झर रही सुषमा अनूठी
रत्न दिनकर बाँटता है
कृपण तम को डाँटता है
`मैं लखूँ!’ हठ कर पड़ा है
रंग मुखड़े का उड़ा है
गाँव की पगडंडियों से
चाँद तुझको ताकता है
रूप तेरा आँकता है
ले प्रभा से पद गुलाबी
खग-मृगों से आपाधापी
तोल पर, मन का पखेरू
दृष्टि सीमा लाँघता है
संग पी का माँगता है ।
ओ उषा! अब यूँ न सकुचा
आ, उतर के आँगने आ
सत्य होने की ललक में
स्वप्न कोई जागता है
स्पर्श तेरा माँगता है।